बैंकों के विश्वास पर ग्रहण लगना!

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-ः ललित गर्ग :-

पंजाब एंड महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक के तीन खाताधारकों ने पिछले दो-तीन दिनों में अपनी जीवनलीला इसलिये समाप्त कर दी कि बैंक के डूबने का भय उत्पन्न हो गया। इस बैंक में जमा अपनी मेहनत की जमा पूंजी के खतरे में होने की संभावनाओं ने ही इन तीनों को आत्महत्या करने को विवश किया। ये घटनाएं न केवल भारतीय बैंकिंग व्यवस्था पर बल्कि शासन व्यवस्था पर भी एक बदनुमा दाग है। आज यह स्वीकारते कठिनाई हो रही है कि देश की आर्थिक व्यवस्था को सम्भालने वाले हाथ इस कदर दागदार हो गए हैं कि नित-नया बैंक घोटाला एवं घपला सामने आ रहा है। दिन-प्रतिदिन जो सुनने और देखने में आ रहा है, वह पूर्ण असत्य भी नहीं है। पर हां, यह किसी ने भी नहीं सोचा कि जो बैंकें राष्ट्र की आर्थिक बागडोर सम्भाले हुए थे और जिन पर जनता के धन को सुरक्षित रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी, क्या वे सब इस बागडोर को छोड़कर अपनी जेब सम्भालने में लग गये? जनता के धन के साथ खिलवाड़ करते हुए घपले करने लगे।
सर्वविदित है कि बैंक में चल रहे फ्राड को पकड़ने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक आफ इंडिया की है। लोगों का पैसा सुरक्षित रहे, इसकी जिम्मेदारी भी आरबीआई की है। आरबीआई अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता, केन्द्र सरकार भी इन स्थितियों के लिये दोषी है। घर में अपनी मेहनत की पूंजी को जमा रख नहीं सकते, बैंकों में जमा कराये तो जमा धन के सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं, कहां जाये आम आदमी? यह कैसी शासन-व्यवस्था है? बैंकिंग व्यवस्था से लोगों का भरोसा उठा तो फिर कौन जाएगा बैंकों में? लोगों का बैंकिंग तंत्र में भरोसा बहाल करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने ही होंगे अन्यथा पूरा अर्थतंत्र ही अस्थिर एवं डूबने की कगार पर पहुंच जायेगा।
कैसे त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति देखने को मिल रही है कि पीएमसी के खाताधारक अपने ही पैसे निकालने के लिए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। जब से आरबीआई ने पीएमसी बैंक में गड़बड़ी को लेकर पाबंदियां लगाई हैं तब से खाताधारक परेशान हैं, भयभीत है, डरे हुए है। जरूरतमंद लोग बैंक से अपना ही पैसा नहीं निकाल पा रहे। जिस व्यक्ति की नौकरी छूट गई हो और उसकी बैंक में 90 लाख की रकम जमा हो, बेबसी इतनी कि वह बैंक में जमा पैसों के बावजूद अपने दिव्यांग बेटे का इलाज भी नहीं करवा पा रहा हो, उसका सदमे में दम तोड़ देना स्वाभाविक है। एक अन्य खाताधारक ने आत्महत्या कर ली जबकि एक अन्य खाताधारक की मौत हार्ट अटैक से हुई। ये खौफनाक एवं डरावनी स्थितियां सत्ता की साख पर सवालिया निशान है।
पीएमसी बैंक के खाताधारकों की पीड़ा तो नोटबंदी की पीड़ा से कहीं अधिक है। कौन सुनेगा इनकी पीड़ा, कौन बांटेगा इनका दुःख-दर्द। यह इस देश की विडम्बना ही है कि यहां आम आदमी लुट रहा है, मुट्ठीभर राजनीतिज्ञ और पूंजीपति ऐश कर रहे हैं। आजादी के सात दशक का सफर तय करने के बाद भी आम आदमी ठगा जा रहा है, उसको लूटने वाले नये-नये तरीकें लेकर प्रस्तुत हो जाते हैं। कभी इन्हें फ्लैट देने के नाम पर लूटा जाता है तो कभी कर्ज देने के नाम पर। कभी नौकरी दिलवाने के नाम पर इनसे ठगी की जाती है, तो कभी स्कूल-कालेज में दाखिले के नाम पर। कभी बैंक का दीवाला पिट गया तो इनसे धोखा हुआ। आखिर मेहनत करने वाले लोग किसकी चैखट पर जाकर अपना दुख सुनाये, किसको अपने दर्द की दुहाई दें। आज किसको छू पाता है मन की सूखी संवेदना की जमीं पर औरों का दुःख-दर्द? बैंक घोटालों की त्रासद चुनौतियों का क्या और कब अंत होगा? बहुत कठिन है भ्रष्टाचार, अराजकता, घोटालों-घपलों की उफनती नदी में नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना। अब सवाल यह है कि भ्रष्ट लोगों और बैंक का पैसा डकार कर भागने वाले के गुनाह का खामियाजा बैंक के ग्राहक क्यों भुगतें? घोटालेबाज क्यों नहीं सजा पाते? क्यों नहीं भविष्य में ऐसे घोटाले न होने की गारंटी सरकार देती? कैसे आरबीआई अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता है? बैंक के खाताधारकों ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के आगे गुहार लगाई थी, तब उन्होंने भरोसा दिलाया था कि वह ग्राहकों को राहत दिलाने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर से बात करेंगी। राहत ही क्यों, पूरा पैसा देने की गारंटी क्यों नहीं? रोशनी बन कर गृहमंत्री अमित शाह ने पीएमसी घोटाले पर आश्वासन दिया है कि ग्राहकों का पूरा पैसा वापिस किया जाएगा। पीएमसी बैंक में 80 फीसदी तक एक लाख रुपए तक के डिपाजिटर हैं, जिनके पैसे डिपाजिट इंश्योरेंस स्कीम एक्ट के तहत वापिस किए जाएंगे। लेकिन इससे अधिक राशि के डिपोजित का क्या होगा?
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों और निचले पायदान पर खड़े लोगों के बीच आखिर कब तक एक धोखेभरा खेल चलता रहेगा? महंगाई के दौर में पाई-पाई जोड़ने और अपनी बचत को बैंक में डालने वाले आम नागरिक मनी लांड्रिंग या हवाला जैसा कुछ नहीं कर रहे हैं। फिर उनकी जमा पूंजी को निकालने के लिये तरह-तरह की पाबंदियों क्यों? यह उनकी मेहनत की कमाई है। जो स्थिति पीएमसी में देखने को मिल रही है, उसके बाद स्पष्ट है कि यदि हर सहकारी बैंक की छानबीन की जाए तो आधे से ज्यादा बैंकों के फ्राड सामने आ जाएंगे। समय रहते उनकी जांच क्यों नहीं की जाती? सभी कोई पीएमसी काण्ड के माध्यम से भ्रष्टाचार के दानव को ललकार रहे हैं। गांव में चोर को पकड़ने के लिए विरले ही निकलते हैं, पर पकड़े गए चोर पर लाते लगाने के लिए सभी पहुंच जाते हैं।
इस पीएमसी काण्ड ने बैंकों के प्रति विश्वास की हवा निकाल दी। भ्रष्टाचार का रास्ता चिकना ही नहीं ढालू भी होता है। क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर सज़ातंत्र हो गया। व्यवस्था और सोच में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई अपनी जमा पूंजी के डूबने के भय एवं डर में आत्महत्या नहीं करे। मोदी सरकार को ऐसा उपाय करना होगा कि बैंक के विफल होने पर कम से कम लोगों की मेहनत की कमाई पूरी मिल सके। इसके लिए कानून में संशोधन भी करना पड़े तो किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठने के साथ-साथ वह जानलेवा भी बनती जायेगी। समानान्तर काली अर्थव्यवस्था इतनी प्रभावी है कि वह कुछ भी बदल सकती है, कुछ भी बना और मिटा सकती है। एक वक्त था जब राज्यों की सुरक्षा व विस्तार हथियारों के बल पर होते थे। शासकों को जान हथेली पर रखनी पड़ती थी। आज सत्ता मतों से प्राप्त होती है और मत काले धन से। और काला धन हथेली पर रखना होता है। बस यही घोटालों और भ्रष्टाचार की जड़ है और अब बैंकों तक उनकी पहुंच हो गयी है।
लोकतंत्र एक पवित्र प्रणाली है। पवित्रता ही इसकी ताकत है। इसे पवित्रता से चलाना पड़ता है। अपवित्रता से यह कमजोर हो जाती है। ठीक इसी प्रकार अपराध के पैर कमजोर होते हैं। पर अच्छे आदमी की चुप्पी उसके पैर बन जाती है। अपराध, भ्रष्टाचार अंधेरे में दौड़ते हैं। रोशनी में लड़खड़ाकर गिर जाते हैं। हमें रोशनी बनना होगा। और रोशनी बैंक घोटालों एवं जनता की मेहनत की कमाई को हड़पने से प्राप्त नहीं होती। 

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