फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको
खौफ़ और दर्द ने क्योंकर यूं झिंझोड़ा मुझको
मैं तो सोया हुआ था ख़ाक के उस बिस्तर पर
जिस पर हर जिस्म नयीं ज़िन्दगी ले लेता है
बस ख़्यालों में नहीं अस्ल में सो लेता है
आंख खुलते ही एक मौत का मातम देखा
अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा
किस कदर खौफ़ ज़दा दर्द की आवाज़ थी वो
बूढी बेबा की दम तोडती औलाद थी वो
एक बिलख़ते हुये मासूम की किलकार थी वो
कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो
मुझको याद आया इस बार वो बचपन मेरा
कुहर की धुंध में लिपटा हुआ सपना मेरा
तब हम अनेक हैं हैवानियत के पांव तले
तब हम सोचते थे सब्ज़ और खुशहाल वतन
अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन
तब फूल थे खुशियां थीं और हम सब थे
अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम
तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये
अब न वो इंसान रहा और न वो भगवान रहा
बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा
देख लो सोच लो शायद तुम सम्भल पाओगे
रूह और जिस्म के रिश्तों को समझ पाओगे
अरश से आती है कानों में यह गांधी की सदा
क्या ‘रज़ा’ इस तरह तुम चैन से सो पाओगे
-अब्बास रज़ा अल्वी