वो इस कदर गुनगुनाने लगे है,
के सुर भी शरमाने लगे है…
हम इस कदर मशरूफ है जिंदगी की राहों में,
के काटों पर से राह बनाने लगे है…
इस कदर खुशियाँ मानाने लगे है,
के बर्बादियों में भी मुस्कुराने लगे है…
नज्म एसी गाने लगे है,
की मुरझाए फूल खिलखिलाने लगे है…
चाँद ऐसा रोशन है घटाओ में,
की तारे भी जगमगाने लगे है,
कारवा बनाने लगे है…
लोग अपने हुस्न को इस कदर आजमाने लगे है,
के आईनों पे भी इल्जाम आने लगे है…
“हिमांशु डबराल”
बहुत सुन्दर गीत है।बधाई।
डबराल जी, भाव बहुत सुन्दर पकडे है आपने, लेकिन कुछ कहना भी चाहूँगा, कोरी तारीफ़ करना मेरी आदत नहीं ! एक तो आप शब्दों के त्रुटिपूर्ण प्रयोग को सुधारे और दूसरे भावो को जहां ने लाते वक्त यह भी गौर करे कि क्या वे भाव यहाँ फिट बैठते है जैसे कि उदाहरण के लिए आपने लिखा
चाँद ऐसा रोशन है घटाओ में,
की तारे भी जगमगाने लगे है,
यहाँ पर तारो का जगमगाना मेरे हिसाब से फिट नहीं बैठता क्योंकि एक तो घटाओ के बीच चाँद है ( गूढ़ अर्थ भले ही कुछ और हो ) और यदि चाँद दमक रहा हो तो तारे कम जगमगाते है, अधिक रोशनी में !
उम्मीद है आप मेरी आलोचना को अन्यथा नहीं लेंगे !