आपदा प्रबंधन की मिसाल

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प्रमोद भार्गव

12_10_2013-12cycloneमौसम विभाग की सटीक भविष्‍यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों के चलते फेलिन चक्रवात बड़ी जनहानि का कारण नहीं बन पाया। इस परिप्रेक्ष्य में हमारी तमाम एजेंसियों ने आपदा से कुशलतापूर्वक सामना करके एक भरोसेमंद मिसाल पेश की है, जो सारहनीय व अनुकरीय है। ओड़ीशा और आंध्रप्रदेश के लोग तूफान की खबर मिलने के बाद से ही भयभीत थे,क्योंकि तबाही की आशंका बड़े पैमाने पर जताई जा रही थी। लेकिन तूफान के पूर्व बरती गई सावधानियों के कारण महज 17 लोगों की मौंतें हुईं। हालांकि तूफान ने अपना असर छोड़ा है। 12 जिलों के करीब 90 लाख लोग प्रभावित हुए, 2.34 लाख घर क्षतिग्रस्त हो गए और 2400 करोड़ रुपए की धान की फसल बर्बाद हो गई। इस लिहाज से फेलिन पिछले 14 साल में आया सबसे भीषण तूफान माना जा रहा है। बावजूद कुदरत के कोप से मुकाबला करने की जो तैयारी व जीवटता इस बार देखी गई, इससे पहले कभी देखने में नहीं आई।

भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अकसर सही साबित नहीं होते, इसलिए उसकी विष्वसनीयता पर सवाल उठते रहते हैं। लेकिन इस बार वह न केवल संदेह की लाचारी से मुक्त हुआ, बल्कि अमेरिका और ब्रिटेन के मौसम विज्ञानियों से कहीं ज्यादा सटीक भविष्‍यवाणी करने में सक्षम रहा। अमेरिका के संयुक्त टाइफून चेतावनी केंद्र और ब्रिटेन के मौसम कार्यालय ने फेलिन को महाचक्रवात बताते हुए चेतावनी दी थी कि यह भारत के लिए प्रचंड विनाशकारी होगा। अमेरिकी मौसम विज्ञानी एरिक हॉलथॉस ने तो यहां तक कहा था कि भारतीय मौसम विभाग संभावित हवाओं और उससे उठने वाली लहरों को कम करके आंक रहा है। उनका दावा था कि फेलिन पांचवीं श्रेणी का सर्वाधिक शक्तिशाली तूफान है। जबकि इसके उलट भारतीय मौसम विभाग का दावा था कि भारत में फेलिन तकरीबन 220 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से प्रवेष करेगा, जो महाचक्रवात की श्रेणी से एक पायदान नीचे है। आखिर समय तक मौसम विभाग के प्रमुख एलएस राठौर इसी पूर्वानुमान पर डटे रहकर केंद्र व राज्य सरकारों को बड़े पैमाने पर एहतियात बरतने की हिदायतें देते रहे। यही नहीं इस बार हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्यूटर और डापलर रडार जैसी श्रेष्‍ठतम तकनीक के माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र एवं उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में भी सफल रहे। तूफान की तीव्रता और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरुरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और उनसे सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरुरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य व जिलेबार भविष्‍यवाणियां की  जा सकें। यदि ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा। साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्ता व दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरुरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृश्टि से समुद्रतटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर भी हैं। लिहाजा समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना होता है।

कुदरत के रहस्यों की ज्यादातर जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के तो तमाम इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूशित होते जा रहे पर्यावरण के कारण ये खतरे और इनकी आवृत्ति और बढ़ गई है। कहा भी जा रहा है कि फेलिन, ठाणे, आइला, आईरिन, नीलम और सैंडी जैसी आपदाएं प्रकृति की बजाय आधुनिक मनुष्‍य और उसकी प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं। इस बाबत गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आषंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रुप में 2012 में ही आ धमके। 10 साल पहले आए सुनामी ने ओडि़शा के तटवर्ती इलाकों में जो कहर बरपा था, उसके विनाश के चिन्ह अभी भी दिखाई दे जाते हैं। इसकी चपेट में आकर करीब 10 हजार लोग मारे गए थे। सुनामी से फूटी तबाही के बाद पर्यावरणविदों ने यह तथ्य रेखांकित किया था कि अगर मैग्रोंव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओडि़शा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख 70 हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। उत्तराखंड में भी पर्यटन विकास के लिए लाखों पेड़ काट दिए और पहाडि़यों की छाती छलनी कर दी गई, जिसके दुष्‍परिणाम हमने उत्तराखंड त्रासदी में देखे। दरअसल, जंगल प्राणी जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाष को यदि नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो यह तय है कि आपदाओं के सिलसिलों को भी रोक पाना मुश्किल होगा ?

दरअसल कार्बन फैलाने वाली विकास नीतियों को बढ़ावा देने के कारण धरती के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि बीते 133 सालों में रिकार्ड किए गए तापमान के जो 13 सबसे गर्म वर्श रहे हैं, वे 2000 के बाद के ही हैं और आपदाओं की आवृत्ति भी इसी कालखण्ड में सबसे ज्यादा बढ़ी हैं। पिछले तीन दषकों में गर्म हवाओं का मिजाज तेजस्वी लपटों में बदला है। इसने धरती के 10 फीसदी हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। यही वजह है कि अमेरिका में जहां कैटरिना, आइरिन और सैंडी तूफानों ने तबाही मचाई वहीं नीलम, आइला और फेलिन ने भारत व श्रीलंका में हालात बद्तर किए। बताया जा रहा है कि वैष्विक तापवृद्धि के चलते समुद्री तल खौल रहा है। फ्लोरिडा से कनाडा तक फैली अटंलांटिक की 800 किमी चैड़ी पट्टी में समुद्री तल का तापमान औसत से तीन डिग्री सेल्सियस अर्थात् 5.4 फारेनहाइट ज्यादा है। यही उर्जा जब सतह से उठ रही भाप के साथ मिलती है तो समुद्री तल में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव शुरु हो जाता है, जो चक्रवाती बंवडर को विकसित करता है। इस बवंडर के वायुमंडल में विलय होने के साथ ही, वायुमंडल की नमी 7 फीसदी बढ़ जाती है, जो तूफानी हवाओं को जन्म देती है। प्राकृतिक तत्वों की यही बेमेले रसायनिक क्रिया भारी बारिष का आधार बनती है, नतीजतन तबाही के परचम से धरती कांप उइती है।

तापमान की इसी वृद्धि का अनुमान लगा लिए जाने के आधार पर अंतर सरकारी पेनल ने भी भारतीय समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने की आशंका जताई है। इस लिहाज से हमारी संस्थाओं की जो समवेत जवाबदेही, इस चक्रवात से सामना करने में दिखाई दी, उसकी निरंतरता बनी रहनी चाहिए। मौसम विभाग की भविष्‍यवाणी के बाद बचाव और राहत की तैयारी के लिए महज तीन दिन मिले थे। इन्हीं तीन दिनों में केंद्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सक्रिय हो गया। इसकी हिदायतों के मुताबिक थल, जल और वायु सेनाएं जरुरी संसाधनों के साथ प्रभावित क्षेत्रों में तैनात हो गईं। ओडि़शा और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने भी वक्त के तकाजे के हिसाब से बचाव के सभी संसाधन तटवर्ती क्षेत्र में झोंक दिए। मीडिया भी मैदान में तैनात होकर आगे बढ़ते तूफान की सूचनाएं देकर जनता को सुरक्षित स्थलों पर पहुंचने की मुनादी पीटता रहा। इस संकट की घड़ी में जो साझा दायित्व बोध देखने में आया, वह यदि भविष्‍य में भी बना रहता है तो भारत ऐसी अचानक आने वाली आपदाओं से मानव आबादी को सुरक्षित बनाए रखने में सफल बना रहेगा।

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  1. पहली बार सरकार के विभिन तंत्रों के पूर्ण समनवय के साथ सफलता पूर्वककार्य करने के कारण हम न केवल एक भयानक आपदा का सफलता पूर्वक सामना करके जीवन की क्षति को रोक सके हैं,बल्कि भारत के इस पूर्ण आपदा तंत्र को विश्व में एक प्रतिष्ठत स्थान भी दिला सके हैं.
    पर भारत तो भारत ही है.जहां एक और हम इस ऊंचाई पर पहुँचने में सफल हुए,वहीँ एक मंदिर के भगदड़ में हुए हादसे के चलते हमारा सर शर्म से भी झुक गया. तुर्रा यह कि इन दोनों हादसों का समाचार एक साथ ही आया. प्रकृति के प्रकोप का तो हमने सफलता पूर्वक सामना कर लिया,पर अपने बनाए जाल में उलझ कर हमें शर्मिंदगी का सामना करना पडा.

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