आलू और पनीर (सेल्वम्)

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दुनिया की हर भाषा में लोकजीवन में प्रचलित प्रतीकों और मुहावरों का बड़ा महत्व है। फल-सब्जी, पशु-पक्षी और व्यवहार या परम्पराओं से जुड़ी बातें साहित्य की हर विधा को समृद्ध करती दिखती हैं।

अब आप आलू को ही लें। यह हर सब्जी में फिट हो जाता है। इससे नमकीन और मीठे, दोनों तरह के व्यंजन बनते हैं। परांठा, पकौड़ी और चाट का मजा इसके बिना अधूरा है। इसलिए आलू के नाम पर कई उदाहरण प्रचलित हुए। जैसे, ‘‘जब तक समोसे में आलू रहेगा, तब तक बिहार में लालू रहेगा।’’ लेकिन बीच में कई साल ऐसे भी आये, जब समोसे में तो आलू रहा; पर बिहार से लालू गायब हो गये। यद्यपि अब वे फिर वहां की सत्ता में लौट आये हैं। निःसंदेह यह आलू की ही महिमा है।

आलू के बारे में डॉक्टरों की अलग-अलग राय है। अधिकांश इसे मधुमेह बढ़ाने वाला कहते हैं; पर कई लोग इसे गरीबों के लिए सबसे अच्छा, सस्ता और पौष्टिक भोजन बताते हैं। बच्चों की सब्जी में आलू न हो, तो वे नाक सिकोड़ने लगते हैं। क्या करें, आलू चीज ही ऐसी है। केवल खानपान में ही नहीं, आलू कई जुगाड़ों में भी काम आता है। अगरबत्ती के लिए कोई स्टैंड न मिले, तो इसमें ही खोंस दें। वर्षा के दिनों में ट्रक और बस चालक इसे काटकर सामने वाले शीशे पर घिस देते हैं। उससे पानी वहां नहीं रुकता। खानपान संबंधी कहावतों में कभी-कभी ‘थाली के बैंगन’ की भी चर्चा होती है, जो जिधर ढाल हो, उधर ही लुढ़क जाता है। ‘घी-शक्कर होने’ से लेकर ‘बासी कढ़ी में उबाल’ जैसे सैकड़ों मुहावरे आपने सुने होंगे; लेकिन आलू की बात ही कुछ और है।

आलू जैसा ही जलवा दूध से बने पनीर का भी है। कहते हैं कि देसी गाय के दूध से बना पनीर अधिक नरम और स्वादिष्ट होता है। पनीर जहां एक ओर सब्जी में डाला जाता है, वहां इसके परिष्कृत रूप छेने से मिठाइयां बनती हैं। पिछले दिनों बंगाल और उड़ीसा वालों में इस बात पर बहुत विवाद हुआ कि छेने का रसगुल्ला मूलतः कहां की मिठाई है ? उड़ीसा वालों ने इसे सैकड़ों साल पुरानी परम्परा बताकर भगवान जगन्नाथ के भोग से जोड़ दिया। इससे उनका पलड़ा कुछ भारी हो गया। लेकिन कोलकाता के ‘के.सी.दास रसगुल्ले वाले’ इसे अपने पूर्वजों की खोज बताते हैं। यद्यपि इस विवाद का परिणाम क्या हुआ, यह पता नहीं लगा। क्योंकि जब-जब लोग इस पर विचार करने बैठे, तो शुरू में ही रसगुल्ले परोस दिये गये। बस, लोगों ने मुंह मीठा किया और गले मिलकर उठ गये। सचमुच रसगुल्ले और उसकी अम्मा पनीर की महिमा ही कुछ ऐसी है।

लेकिन इन दिनों भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में दो अम्मा और उनके बीच फंसे एक पनीर की बड़ी चर्चा है। इस पनीर का पूरा नाम ओ. पनीरसेल्वम् है। बड़ी अम्मा तो भगवान को प्यारी हो चुकी हैं। जब-जब उन पर संकट आया, उन्होंने इस पनीर को मुख्यमंत्री बनाया और खुद जेल चली गयीं। फिर जेल या अपने घर से ही वे राजकाज चलाती रहीं। इस पनीर की ये विशेषता रही कि उन्होंने सदा खुद को ‘खड़ाऊं मुख्यमंत्री’ ही माना। इसलिए जैसे ही बड़ी अम्मा का संकट टला, उन्होंने सत्ता छोड़ने में एक मिनट भी नहीं लगाया। ऐसा एक नहीं, दो बार हुआ। अतः बड़ी अम्मा के दिवंगत होने की घोषणा से पहले ही वे फिर मुख्यमंत्री बना दिये गये।

इस पनीर ने सोचा था कि बड़ी अम्मा के जाने के बाद शायद अब उन्हें ‘शाही पनीर’ बनने का मौका मिलेगा; पर उन्हें क्या पता था कि वहां एक चेनम्मा पहले से ही मौजूद हैं, जिन्हें पनीर की सब्जी तो पसंद है; पर शाही पनीर या रसगुल्ला उन्हें फूटी आंखों नहीं भाता। इसलिए उन्होंने एक बार फिर पनीर को रसोई से निकलाने का फरमान जारी कर दिया है। बेचारा पनीर (सेल्वम्)। तमिलनाडु परिवहन की बस में चढ़ना उसकी मजबूरी है; पर वह हर बार ‘महिला सीट’ पर बैठने की गलती कर जाता है। इसलिए अब तीसरी बार उसे उठाया जा रहा है। किसी ने ठीक ही कहा है, ’‘धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का।’’

कल मैं शर्मा जी के घर गया, तो वे किसी बात पर अपने नौकर को डांटते हुए कह रहे थे, ‘‘जा, तू भी पनीर हो जा..।’’ पहले तो यह बात मेरी समझ में नहीं आयी। फिर ध्यान आया कि वे कुछ दिन पूर्व ही तमिलनाडु की यात्रा से लौटे हैं। अतः उनके सिर पर बड़ी अम्मा का भूत सवार है; और वह तभी उतरेगा, जब दूसरी अम्मा राजगद्दी पर बैठ जाएंगी।

तब से मैं सोच रहा हूं कि हमारे जैसे साधारण लोगों के लिए महंगे पनीर से सस्ता आलू ही अच्छा है। कोई उसे खाए या नहीं; पर उसे रसोई से बेदखल करने की हिम्मत किसी में नहीं है।

– विजय कुमार,

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