बलिदानियों का एक गांव स्यूंटा

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देहरादून। इतिहास में बावन गढ़ों के नाम से प्रसिद्ध गढ़वाल के वीरों की गाथाएं प्रदेश और देश की सीमाओं में नहीं बंधी हैं। गढ़ योद्धाओं की वीरता की गूंज फ्रांस के न्यू चैपल समेत इटली से लेकर ईरान तकसुनी जा सकती है। क्रूर मौसम भले ही खेत में खड़ी फसलों को चौपट कर दे, लेकिन रणबाकुरों की फसल से यहां की धरती हमेशा ही लहलहाती रही है।

वैसे तो इस प्रदेश का शायद ही ऐसा कोई गांव होगा जिस गांव के किसी सैनिक ने देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान न किया हो,लेकिन उत्तराखंड के टिहरी जिले के चंबा ब्लाकके गांवों की भूमि इसकी तस्दीककरती है कि दुनिया के इतिहास को बदलने में इनकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही वह भूमि है जहां प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान न्यू चैपल के नायकरहे विक्टोरिया क्रास विजेता शहीद गबर सिंह ने जन्म लिया था। चंबा कस्बे से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर बसे स्यूंटा गांव को ही लें। यहां के रणबाकुरे लगभग एकसदी से लगातार विजय की नई इबारत लिख रहे हैं।

प्रथम विश्व युद्ध में गांव से 36 जांबाज शामिल हुए, जिसमें से चार शहीद हो गए थे। तब से लेकर आज तकइस गांव के अधिकांश युवकसेना में रहकर देश की सेवा में लगे हैं। वैसे तो गढ़वाल के कई क्षेत्रों से लोग प्रथम विश्व युद्ध से लेकर आजाद हिंद फौज और देश स्वतंत्र होने के बाद आज भी भारतीय सेना में शामिल होकर देश की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन स्यूंटा गांव इसलिए महत्वपूर्ण है कि एकही गांव से एकबार में इतनी बड़ी संख्या में लोग युद्ध में शामिल नहीं हुए।

प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ते हुए न्यू चैपल लैंड में गांव के जगतार सिंह, छोटा सिंह, बगतवार सिंह और काना सिंह शहीद हो गए। इस गांव के जाबाज सिपाहियों ने प्रथम ही नहीं द्वितीय विश्व युद्ध में भी जर्मन सेना को धूल चटाने में कोई कमी नहीं रखी। इस युद्ध में भी स्यूंटा के 10 जवान शामिल हुए, जिसमें से बैशाख सिंह और लाभ सिंह रणभूमि में काम आए।

यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, 1962 के भारत-चीन युद्ध में शामिल होने वाले यहां के जाबाजों की संख्या 40 तकपहुंच गई थी। इस लड़ाई में सते सिंह पुंडीर शहीद हुए। अस्सी के दशकमें तो 132 परिवार वाले गांव में हर परिवार से औसतन एकसदस्य सेना में था।

आज भी गांव में 45 लोग सेना के पेंशनर हैं और 25 लोग सेना और दूसरे सुरक्षा बलों में सिपाही से लेकर महानिरीक्षकतकहैं। गांव के प्रधान रहे सेवानिवृत्त 80 वर्षीय कैप्टन पीरत सिंह पुंडीर बताते हैं कि 1946 में जब वे सेना में शामिल हुए तो तब तकद्वितीय विश्व युद्घ समाप्त हो चुका था। उन्होंने 1962, 1965 और 1971 की लड़ाई लड़ी और इसमें भी गांव के कई लोग शामिल हुए। स्यूंटा गाव से लगे मंजूड़ गांव के भी 11 जाबाज प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुए।

विक्टोरिया क्रास विजेता गबर सिंह नेगी इसी गांव के थे। इसी तरह से स्यूंटा से कुछ ही दूर पर स्थित बमुंड पट्टी के जड़दार गांव के 16 रणबांकुरे प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुए थे। इसलिए स्यूटा गांव को लोग अपने इस गांव को आज भी फौजी गांव भी कहते हैं।

-राजेन्‍द्र जोशी

4 COMMENTS

  1. यह खबर बीते कुछ दिनों पूर्व एक क्षेत्रीय समाचार पत्र ने किसी ब्लाग से उठायी लगती है क्योंकि यह जानकारी मैं पहले भी कियी ब्लाग पर पढ1 चुकी हूं
    बहरहाल जिाने भी लिखी जानकारी देने ाली है

  2. यह् लॆख् पिछ्लॆ दिनॊ दैनिक् जागरन् कॆ पहलॆ पॆज् पर् छ्पा था आपनॆ उसकॊ पूरा चॊरी कर छाप लीया

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