शाहरूख को सलाम, शिवसेना को सलाह

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एक अकेला आदमी अगर तय कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है। शाहरूख खान ने तो हमें यही सिखाया है। अब सीखने की बारी शिवसेना की भी है, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की भी और उन राजनेताओं की भी जो भारतीय जनता को फुटबाल बनाकर अपनी रोटियां सेंकते रहते हैं। शाहरूख खान न राजनेता हैं, न एक्टीविस्ट हैं, न उन्हें समाज को सुधारना है। वे एक कलाकार हैं और ऐसे कलाकार जिनका एक बाजार है।

जब तक बाजार है तब तक शाहरुख खान हैं। जाहिर तौर पर दांव पर किसी का कुछ था तो वो शाहरुख खान का ही था। अगर फिल्म की रिलीज न होती तो करोड़ों का नुकसान होता। शाहरूख को सलाम इसीलिए कि उन्होंने हमें डटे रहना सिखाया। कुछ अरसे पहले ऐसी ही हिम्मत प्रीति जिंटा ने दिखाई थी पर उनकी इतनी चर्चा नहीं हो पायी। शाहरूख परदे के ही नहीं असली हीरो की तरह सामने आए। इस बात को साबित किया कि वे बाजार में भी हैं, कलाकार भी हैं पर हैं एक हिंदुस्तानी और एक ऐसे परिवार के वारिस हैं जिसकी जड़ें आजादी के आंदोलन से जुड़ी हैं। एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार के वारिस से जो उम्मीद थी उसे शाहरुख ने पूरा किया है। बाल ठाकरे जैसी असंवैधानिक सत्ताएं देश के तमाम इलाकों में फलफूल रही हैं। लोकतंत्र को चोटिल कर रही हैं। उन्हें सबक सिखाने के लिए ऐसी ही हिम्मत की जरूरत है।

आम आदमी पर अपनी ताकत दिखाकर मुंबई का सरकारराज बने ठाकरे के परिजनों को यह समझने की जरूरत है कि हुल्लड़ राजनीति के दिन अब लद गए हैं। देश इक्कीसवीं सदी का पहला दशक पूरा कर नए सपनों की ओर बढ़ रहा है। बाल ठाकरे और उनके वंशज उन सपनों तक नहीं पहुंच सकते। देश और उसके लोकतंत्र ने एक परिपक्वता और अभय प्राप्त किया है। देश के युवा अपने सपनों में रंग भरने में लगे हैं किंतु हमारी राजनीति लौटकर उन्हीं वीथिकाओं में चली जाती है जो रास्ता अंधेरी सुरंग में जाता है। राजनीति का यह खेल हमें समझना होगा। क्या अगर हमारी सरकारें तय कर लें तो कहीं भी अराजक दृश्य देखे जा सकते हैं। हमारी राजनीति और उसकी दुरभिसंधियां ही हमारे बीच बाल ठाकरे, राज ठाकरे जैसे चेहरों को पैदा करती हैं। शरद पवार जैसे राजनीति के चतुर सुजान अगर ऐसे हालात में बाल ठाकरे के दरबार में हाजिरी भर आते हैं तो इसके अर्थ समझना कठिन नहीं है। लेकिन ऐसा होता है और हम देखते हैं। राहुल गांधी ने जैसी भी, जितनी भी हिम्मत दिखाकर मुंबई की यात्रा की, पवार उस पर पानी फेर आए। क्या मुट्ठी पर लंपट तत्वों को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वे सिनेमाधरों या खेल के मैदानों में दौड़ें। शाहरूख खान इस मामले में अन्य कलाकारों की तुलना में भाग्यशाली साबित हुए कि उनके माध्यम से ठाकरे परिवार की किरकिरी हो गयी। सच तो यह है कि सत्ता के नकारेपन ने शिवसेना और मनसे के गुंडाराज को प्रश्रय दिया है। यदि शासन अपने कर्तव्यों का सही मायने में निर्वाह करे तो हमें दृश्य शायद दुबारा देखने न मिलें। मातोश्री के बंगले में बैठकर फरमान जारी करना और युवाओं का गलत इस्तेमाल, शिवसेना की यही परिपाटी रही है। ऐसी राजनीतिक शैली को पुरस्कृत करना ठीक नहीं है। बाल ठाकरे की अपनी एक अलग शैली रही है, अपने भाषणों और लेखन से उन्होंने बहुत आग उगली। स्थानीयता के नारे ने उनकी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाया किंतु राजनीतिक सफलता पाने के बाद भी उनकी पार्टी में अपेक्षित गंभीरता और मुद्दों को लेकर समझ का निरंतर अभाव है। यही कारण है कि मराठी मानुष की एकता का नारा उनके परिवार को भी एक न रख सका। उनके भतीजे और बहू सब आज ठाकरे से अलग राय रखते हैं। यह साधारण नहीं है छगन भुजबल, नारायण राणे और संजय निरूपम जैसे नेता आज ठाकरे के साथ नहीं है। यही ठाकरेशाही का अंत है। दुर्भाग्य कि ठाकरे आजतक इसे नहीं समझ पा रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी की राजनीति के मानक और उसकी शैली अलग है, दुर्भाग्य से ठाकरे परिवार टीवी न्यूज चैनलों की टीआरपी के लिहाज से सही काम कर रहा है किंतु जनता के मन में उसकी जगह बन पाएगी इसमें संदेह है। यह असाधारण नहीं है कि शिवसेना की सहयोगी भाजपा के भीतर भी उसके साथ रिश्तों को लेकर पुर्नविचार प्रारंभ हो गया है। शिवसेना का संकट यह है कि वह एक साथ बहुत सारे प्रश्नों पर मोर्चा खोलकर अपने शत्रु ही बढ़ा रही है। मुसलमानों के प्रति उसका रवैया बहुत धोषित रहा है किंतु उसने हिंदी भाषियों को भी अपना शत्रु बना लिया है। वह क्षेत्रीयता, भाषा, जातीय अस्मिता और धर्मिक भावनाओं सबका माखौल बना रही है। सही मायने में उसने अपने पतन का रास्ता खुद तय कर लिया है। मारपीट और हुल्लड़ की राजनीति कहीं न कहीं लोगों को मुक्त भी करती है। शाहरूख ने इस भय को थोड़ा खत्म किया है। कल्पना कीजिए जिन निरीह टैक्सी चालकों पर, दूकानदारों पर शिवसैनिक या मनसे के कार्यकर्ता अपने पुरूषार्थ का प्रदर्शन करते हैं, वे भी एकजुट होकर प्रतिवाद पर उतर आएं तो शिवसेना की आक्रामक राजनीति का क्या होगा। सही मायने में अपनी लगातार आक्रामक शैली से शिवसेना अब लोगों से दूर हो रही है। उसकी अतिवादी राजनीति अब आकर्षित नहीं, आतंकित करती है। लोग इसीलिए इस शैली की राजनीति का खात्मा चाहते हैं। राजनेताओं की चाल भी लोग समझ रहे हैं। ठाकरे से मिलने के नाते शरद पवार की जितनी और जैसी आलोचना हुयी उसे साधारण मत समझिए। राहुल गांधी, शाहरूख खान के स्टैंड को भी साधारण मत समझिए। यह जनभावना है जो लोगों को हिम्मत दे रही है। भारत बदल रहा है। पिछले चुनाव में बिहार, उप्र से लेकर पूरे देश में हारे बाहुबलियों की कहानी हो,महाराष्ट्र में शिवसेना की चुनावी पराजय की कथा हो, सबको इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारतीय राजनीति में जब गर्वनेंस, सुशासन और विकास के सवाल सबसे अहम हो चुके हों तब शिवसेना की राजनीतिक शैली का भविष्य क्या है। इस पर बाल ठाकरे को सोचना होगा पर दुख यह है कि वे इन दिनों राज ठाकरे से सीख रहे हैं। ऐसे में शिवसेना और ठाकरेशाही का भविष्य तो तय ही है पर क्या बूढ़े हो चुके इस सच का सामना करने को तैयार हैं।

– संजय द्विवेदी

8 COMMENTS

  1. बहुत अच्छा लेख, सत्य के साथ हीं तर्कपूर्ण प्रस्तुति| शाहरुख खान सिर्फ एक कलाकार हीं नहीं बल्कि हमारे देश के सम्मानिये आदर्श नागरिक और देश के गौरव भी हैं| कला, खेल, संस्कृति, भाषा, इत्यादि पर किसी तरह की राजनीति कहीं से भी जायज़ नहीं है| शाहरुख खान ने जो भी बयान दिया कहीं से भी देश के विरुद्ध नहीं है, और उम्मीद है कि उनकी शख्सियत ऐसी हीं चमकती रहेगी| बाल ठाकरे और उनके सभी समर्थकों को देश के हित में ज़रा तो सोचना चाहिए|

  2. हम सुरेश जी की बात से सहमत हैं की पाकिस्तान भारतीय फिल्म और अन्य उत्पादों की पाइरसी का दुनिया में सबसे बड़ा अड्डा है.यह बात प्रामाणिक है
    और सभी जानते हैं. इस बारे में शाहरुख के क्या विचार हैं?

  3. आज आपका सम्पादकीय पढ़ा और विचार धारा से सभी सहमत होंगे की भारत से गुंडा गर्दी समाप्त होनी चहिये . राजनीती में यह गुंडागीरी को स्थान नहीं देना चाहिए . बाल ठाकरे को कबीर दास के दोहे पढकर काम करना चाहिए. एक नेता को अभिनेता से टक्कर नहीं लेनी चहिये . ” ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय . आपन को शीतल करे औरों शीतल होय. श्याम त्रिपाठी

  4. शिवसेना जैसे घृणित संस्था का नाम लेना भी मेरे लिए कष्ट दायक होता है फिर भी आलेख पर टिप्पणी करने के नाते यह पीड़ा उठानी ही पड़ रही है । शिवसेना कह रही है कि वह माई नेम इज खान का नहीं, अपितु खान के पाकिस्तान प्रेम के कारण फिल्म का विरोध कर रही है । भाई पाकिस्तान, जहं की बोली-भाषा संस्कृति, रहन-सहन सब कुछ भारतीय है । जो हमारा पुरान सगा है , उससे प्रेम तो हम जैसे तमाम लोग करते हैं । पाकिस्तान से नफरत क्यों ? हां आतंकवाद और आतंकवादियों से नफरत हो सकती है, है भी । ये लंपट तो मराठी का झण्डा उठाते हैं और हिन्दी भाषियों को मारते-पीटते हैं । हिन्दी और मराठी ऐसी भाषाएं हैं, जिनकी एक ही वर्णमालाएं हैं उनमें इतनी नफरत ? इतनी अंग्रेजी से हुई होती तो मराठी का कुछ भला हुआ होता । ऐसी लंपटयी की इजाजत किसने दी है ? इन्हें किसने प्रमाण पत्र देने को कहा है कि किसका किससे प्रेम हो ?

  5. आपके विचार से मै सहमत नहीं हु
    Shahrukh was termed a traitor by
    Shiv Sena because he said that Pakistan is a GREAT neighbour.

  6. १) दुनिया जानती है की पाकिस्तान भारतीय फिल्म और अन्य उत्पादों की पाइरसी का दुनिया में सबसे बड़ा अड्डा है
    २) पाकिस्तानी वेबसाइट songs.pk भारतीय गानों के पाइरेटेड वर्षन्स ऑनलाइन डाउनलोडिंग के लिए होस्ट करती है इसका एक दिन का रेवेन्यू १२ करोड़ रुपए हैं जिसे बतौर टॅक्स वह पाकिस्तानी सरकार को चुकाती है और भारतीय फिल्म कंपनी , और संगीत कंपनियों को सीधा चूना लगता है.
    ३) भारतीय गायकों के होते हुए फिल्म के प्रमुख गाने , शफाक़त अमानत अली ख़ान , अदनान समी और राहत फ़तेह अली ख़ान जैसे पाकिस्तानी गायकों से गवाए गये हैं जो आम तौर पर शंकर एहसान लॉय के लिए नही गाते.
    ४) सच्चाई तो यह है कि शुक्रवार को शिवरात्रि की छुट्टी के बावजूद इसका कलेक्शन बमुश्क़िल ४०-४५% सदी है , जो किसी भी ख़ान फिल्म के लिहाज़ से काफ़ी खराब प्रदर्शन है.

    असली मुद्दे को पीछे सरकाकर शाहरुख को आगे किया गया है… सचमुच सेकुलरिज़्म के कथित रखवाले या तो मंदबुद्धि हैं, या पाकिस्तान को फ़ायदा पहुँचाने वाले देशद्रोही अथवा झूठे प्रचार में माहिर…

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