आग मांगता फिर रहा-लोकतंत्र

dayashankar singhउत्तर प्रदेश भाजपा के एक उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की ओर से उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री रहीं कुमारी मायावती को लेकर की गयी एक अभद्र टिप्पणी के पश्चात देश की राजनीति गरमा गयी है। 20 जुलाई को इस अभद्र टिप्पणी को लेकर देश की संसद में भी ‘गरमी’ बनी रही। राज्यसभा में बसपा सुप्रीमो ने सत्तारूढ़ दल को घेरने का हरसंभव प्रयास किया।

दो बातें हैं-एक तो यह कि एक व्यक्ति किसी महिला पर अभद्र टिप्पणी करता है, दूसरी यह कि वह महिला इस टिप्पणी को अपमानजनक मानते हुए इसे राजनीतिक रूप से ‘कैश’ करना चाहती हैं। ये दोनों बातें एक समस्या हैं। इस समस्या का समाधान यह है कि पहले वाला क्षमा याचना करे और दूसरा पक्ष देश की संसद को इस बात के लिए प्रेरित और बाध्य करे कि देश में शूद्र या दलित की या ऊंच नीच की या सामाजिक भेदभाव की बातें होना ही बंद हो जाएं। ऐसा परिवेश ही विशुद्घ लोकतांत्रिक परिवेश कहे जाने योग्य होता है।

अभद्र टिप्पणी की जाए और उसे इसलिए वापस लिया जाए कि मायावती की ‘नौटंकी’ से भाजपा का दलित वोट बिगड़ेगा तो यह भी अलोकतांत्रिक है और कु. मायावती केवल इसलिए शोर मचायें कि ऐसा शोर मचाने से दलित वोट उनके साथ और भी जुड़ेगा-तो यह भी अलोकतांत्रिक है। इसी को छद्मवाद कहा जाता है-जिसमें स्वार्थों को जनहित के कंधों पर साधने की चेष्टा की जाती है। राजनीति के व्याधों के लिए यह सच है कि इन्होंने पिछले लगभग 70 वर्ष में ऐसे ही छद्मवाद से देश को ठगा है।

इस छद्मवादी परिवेश में देश के समाज में तीन प्रकार की मनोवृत्ति के लोग बनते गये हैं-एक राष्ट्रवादी, दूसरे-राष्ट्रघाती और तीसरे अराष्ट्रीय राष्ट्रवादी। जो लोग इस देश के राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों की रक्षा करते हुए इसे अपना सर्वस्व समर्पित करने को उद्यत हैं, वे राष्ट्रवादी हैं, जो इसके राष्ट्रवादी परिवेश को मिटाकर इस पर बलात् अपने विचार थोपकर इसके सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक स्वरूप को पूर्णत: विकृत करने के प्रयासों में लगे रहते हैं और आतंकवाद को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन प्रदान करते हैं, वे राष्ट्रघाती है और जो ‘आज तो शांत रहो-पर उस समय की घात लगाकर प्रतीक्षा करो जब अपनी संख्या बढ़ जाएगी और उस संख्याबल से वर्तमान की सारी व्यवस्था को पलट दिया जाएगा

‘ ऐसा मानकर कार्य कर रहे हैं-वे निश्चय ही अराष्ट्रीय राष्ट्रवादी हैं।
हमारा लोकतंत्र बौद्घिक रूप से नपुंसक लोगों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है। इन बौद्घिक नपुंसकों को देश के सारे छद्मवादी परिवेश की और समाज में व्याप्त तीनों प्रकार के लोगों की उपरोक्त मनोवृत्ति का भली प्रकार ज्ञान है-पर ये उस पर संज्ञान नही ले सकते। इसीलिए इनको ‘बौद्घिक नपुंसक’ ही कहा जाना चाहिए। सारे राजनीतिक दल जानते हैं कि वर्तमान में समाज में लोगों की क्या मानसिकता बन रही है और समाज का किन बिंदुओं को लेकर तेजी से धु्रवीकरण हो रहा है

, परंतु कोई भी इस धु्रवीकरण की प्रक्रिया को रोकने का साहस करता जान नही पड़ रहा है।
मुस्लिम हितों की राजनीति करने वाले लोग मुस्लिम समाज और हिंदू समाज में से दलित समाज या यादव समाज या किसी अन्य जातीय समाज को तोडक़र उन्हें अपने साथ लेकर राजनीति कर रहे हैं। हिंदू हितों की राजनीति करने वाले पांच वर्ष तो चिल्लाते हैं, कि विशुद्घ हिंदूवादी राजनीति की जाएगी पर जब चुनावी मंच सजते हैं तो मुस्लिम वोटों को ललचाने के लिए ‘एक कदम आगे तो दो कदम पीछे’ हटने की कदमताल भरी राजनीति करने लगते हैं। मुस्लिम हित की राजनीति को करने वाले लोग यही नही समझा पाते कि वह आतंकवाद को कैसे समाप्त कर देंगे और देश में कैसे शांति का परिवेश स्थापित कर देंगे? तब हिंदूहित की राजनीति करने वाले यह नही समझा पाते कि सामाजिक समरसता की वैदिक परंपरा को वे कैसे यथार्थ में लागू कर सबको साथ लेकर चलेंगे? चुनावी मंचों से या चर्चाओं से उनके शब्दों को सुनना वेद, मनु, विदुर, गीता और उपनिषद या रामायण, महाभारत आदि में से एक भी शब्द उनके मुंह से निकलता हुआ नही दिखाई देगा। वे जानते हैं कि वास्तविक मानवतावाद इन्हीं ग्रंथों या महामानवों की नीतियों में छिपा पड़ा है, पर वे उस मानवतावाद को भी उस समय बोलना साम्प्रदायिकता मानने लगते हैं। इसे आप क्या कहेंगे-पलायनवाद या वैचारिक धरातल पर अपने भीतर छिपी हुई कायरता या घोर स्वार्थपन जो उस समय किन्हीं वोटों पर केन्द्रित होता है?

जिन लोगों ने धर्म को विभिन्नताओं में विभक्त कर दिया और जो यह नही जान पाये कि धर्म तो एक ही होता है-अर्थात मानवता, उन्होंने विभिन्न धर्म स्थापित करके मानवता को भी हिंदूवादी मानवता, मुस्लिम मानवता या ईसाई मानवता में परिवर्तित कर दिया है। इन लोगों ने व्यक्ति को संकीर्ण बनाया है। ऐसे ही लोगों ने मानव समाज को भी मुस्लिम समाज, दलित समाज या पिछड़ा समाज, ईसाई समाज आदि समाजों में विभक्त कर दिया है। इन लोगों को जैसे धर्म की परिभाषा का ज्ञान या बोध नही वैसे ही इन्हें ‘समाज’ शब्द की परिभाषा का भी बोध नही है। इसलिए ये समाज को भी संकीर्ण अर्थों में परिभाषित करते हैं। कितना दुखद तथ्य है कि जिन लोगों को धर्म की परिभाषा का बोध नही वे लोग धर्म की राजनीति करते हैं या धर्म के ठेकेदार बनते हैं और जिन्हें समाज की परिभाषा का बोध नही वे सामाजिक समरसता की स्थापना की बात करते हैं। हमारे लोकतंत्र की मर्यादाएं इसीलिए छिन्न-भिन्न हुई हैं कि हमने अपनी लगाम उन अपात्र लोगों को थमा दी जिनके पास लोगों को ‘बौद्घिक नेतृत्व’ देने की क्षमता नही थी।

यह एक सुविख्यात भारतीय सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक मूल्य है कि लोगों को सही दिशा देने के लिए नायक बौद्घिक संपदा संपन्न आवश्यक रूप से हो। बौद्घिक संपदा संपन्न नायक ही यह भली भांति जान सकता है कि हमारे शरीर में बाजुओं (जोकि शस्त्र का अर्थात क्षत्रिय की शूरता की प्रतीक है) के ऊपर सिर (जो कि शास्त्र का अर्थात ब्राह्मण के निर्मल ज्ञान का प्रतीक है) के ऊपर होने का रहस्य समझ लेगा-वह यह भी जान जाएगा कि शस्त्र और शास्त्र के समन्वय के लिए उसका बौद्घिक संपदा संपन्न होना क्यों आवश्यक है? यदि मन (बाजू) मस्तिष्क (सिर) का संतुलन बिगड़ गया और दिलोदिमाग (ब्राह्मण-क्षत्रिय) ने अलग-अलग कार्य करना आरंभ कर दिया तो अनर्थ हो जाएगा।

इस समन्वय का अंतिम उद्देश्य है शूद्र का कल्याण। मनुष्य जब नहाता है तो सर्वप्रथम वह अपने पैरों पर पानी डालता है, अर्थात ब्राह्मण अपनी पवित्रता से पूर्व शूद्र की पवित्रता का ध्यान रखता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि सारी वर्ण व्यवस्था को ये शूद्र ही लिये चलता है, इसलिए कृतज्ञतावश ब्राह्मण पहले पैरों की पवित्रता करता है। हर व्यक्ति अपने से बड़े के चरणों (शूद्र) का ही स्पर्श करता है। मानो कहता है कि तेरा कल्याण करना और तेरा आशीष प्राप्त करना ही मेरा जीवनोद्देश्य है।

कुमारी मायावती भारतीय संस्कृति के इस रहस्य को शायद ही जानती हों, और ऐसा नही है कि वे ही नही जानतीं, वे लोग भी नही जानते जो भारत में सामाजिक समरसता की स्थापना की गला फाड़ फाडक़र मांग करते हैं। उन्हें नही पता कि यह सामाजिक समरसता दिलों से आएगी ना कि किसी कानून से। अभी हम ऐसे दिशाविहीन लोकतंत्र में जी रहे हैं, जिसके घर में आग है पर जो अपनी रसोई जलाने के लिए तेरे-मेरे घरों में आग मांगता फिर रहा है।

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