आदि पत्रकार देवर्षि नारद

12 मई पर विशेष:-

मृत्युंजय दीक्षित
सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रहमा के मापस पुत्र पारद। महान तपस्वी तेजस्वी सम्पूर्ण वेदान्त शास़्त्र के ज्ञाता तथा समस्त विद्वाओं में पारंगत नारद। ब्रहमतेज से संपन्न हैं। नारद जी क महान कृतित्व व व्यक्तित्व पर जितनी भी उपमाएं लिखी जायें बेहद कम हैं। देवर्षि नारद ने अपने धर्मबल से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए उपस्थित रहते थे। वे देवता ,दानव और मानव समाज के हित के लिये सर्वत्र विचरण, चिंतन व विचार मग्न रहते थे।देवर्षि नारद की वीणा से निरंतर नारायण की ध्वनि किलत रहती थी। भगवदभक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही नारद का अवतार हुआ। नारद चिरंजीवी हैं। नारद जी का संसार मंे अमिट प्रभाव है।
नारद जी का जीवन जनकल्याण व मंगलमय जीवन के लिये ही है। नारद जी पर ईश्वर की विशेष कृपा है।वे शत्रु तथा मित्र दोनों में ही लोकप्रिय थे। देवर्षि नारद त्रिकालदर्शी व पृथ्वी सहित सभी ग्रह नक्षत्रांे मेें घट रही घटनाओें, चिंताओे व दःुखों के ज्ञाता तो थे ही उनके मन में हर प्रकार की कठिन से कठिन समस्याओं के समाधान भी चलायमान रहते थे। देवर्षि नारद व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव जी के गुरू रहे। नारद ने ही प्रहलाद ,ध्रुव, राजा अम्बरीश आदि को भक्तिमार्ग पर प्रवृत्त किया। नारद ब्रहमा, शंकर, सनतकुमारª महर्षि कपिल, मनु आदि बारह आचार्यो में अन्यतम हैं। प्रचलित कथा के अनुसार देवर्षि नारद अज्ञातकुल शील होने पर भी देवर्षि पद तक पहुंच गये थे।बालक होते हुए भी उनके मन में चंचलता नहीं थी। वे बड़े ही शांत स्वाभाव से मुनिजनों की आज्ञा का पालन किया करते थे। नारद की सेवा से प्रभावित होकर मुनिगण उन पर अपनी कृपा रखने लगे। उनकी अनुमति प्राप्त करके वे बरतनों में लगी हुई जूठन दिन में एक बार खा लिया करते थे। इससे उनके जन्म के सारे पाप धुल गये। संतों की सेवा करते – करते उनका हृदय शुद्ध रहने लगा। भजन – पूजन मेें ंउनकी रूचि बढ़ती गयी। उनके हृदय में भक्ति का प्रादुर्भव हो गया। वे अपनी माता के साळा ब्राहमण नगरी मेें रहते थे। माता के कारण वे भी कहीं अन्यत्र नहीं जा सके। कुछ दिनों बाद एक दिन उनकी माता को सर्प ने काट लिया जिससे उनकी मृत्यु हो गयीं नारद जी ने उसे विधि का विधान माना और गृह का त्याग करके उत्तर दिशा की ओर चल दिये। इसके बाद उन्होनें अपनी सतत साधना और तपस्या के बल पर देवर्षि का पद प्राप्त किया। किसी – किसी पुराण में देवर्षि नारद कोे उनके पूर्वजन्म में सारस्वत नामक एक ब्राहमण बताया गया है। जिन्होनें आंे नमो नारायणाय इस नारायण मंत्र के जाप से भगवान नारायण का साक्षात्कार किया। कालान्तर में पुनः ब्रहमाजी के दस मानसपुत्रों के रूप में जन्म लिया। नारद शुद्धात्मा , शांत, मृदु तथा सरल स्वभाव के है। मुक्ति की इच्छा रखने वाले सभी लोगों के लिए नारद जी स्वयं ही प्रयत्नशील रहते हैं। नारद जी को ईष्वर के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे। उन्हें ईश्वर का मन कहा गया है। वे परम हितैषी हैं उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं हैं। वे प्रभु की प्रेरणा से निरंतर कार्य करते रहते हैं। नारद जी ने दक्ष प्रजापति के हयाश्व- शबलाक्ष नामक सहस्र पुत्रंों को अध्यात्म तत्व का पाठ पढ़ाया। देवर्षि नारद ने सभी के लिये भगवदभक्ति का द्वार खोल रखा था। उनका सदा वही ंलक्ष्य रहा कि इस संसार में मानव माया, मोह के बंधन में पढ़कर अति कष्ट पा रहा है। वे जीवमात्र के कल्याण के लिये भगवान नाम कीर्तन की प्रेरणा देते रहते हैं। देवर्षि नारद का वर्ण गौर सिर पर सुंदर शिखा सुशोभित है। उनके शरीर में एक विशेष प्रकार की उज्जवल ज्योति निकलती रहती थी। वे देवराज इंद्र द्वारा प्राप्त श्वेत, महीन तथा दो दिव्य वस्त्रों को धारण किये रहते हैं। वे आनुषांगिक धर्मो के ज्ञाता हैं।नारद लोप, आगम, धर्म तथा वृत्ति संक्रमण के द्वारा प्रयोग में आये हुये एक- एक शब्द की अनेक अर्थो में विवेचना करने में सक्षम थे। कृष्ण युग में गोपियों का वर्चस्व स्थापित किया। प्रथम पृज्य देव गणेश जी को नारद जी का ही मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ था।
देवर्षि नारद भारतीय जीवन में दर्शन में अत्यंत श्रेष्ठ हैं। देवर्षि नारद स्वभावतः धर्म निपुण तथा नाना धर्मो के विशेषज्ञ हैं। वे चारेां वेदों के विद्वान हैं। उन्होनें विभिन्न वैदिक धर्मो की मर्यादाएं स्थापित की हैं। वे अर्थ की व्याख्या के समय सदा संशयों का उच्छेद करते हैं।नारद जी के द्वारा रचित अनेक ग्रंथेंा का उल्लेख मिलता है – जिसमें प्रमुख हैं नारद पंचरात्र,नारद महापुराण,वृहदरदीय उपपुराण, नारद स्मृति, नारद भक्ति सूत्र , नारद परिवाज्रकोपनिषद आदि। इसके अतिरिक्त नगरीय शिक्षा शास्त्र के साथ ही अनेक स्तोत्र भी नारद जी के द्वारा रचित बताये जाते है। नारद जी के सभी उपदेशों का निष्कर्ष हैं कि सर्वदा सर्वभव से निश्चिंत होरक केवल भगवान का ही भजन करना चाहिये। नारद जिज्ञासु , परोपकारी देवदूत थे।
वे रामायण युग में भी थे तो महाभारत काल में पांडवों के सबसे बड़े हित साधक भी थे। जनमानस के कल्याणार्था ही सत्यनारायण भगवान की कथा ,व्रत महात्मय आदि की श्रेष्ठता व आवश्सकता नारद मुनि ने समाज में स्थापित की। जिज्ञासा प्रकट करने के बाद ही भगवान श्रीहरि ने नारद जी को भगवान समस्त पूजा एवं हवन का विस्तार से वर्णन किया और अंत में आश्वस्त करते हुए उनसे कहाकि श्रद्धापुूर्वक किया गया भगवान सत्यनारायण कावत सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है। महाभारत युग में भी पाण्डवों का हित साधन नारद जी ने ही किया था। महारानी द्रौपदी को पांच पांडवों के साथ रहने का नियम भी नारद जी ने ही बनवाया था। यह नियम भाी नियमों से बंधा था। ताकि पतिव्रता द्रौपदी के कारण पांचों पांडवों के कारण सामंजस्य का वातवरण बना रहे। नारद जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को लेकर भांति – भांति की कथायें प्रचलित हंैे। सभी पुराणों में महर्यिा नारद एक मुख्य व अनिवार्य भूमिका में उपस्थित हैं। परमात्मा के विषय में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने वाले दार्शनिक को नारद कहा गया है। पुराणों में नारद को भागवत संवाददाता भी कहा गया है। नारद सदैव ही सामूहिक कल्याण की भावना को सर्वोपरि रखते थे। नारद में अपार संचार योग्यता व क्षमता थी। आदि पत्रकार नारद जी की पत्रकारिता सज्जन रक्षक व एवं दुष्ट विनाशक की थी। वे सकारात्मक पत्रकार की भूमिका मंे रहा करते थे। पत्रकार के रूप में काशी, प्रयाग,मथुरा ,गया , बद्रिकाज्ञम केदारनाथ रामेश्वरम सहित सभी तीर्थो की सीमा तथा महत्व का वर्णन नारद पुराण मंे मिलता हैं। सभी त्यौहारों तथा पर्वों का भी वर्णन उन्होनें किया है। उन्होनें नारद पुराण में सभी पुराणों की समीक्षा प्रस्तुत की है। आदि पत्रकार नारद जी ने सृष्टि के प्रारम्भ से ही पत्रकारिता के समक्ष जो आदर्श एवं स्वरूप प्रस्तुत किया है उसका स्वतंत्र अध्ययन आवश्यक है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here