आधार का दार्शनिक आधार

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राजू पाण्डेय

बायोमेट्रिक मापन का इतिहास अपराध शास्त्र की पुस्तकों में पढ़ा जा सकता है। सन 1896 में बंगाल पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल सर एडवर्ड हेनरी ने फिंगरप्रिंट क्लासिफिकेशन सिस्टम का विकास किया। 1903 में न्यूयॉर्क स्टेट प्रिजन ने फिंगरप्रिंट का उपयोग प्रारंभ किया। बायोमेट्रिक मापन के विषय में हुए शोधों को एफ़ बी आई न केवल वित्तीय सहायता देता रहा है बल्कि इन शोधों में वह सक्रिय रूप से हिस्सेदारी भी करता रहा है। 9/11 हमले के बाद बायोमेट्रिक मापन का महत्व अचानक बढ़ गया। अमेरिका ने इसे आतंकवादियों की पहचान के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया माना और विश्व के अन्य देशों पर भी यह दबाव बनाया जाने लगा कि वे अपने नागरिकों का बायोमेट्रिक डेटा तैयार करें और आवश्यकतानुसार उसे आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय संघर्ष में सहयोग देते हुए अमेरिका के साथ साझा भी करें। जैसे जैसे बायोमेट्रिक मापन का विकास हुआ और कम समय में सुरक्षित तरीके से विशाल जनसंख्या का बॉयोमेट्रिक डेटा दर्ज करना और उसे संरक्षित करना संभव हुआ वैसे वैसे इसके अन्य उपयोगों पर भी ध्यान दिया जाने लगा। यूनिसेफ द्वारा इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण कराया गया कि विकासशील देशों में नागरिकों को उनकी पहचान प्रदान करने वाले दस्तावेज बहुत अपूर्ण और अपर्याप्त होते हैं और इन देशों में निवास करने वाले निर्धन लोगों के पास तो ये दस्तावेज भी नहीं होते। विश्व बैंक के वर्किंग पेपर(2015) में कुछ विद्वानों ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि बिना सत्यापित व्यक्तिगत पहचान के नागरिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता की प्राप्ति असम्भव है। बॉयोमेट्रिक मापन पर उल्लेखनीय कार्य करने वाले विशेषज्ञों मार्डीनी और रेबेरा आदि के अनुसार कोई व्यक्ति अपने बॉयोमेट्रिक पहचान न देने के अधिकार का प्रयोग भी तभी कर सकता है जब उसकी अपनी सार्वजनिक पहचान हो। इनका मानना है कि बॉयोमेट्रिक पहचान किसी व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों की प्राप्ति और उसकी गरिमा की स्थापना में सहायक है। विकासशील देशों को ऋण प्रदान करने वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की यह चिंता भी निरंतर बढ़ती रही है कि उनके द्वारा दिया गया ऋण सही ढंग से उपयोग में नहीं लाया जाता और इसका एक बड़ा भाग भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। इन संस्थाओं ने भ्रष्टाचार के नियंत्रण के लिए तकनीकी को एक महत्वपूर्ण जरिया माना। ये संस्थाएं भ्रष्टाचार नियंत्रण की जिस बहुस्तरीय तकनीकी प्रणाली को विकसित करने और अपनाने की वकालत करती रही हैं उनमें बॉयोमेट्रिक मापन भी सम्मिलित है जिसके माध्यम से लक्षित समूह तक नगद या अन्य भौतिक लाभों का पहुंचना सुनिश्चित किया जा सकता है।

भारत में 2009 से चल रहे आधार कार्यक्रम का दर्शन भी कुछ इसी प्रकार का है और इसे आम आदमी के अधिकार के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। इसे भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए प्रयुक्त किए जाने की शुरुआत भी हो चुकी है।
बायोमेट्रिक मापन से जुड़े विश्व के सभी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि बायोमेट्रिक मापन द्वारा अर्जित की गई सूचनाओं की सुरक्षा एक बड़ी चुनौती है और इसके दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहेगी। ये कहते हैं कि नागरिकों के विषय में महत्वपूर्ण सूचनाओं का एक स्थान पर व्यापक एकत्रीकरण हैकर्स को उसी प्रकार ललचाता है जिस प्रकार चोरों को कोई खजाना आकर्षित करता है। जब बायोमेट्रिक सूचना का उपयोग एक से अधिक डाटाबेस करते हों तब इसके लीक होने की संभावना बढ़ जाती है। दक्षिण अफ्रीका में बायोमेट्रिक आइडेंटिटी का उपयोग विभिन्न प्रकार की आर्थिक सहायता को वितरित करने के लिए किया जाता है। इस संबंध में जिस प्राइवेट एजेंसी की सेवा ली गई थी उसने इस बायोमेट्रिक डेटा का उपयोग गलत ढंग से किया और लाभार्थियों के पास विभिन्न प्रकार के विज्ञापन आने लगे। गूगल, फेसबुक और व्हाट्सएप पर भी अपने उपयोग कर्ताओं के विभिन्न प्रकार के डेटा के दुरुपयोग और इसे अनाधिकृत रूप से शेयर करने के आरोप लगते रहे हैं। और इन कंपनियों को उपयोगकर्ताओं द्वारा जिस प्रयोजन से डेटा एकत्रित करने हेतु सहमति दी गई है उस प्रयोजन के अतिरिक्त अन्य प्रयोजन हेतु इस डेटा का गलत उपयोग करने के लिए चेतावनी भी मिलती रही है। यदि अन्य प्रकार का डेटा लीक होता है तो उसकी भरपाई की जा सकती है। नए पासवर्ड बनाए जा सकते हैं और नए क्रेडिट कार्ड हासिल किए जा सकते हैं किंतु जब बायोमेट्रिक डेटा लीक हो जाता है तो इसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है क्योंकि फिंगरप्रिंट्स और अन्य बायोमेट्रिक संकेत पासवर्ड की तरह बदले नहीं जा सकते। बायोमेट्रिक डेटा को सुरक्षित और संरक्षित रखने के संबंध में किए जाने वाले दावे ऐसे सॉफ्टवेयर डेवलप करने वाली कंपनियों के अतिशयोक्तिपूर्ण विज्ञापनों पर आधारित होते हैं।

वास्तव में बॉयोमेट्रिक डेटा को सुरक्षित रखने वाले किसी सिस्टम की सीमा का पता तभी लगता है जब यह लंबे समय तक उपयोग में लाया जाता है। जब तक इन सीमाओं और कमजोरियों का ज्ञान होता है तब तक देर हो चुकी होती है। हमारे देश में निजी ऑपरेटर्स द्वारा संचालित आधार केंद्रों द्वारा आधार हेतु आवश्यक बायोमेट्रिक मापन और सहायक डेमोग्राफिक डेटा का संकलन किया जाता है। हाल ही में महेंद्र सिंह धोनी के आधार फॉर्म को सार्वजनिक करने वाले आधार केंद्र को 10 वर्षों हेतु बैन किया गया। अतः गड़बड़ी इस संवेदनशील डेटा के एकत्रीकरण के दौरान भी हो सकती है। यदि निजी कंपनियां डेटा का दुरुपयोग करें तो उन पर मुकद्दमे किए जा सकते हैं, उनकी सेवाओं का उपयोग बंद किया जा सकता है किंतु यदि सरकार ही ऐसा करने लगे तो नागरिक की असहायता की कल्पना ही की जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच द्वारा निजता को मौलिक अधिकार मानने विषयक याचिका की सुनवाई के दौरान भारत सरकार ने भी अपना पक्ष रखा। सरकार यह मानती है कि आज के बिग डेटा के युग में निजता और गोपनीयता जैसे शब्द अर्थहीन हो गए हैं। यदि हमें तकनीकी क्रांति का लाभ उठाना है तो हमें निजता और गोपनीयता जैसे पुरातनपंथी मूल्यों को त्यागना होगा। यदि हम अपनी जानकारी गोपनीय रखना चाहते हैं तब इसका अर्थ है कि हम या तो भ्रष्ट हैं या अभिजात्यता के अहंकार से पीड़ित हैं। हमारा यह अहंकार उन करोड़ों गरीबों को विकास योजनाओं के लाभों से वंचित कर सकता है जिनके पास अपनी पहचान नहीं है। लेकिन झारखंड के सिमडेगा में आधार सीडिंग के अभाव में एक परिवार को राशन से वंचित किए जाने के बाद एक बच्ची की मौत का मामला बिल्कुल विपरीत संकेत देता है। यहाँ आधार की भूमिका गरीब को उसका हक दिलाने वाले उपकरण के बजाए उसका हक छीनने वाले उपकरण की भाँति रही है। झारखंड सरकार ने विज्ञापन प्रकाशित कर बोगस राशन कार्डों के निरस्तीकरण को अपनी उपलब्धि बताया। यदि आधार नंबर प्रदान करने में प्रशासन विफल रहा है तो इसका दंड राशन कार्ड निरस्त कर लाभार्थी को दिया जाना अनुचित है। वैसे भी अशिक्षित असहाय गरीबों के नाम पर होने वाले राशन घोटालों में उनके नाम का दुरुपयोग ही होता है और वास्तव में असली भ्रष्टाचारी कोई और होते हैं। किन्तु पीड़ित को दोषी मानने की प्रवृत्ति सत्ता का चरित्र बनती जा रही है।

सरकार द्वारा आधार कार्यक्रम को लागू करने में दिखाई जा रही हड़बड़ी चिंता उत्पन्न करने वाली है। जिस तरह से आधार को शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, करों के भुगतान, यात्रा, अल्पबचतों, आवास(निजी, किराये का, अल्पस्थाई), छोटी छोटी खरीदों के लिए भुगतान आदि हेतु घोषित अघोषित रूप से अनिवार्य बनाया जा रहा है उससे न चाहते हुए भी संदेह उत्पन्न हो रहे हैं। इनमें से एक संदेह तो यह है कि व्यक्ति की छोटी से छोटी गतिविधि पर कहीं निगरानी तो नहीं रखी जा रही है। मुट्ठी भर भ्रष्ट लोगों और गिने चुने आतंकवादियों पर लगाम कसने के नाम पर कहीं देश के करोड़ों आम नागरिकों को जेरेमी बेंथम द्वारा कल्पित पनोपटिकॉन (Panopticon) में रहने के लिए बाध्य तो नहीं किया जा रहा है। हालाँकि एक लोकतांत्रिक देश की लोकप्रिय निर्वाचित सरकार के विषय में ऐसी कल्पना करना भी अपराध है किंतु जिस तरह सरकार व्यक्तियों के विषय में छोटी से छोटी जानकारी एकत्र कर रही है यह चिंता भी अवश्य होती है क्या कभी इन सूचनाओं का उपयोग सरकार विरोधियों का दमन करने के लिए हो सकता है भले ही उनका विरोध रचनात्मक और न्यायोचित हो। आम आदमी कर प्रणाली के दायरे से बाहर जाकर धन अर्जन और धन व्यय तभी करता है जब उसे यह अनुभव होता है कि सरकार के कानूनों का स्वरूप और उससे भी अधिक इन कानूनों का क्रियान्वयन गरीब और अमीर के लिए एक जैसा नहीं है। किसानों के छोटे छोटे कर्ज माफ नहीं होते और बड़े कॉर्पोरेट घरानों का अरबों का कर्ज चुटकियों में माफ कर दिया जाता है। आम आदमी छोटी छोटी खरीद बिक्री का हिसाब देते देते थक जाता है किंतु राजनीतिक दलों से चंदे का हिसाब माँगने का साहस कोई नहीं करता। भ्रष्ट राजनेताओं और अफसरों पर अंकुश नहीं लग पाता है, इनमें से जो कुछ लोग पकड़े भी जाते हैं उनके उदाहरण यह दर्शाने वाले अधिक हैं कि इस व्यवस्था में कुछ भी करके चैन से रहा जा सकता है। वर्तमान सरकार ही नहीं देश की स्वतंत्रता के बाद आने वाली हर सरकार कमोबेश ऐसी ही रही है। ऐसी दशा में एक आम आदमी कर प्रणाली के दायरे से छिपा कर जो संपत्ति रखता है वह किसी दुर्व्यसनी और क्रूर पिता की अभागी संतान द्वारा अपना पेट काट कर पिता की नजरों से बचते बचाते गुल्लक में छिपाए गए पैसों की भाँति है- क्या इसे कालाधन कह सकते हैं? क्या आधार की अनिवार्यता इसी कालेधन को समाप्त करने हेतु सुनिश्चित की जा रही है? यद्यपि सरकार बारंबार कहती रही है कि आधार आम आदमी के लाभ के लिए है और आम लोगों को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है किंतु सरकार का यह कथन आचरण में लाए जाने पर अधिक आकर्षक और विश्वसनीय प्रतीत होगा।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और विश्व के शक्तिशाली देशों की शाबासी के बीच आधार को अनिवार्य करने की सरकार की जल्दीबाजी ऐसा भी संकेत देती है कि आधार कार्यक्रम एक उपकरण मात्र नहीं है बल्कि यह एक विचारधारा है। फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फूको को स्मरण करना यहाँ अनिवार्य लगने लगता है। फूको ने बायोपावर की अवधारणा दी थी। उन्होंने इसे परिभाषित करते हुए कहा कि बायोपावर को ऐसी असंख्य और विविध तकनीकों का विस्फोट कहा जा सकता है जो शरीरों पर आधिपत्य और जनसंख्या पर नियंत्रण स्थापित करने हेतु प्रयुक्त होती हैं। फूको के अनुसार बायोपावर, पावर की उस पारंपरिक अवधारणा से भिन्न है जो संप्रभु शासक द्वारा मृत्यु दंड का भय दिखा कर अनुशासित किए जाने पर आधारित है। हमारे युग में सत्ता अपना नियंत्रण तभी स्थापित कर सकती है जब वह स्वयं को तर्कों के आधार पर सही और न्यायोचित सिद्ध करे। सत्ता का वर्चस्व अब दंडात्मक और प्रतिशोधात्मक उपायों के द्वारा नहीं बल्कि सुधारात्मक अनुशासन की रणनीति के द्वारा स्थापित होता है। फूको के अनुसार एकल इकाई पर नियंत्रण स्थापित करने की तकनीक है एनाटोमो पॉलिटिक्स जबकि जनसंख्या को नियंत्रित करने की तकनीक बायोपॉलिटिक्स है। फूको कहते हैं – बायोपावर से मेरा आशय मुझे महत्वपूर्ण लगने वाली ऐसी परिघटनाओं और तंत्रों से है जो मानव जाति की आधारभूत जैविक विशेषताओं को राजनीतिक रणनीति और सत्ता का एक भाग बना लेती हैं।
आधार कार्यक्रम जैसी परियोजनाएं अंततः सत्ता का वर्चस्व स्थापित करती हैं। यदि सत्ता का स्वरूप अब भी असंदिग्ध रूप से जनकल्याणकारी है तो तमाम तकनीकी खतरों के बावजूद आधार कार्यक्रम आम आदमी का आधार बन सकता है लेकिन यदि ऐसा नहीं है और देश का शासन वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के उदार लगने वाले किन्तु अंततः लाभ- हानि के गणित पर आधारित हितों का संरक्षक बन गया है तो फिर आम आदमी के लिए चिंता का समय प्रारंभ हो गया है।
डॉ राजू पाण्डेय

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