आर्य-हिन्दुओं की सामाजिक व राजनैतिक उन्नति में बाधक उनकी अवैदिक मान्यतायें एवं वेद विरुद्ध आचरण

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मनमोहन कुमार आर्य

महाभारतकाल तक संसार में हिन्दू जाति का अस्तित्व कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। महाभारत एवं रामायण इतिहास के दो प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। दोनों में आर्य जाति का उज्जवल इतिहास वर्णित है। महाभारतकाल वर्तमान काल से लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है तो रामायण उससे कहीं अधिक प्राचीन है। इसका अर्थ है कि सृष्टि के आदि काल से महाभारतकाल तक संसार में आर्यों का ही निवास था और संसार में वेद धर्म प्रवृत्त था। हिन्दू, मुस्लिम व ईसाई आदि का वर्णन महाभारत में न होने और इसके समकालीन व वेद से इतर इससे पूर्व का अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध न होने से जिसमें आर्येतर किसी जाति व सम्प्रदाय का उल्लेख हो, यह स्वीकार करना पड़ता है कि आर्येतर सभी सम्प्रदाय व जातियों का उदय महाभारत काल के बहुत बाद में हुआ है। महाभारत काल व उसके सहस्रों वर्ष बाद तक भारत के निवासी सभी लोग आर्य कहलाते थे जिसका अर्थ था कि सभी वेदानुयायी और श्रेष्ठ आचार और विचार वाले मनुष्य थे। महाभारत युद्ध से सामाजिक पतन पराकाष्ठा पर पहुंच गया था जिससे समाज कमजोर होकर उसमें अज्ञानता व अंधविश्वास उत्पन्न हुए। उसी के परिणाम स्वरूप अज्ञानता के कारण भारत की आर्यजाति अपना यथार्थ नाम ‘आर्य’ भी भूल गई और कालान्तर में मुसलमानों ने उसे हिन्दू नाम दिया जिसे उसने अपना लिया और आज इसी नाम से उसे पुकारा जाता है। मुसलमानों का इतिहास लगभग 1400 वर्ष पुराना होने के कारण हिन्दू शब्द भी लगभग 1400 वर्ष पुराना ही स्वीकार करना पड़ता है। यह भी जान लें कि ईसाईयों व मुसलमानों का इतिहास भी अधिक पुराना न होकर यह क्रमशः 2000 व 1400 वर्ष पुराना ही है जबकि आर्यजाति का इतिहास लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व सृष्टि के आरम्भ से ही है और वर्तमान की हिन्दू जाति अतीत की आर्य जाति ही है।

 

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद अध्ययन अध्यापन के बाधित होने के कारण देश व संसार में अज्ञान फैल गया जिससे संसार में अंधविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हुईं। भारत में अज्ञानता के कारण मूर्तिपूजा, जन्मना जातिवाद, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध जैसी अनेकानेक समाज को कमजोर करने वाली प्रथायें व कुरीतियां प्रचलित हो गईं। इस कारण समाज जीर्ण शीर्ण हो गया। सबसे अधिक समाज को हानि पहुंचाई तो वह विद्या की वृद्धि में आई रूकावट व अविद्या सहित मूर्तिपूजा और जन्मना जातिवाद आदि ने पहुंचाईं। अन्य अन्धविश्वासों व कुरीतियों का भी समाज को कमजोर व नष्ट करने में योगदान है। महाभारतकाल के बाद हमारे देश में एकमात्र जैमिनि ऋषि ही हुए हैं। उनके बाद ऋषि परम्परा अवरूद्ध हो गई। इसका अर्थ है कि महर्षि जैमिनी के बाद समाज का तेजी से पतन हुआ और अध्ययन व अध्यापन के न्यून होने व लोगों की वेद व वैदिक साहित्य पढ़ने में रूचि न होने के कारण दुर्दशा हुई। इससे समाज का पतन होता गया। अनपढ़ व चरित्र शून्य ब्राह्मण भी अन्यों से श्रेष्ठ मान लिया गया। यह अति अवनत अवस्था का सूचक है। इस अज्ञानता के कारण वेद के यथार्थ अर्थ न कर उनके लौकिक व रूढ़ि अर्थ प्रचलित होने लगे जिससे यज्ञों में पशु हिंसा का प्रचार व प्रचलन हुआ। समय के साथ इस स्थिति में वृद्धि होती रही। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व देश में महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी का जन्म हुआ। उन्होंने यज्ञों में पशु हिंसा को देखा तो उन्हें यह अमानवीय व क्रूरता का कार्य लगा। उन्होंने यज्ञों व वेदों का विरोध किया और अहिंसा का प्रचार किया। कालान्तर में महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने अपने आचार्यों की मूर्तियां बनाकर उन्हीं की पूजा प्रचलित की। आर्य जाति विद्याहीन तो थी ही, उन्हें पशुहिंसा वाले यज्ञों से बौद्ध और जैन मत के कार्यकलाप सरल व अच्छे लगे और वह सब उन्हीं को मानने लगे।

 

जैन व बौद्ध मत के प्रभाव से ही देश में मूर्तिपूजा आरम्भ हुई जिसका कालान्तर में विस्तार हुआ और शैव, वैष्णव व शाक्त आदि अनेक सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये। इनके आचार्यों ने नाना प्रकार की काल्पनिक कथाओं के ग्रन्थ भी बनाये जिन्हें विद्याहीन भक्तों ने सत्य मान लिया। यह अंध भक्ति इतनी घातक सिद्ध हुई कि समाज कमजोर हुआ, देश पर बाह्य आक्रमण हुए, मुसलमानों ने हिन्दुओं के विशाल व वैभव सम्पन्न मन्दिरों को तोड़ा व लूटा, पण्डे पुजारियों व क्षत्रियों की हत्यायें कीं, स्त्रियों को दूषित किया और अनेक इस प्रकार के कुकर्म किये। देश गुलाम हो गया और एक हजार वर्षों की गुलामी के बाद सन् 1947 में इसका कुछ भाग स्वतन्त्र होने पर भी मूर्तिपूजा की हानिकारक मानसिकता से देश उबर नहीं पाया। आज भी मूर्तिपूजा पहले से भी शायद अधिक हो रही है। कोई मूर्तिपूजक व उनका आचार्य मूर्तिपूजा विषयक महर्षि दयानन्द द्वारा उठाये प्रश्नों पर विचार करने व उनका देने की स्थिति में नहीं है। यह एक प्रकार का मानसिक पतन ही कह सकते हैं। मूर्तिपूजा से जुड़ी अन्य भी अनेक समस्यायें हैं जिन्होंने समाज को खोखला कर दिया है। अनेक मन्दिरों में शूद्र जाति के लोगों को प्रवेश करने नही दिया जाता जिससे हिन्दू समाज टूट रहा है व दिन प्रतिदिन कमजोर हो रहा है। किसी मूर्तिपूजक व उनके आचार्य को देश में हिन्दुओं की घटती आबादी और उसके दुष्परिणामों पर विचार व चर्चा करने का भी समय नहीं है। बुद्धि हो तो चर्चा हो, जब जड़पूजा से बुद्धि ही जड़ हो गई है तो विचार व चिन्तन तो ज्ञान व विद्या की अपेक्षा रखते हैं। बुद्धिजीवियों को यह स्पष्ट दिखाई देता है कि वर्तमान हालात में हिन्दू जाति का भविष्य उज्जवल न होकर इस पर अनेक खतरे मण्डरा रहे हैं जिसमें इसके पुनः गुलाम होने, धर्मान्तरित होने का खतरा भी विद्यमान है।

 

यदि हिन्दू जाति को महाभारतकालीन व उससे पूर्व के गौरव को प्राप्त करना-कराना है तो हिन्दू समाज से अविद्या को नष्ट कर उसे वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान कराकर उसके आधार पर उन्नत करना होगा जिसमें न मूर्तिपूजा, न जन्मना जातिवाद, न मृतक श्राद्ध, न फलित ज्योतिष और न अवतारवाद का कोई स्थान है। मूर्तिपूजा का स्थान निराकार ब्रह्म वा ईश्वर की वेदमंत्रों से स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित दैनिक अग्निहोत्र को देना होगा, जन्मना जातिवाद को समाप्त कर उसके स्थान पर मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव को महत्व देना होगा, अवतारवाद को छोड़कर ईश्वर के निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा व सच्चिदानन्द स्वरूप को मानना होगा, फलित ज्योतिष को भूलकर पुरूषार्थ व कर्म फल व्यवस्था में विश्वास करना होगा और मृतक श्राद्ध के स्थान पर जीवित माता-पिता व वृद्धों की सेवा करने का व्रत लेना होगा। ऐसा करके ही हिन्दू समाज शक्तिशाली हो सकता है और आज के आधुनिक काल में टिका रह रहता है। वह दिन हिन्दू समाज के लिए उत्सव मनाने के लिए उपयुक्त हो सकता है कि जब एक भी हिन्दू का धर्मान्तरण न हो, हिन्दू सदा-सर्वदा बहुसंख्यक रहें यह सुनिश्चित हो और अन्य मतों के लोग वैदिक हिन्दू मत की श्रेष्ठता के कारण बड़ी संख्या में इसको अपनायें व ग्रहण करें।

 

मूर्तिपूजा का मुख्य कारण अवतारवाद की कल्पना है। वेद में अवतार का समर्थन नहीं है अपितु खण्डन अवश्य मिलता है। जब स्वयं ईश्वर अपने ज्ञान वेद में अपने आप को अजन्मा कहता है तो फिर अवतारवाद को मानना अज्ञानता व स्वार्थ ही कहा जा सकता है। इसे जितनी जल्दी समाप्त किया जा सके समाप्त किया जाना चाहिये। राम, कृष्ण व दुर्गा आदि देवी को मुख्यतः अवतार माना जाता है। इनका अवतार होना रामायण एवं महाभारत के लेखों से भी सिद्ध नहीं होता। यह अपने महत् कार्यों से महापुरुष थे जैसे विगत शताब्दियों में आचार्य चाणक्य, स्वामी शंकराचार्य और ऋषि दयानन्द जी आदि हुए हैं। इन महापुरुषों ने भी धर्म व जाति की रक्षा के लिए अपूर्व व दीर्घकालीन लाभ के कार्य किये हैं। इन तीनों ने ही वेदों व वैदिक धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की है। वेद की तुलना में सभी मत-मतान्तरों, उनकी मान्यतायें व सिद्धान्त ज्ञान व विद्या की दृष्टि से तुच्छ व न्यून हैं। मत-मतान्तरों ज्ञान विरुद्ध अनेक मिथ्या बातें भी हैं जो इन्हें अल्पज्ञानी मनुष्यों द्वारा निर्मित सिद्ध करती हैं। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में जिता भाग सत्य है वह प्रशंसनीय है। उनका सत्य भाग भी वेदों से उनमें गया हुआ है। यदि फलित ज्योतिष की चर्चा करें तो यह मिथ्या विद्या है।

 

वेदों में इसका कहीं उल्लेख भी नहीं है। देश के पतन व गुलामी में फलित ज्योतिष का मुख्य योगदान रहा है। यदि फलित ज्योतिष न होता तो शायद सोमनाथ मन्दिर सहित मथुरा, अयोध्या व काशी के मन्दिर न तोड़े जाते व लूटे गये होते। हम व हमारे आर्यसमाज के विद्वान व आर्य परिवारों के लोग फलित ज्योतिष को किंचित भी नहीं मानते। विदेशों में भी इसका प्रचार नहीं है। वहां के सभी लोग बिना इसकी सहायता के अपना सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वह हमसे अधिक समृद्ध स्वस्थ ज्ञानवान व प्रतिष्ठित हैं। अतः फलित ज्योतिष से हिन्दुओं को जितना शीघ्र हो सके छुटकारा पा लेना चाहिये। ऐसा होने पर ही हिन्दू जाति बलिष्ठ व प्राणवान बन सकती है। मृतक श्राद्ध भी एक मिथ्या परम्परा है। जो मनुष्य मरता है उसका पुनर्जन्म कुछ ही दिनों में हो जाता है। अतः उसका श्राद्ध करना मिथ्या व अज्ञानपूर्ण कार्य ही है। इस प्रथा को जितना शीघ्र छोड़ सकें, छोड़ देना चाहिये। इसी प्रकार जन्मना जातिवाद समाज का कोढ़ व कैंसर के समान रोग है। इसने हिन्दू जाति को सबसे अधिक जीर्ण व कमजोर किया है। जातिवाद केवल कानून से ही नहीं अपितु समाज के उच्च वर्ग के लोगों, स्त्री व पुरुष, सभी के मनों से बाहर होना चाहिये। आज के पण्डे पुरोहित भी अभी इससे दूर नहीं हो पाये हैं। यह भी हिन्दुओं की बहुत बड़ी विडम्बना है। इससे अनेक प्रकार की हानि हो रही है। देश के कुछ राजनीतिक दल इसी कारण वोट बैंक की राजनीति करते हैं जिसका देश पर बुरा प्रभाव होता है। अनेक समुदाय ऐसे हैं जिनमें जातिवाद की प्रवृत्ति बहुत अधिक है। विगत दिनों गुजरात व हरियाणा सहित राजस्थान आदि में जाति केन्द्रित आन्दोलन भी हुए हैं जिससे देश व समाज के हितों की अपूरणीय क्षति हुई है। समाज इससे जुड़ने व मजबूत होने के स्थान पर बटा व कमजोर हुआ है। सभी धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक नेताओं को मिलकर विचार कर इस समस्या का समाधान करना चाहिये।

 

हमने देश, समाज, वैदिक धर्म व आर्य-हिन्दुओं के हित की दृष्टि से इस लेख को प्रस्तुत किया है। इस विषय में और बहुत कहा जा सकता है। शायद बड़े बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। लिखे भी गये हैं। अतः इसे यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

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