आर्यसमाज का सदस्य बनने से जीवन की उन्नति व अनेकानेक लाभ

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satyarth prakash

मनमोहन कुमार आर्य

ईश्वर इस सृष्टि का रचयिता व पालक है। मनुष्य व अन्य सभी प्राणियों को जन्म देने वाला भी वह ईश्वर ही है। मनुष्य का जन्म माता-पिता से एक शिशु के रूप में होता है। जन्म व उसके बाद लम्बी अवधि तक यह नवजात शिशु न बोल पाता है, न चल-फिर पाता है और न अपना आहार प्राप्त कर उसका भक्षण ही कर पाता है। यह सब कार्य उसे उसकी माता व पिता सिखाते व कराते हैं। शिशु ईश्वर के बनाये प्राकृतिक नियमों के अनुसार बढ़ता रहता है, तब कुछ वर्ष बाद ऐसा समय आता है कि वह कुछ कुछ बोलना सीख जाता, कुछ-कुछ चलने लगता है, आहार देने पर उसे कर लेता है परन्तु उसका मल-मूत्र साफ करना व उसे स्वच्छ वस्त्र आदि धारण कराने के साथ उसे स्नान व उसकी शारीरिक शुद्धि का कार्य माता-पिता को ही करना होता है। किशोरावस्था में आकर वह अपने कार्यों को सम्पन्न करने योग्य हो जाता है।

 

बालक को यदि पढ़ाया वा सिखाया न जाये तो वह पढ़ना-लिखना व सदाचार आदि की बातों को नहीं जान सकता। यह दायित्व भी माता-पिता और उसके बाद पाठशाला, स्कूल व गुरुकुल के गुरुजनों का होता है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि ‘मातृमान् पितृमानाचार्यववान् पुरुषो वेद।’ अर्थात् जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवंे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है। वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता और पिता धार्मिक व विद्वान हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी अन्य से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम, उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता। इसलिए वह माता धन्य है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो तब तक सुशीलता का उपदेश करे। (ऋषि दयानन्द)

 

आजकल देश व समाज की जो स्थिति है वह हम सबको ज्ञात है। देश में अधिकांश लोग निर्धनता से ग्रस्त है। देश के साठ प्रतिशत से अधिक लोगों को तो दो समय का भोजन ही नहीं मिलता फिर उनकी शिक्षा-दीक्षा जो पाठशाला व विद्यालय में अपेक्षित होती है, सम्भव ही नहीं है। अतः इन 60 प्रतिशत बालकों व किशोरों को अच्छी शिक्षा व संस्कार ही नहीं मिल पाते। यह बड़े होकर श्रमिक बनने के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं कर सकते। सभी जानते हैं कि पठित व तथाकथित शिक्षित लोग इनका शोषण करते हैं और इनमें से कुछ कुसंगति के कारण अपराधी भी बन जाते हैं। जो लोग माता-पिता व विद्यालय के गुरुजनों से पढ़ते हैं उन्हें भी किताबी पाठ तो पढ़ायें जाते हैं परन्तु सदाचार वा चरित्र की उत्तम शिक्षा से वह भी वंचित ही रहते हैं। हमारे देश के लोगों को न तो ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप का ज्ञान है और न ही स्कूलों आदि में इनके अध्ययन व पठन-पाठन का प्रबन्ध है। धर्मनिरेक्षपता के नाम पर बच्चों को सदाचार, आध्यात्म व योग आदि की शिक्षा से वंचित ही रखा जाता है। ऐसी स्थिति में हमारे किशोर व युवाओं को सर्वांगपूर्ण शिक्षा प्राप्त नहीं हो पाती जिस कारण वह पैसा कमाने वाली एक मशीन ही बन कर रहा जाते हैं और अधिकांश कक्षा 10, 12 या बी.ए. आदि करके उन अधिक पढ़े-लिखे लोगों, नेताओं व बड़े व्यवसायिकों के सेवक बनकर अपने जीवन का येन-केन-प्रकारेण निर्वाह मात्र करते हैं। ऐसे लोग न तो ईश्वर की यथार्थ भक्ति व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही कर पाते हैं, न अग्निहोत्र से होने वाले लाभों को प्राप्त कर पाते हैं और भी अनेकों आवश्यक व उपयोगी कर्तव्यों से दूर रहकर वह अपना जीवन उन्नत करने से वंचित ही रहते हैं।

 

ऐसी स्थिति में यदि कोई किशोर व युवा किसी अच्छे आर्यसमाज में पहुंच जाये और वहां यज्ञ एवं सत्संग में जाये तो उसकी काया पलट हो जाती है। आर्यसमाज में प्रत्येक सप्ताह रविवार को उसे यज्ञ में सम्मिलित होकर उसे सीखने का अवसर मिलता है जिसे वह मात्र कुछ सप्ताह में करना जान जाता है। इससे वर्तमान जन्म व परजन्मों में अनेक प्रकार से लाभ होता है जिसका वर्णन हमारे शास्त्रों व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में उपलब्घ है। यज्ञ के साथ ही उसे ज्ञानवर्धक व ईश्वर के यथार्थस्वरुप पर आधारित भक्तिरस के भजन व गीत सुनने को मिलते हैं जिससे उसकी आत्मा में सुख व शान्ति आती है। इस कार्य की पूर्ति के लिए आर्यसमाज में पं. सत्यापाल पथिक, पं. ओम्प्रकाश वर्मा, पं. सत्यपाल सरल, श्री नरेश दत्त आर्य आदि अनेकानेक भजनोपदेशक हैं। इन भजनों को सुनकर ईश्वरभक्ति व आत्मबल उत्पन्न होता व बढ़ता है और आत्मा के कुसंस्कार दूर होकर सद्विचारों का प्रार्दुभाव होता है। आर्यसमाजों में प्रत्येक सप्ताह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का पाठ भी होता है जिससे ईश्वर, जीवात्मा, ईश्वर-भक्ति, धर्म, संस्कृति, समाज व देश से सम्बन्धित अनेक व सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। आर्यसमाज के सत्संग में बाहर से भी अच्छे विद्वानों व वक्ताओं को बुलाया जाता है जिससे श्रोता अनेक विषयों को जानने में समर्थ होता है और साथ ही उन विद्वानों से शंका समाधान करने सहित परस्पर परिचय व मित्रता का लाभ भी उसे मिलता है। ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान सहित सहित श्रोता को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का भी ज्ञान होता है। वह जिज्ञासु व श्रोता आर्यसमाज के सत्संग से अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीती, सामाजिक बुराईयों सहित जीवन को उन्नत व अवनत करने वाले गुणों व अवगुणों से भी परिचित होता है जिससे वह बुराईयों से दूर होकर सच्चा जीवन व्यतीत करने में समर्थ होता है। जिज्ञासु श्रोता कुछ समय बाद स्वयं भी विद्वान व अच्छा वक्ता बन जाता है जिससे उसके जीवन में सुख, शान्ति व समृद्धि प्राप्त होती है। सुख का मूल धर्म है, धर्म का आधार राज्य और राज्य का आधार इन्द्रिय-जय अर्थात् चरित्र होता है। इन सब गुणों का ज्ञान व इनका विकास आर्यसमाज में नियमित रूप से जाने व उसका सदस्य बनकर प्राप्त होती है जो कि अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती। अतः सभी माता-पिताओं को अपनी सन्तानों सहित स्वयं भी आर्यसमाज में अवश्य जाना चाहिये जिससे आर्य बनकर प्राप्त होने वाले सभी गुण व उनसे  प्राप्त भौतिक साधन धन, ऐश्वर्य, सुख व सम्पत्ति को प्राप्त हो सकंे। हम स्वयं भी इन अवस्थाओं से गुजरे हैं और हमें सन्तोष है कि हमने सही मार्ग चुना था। यदि हम यह मार्ग को न चुनकर कोई अन्य उपलब्ध मार्ग चुनते तो हमें जो सन्तोष आर्यसमाज व वैदिक विचारधारा से प्राप्त हुआ व हो रहा है, वह हमें प्राप्त न होता जो निश्चय ही हमारे लिए हानिकर व दुःखकर होता।

 

आर्यसमाजी बन कर एक लाभ यह भी होता है कि उसे वैदिक वांग्मय का न केवल परिचय मिलता है अपितु सत्यार्थप्रकाश आदि कुछ ही ग्रन्थों को पढ़कर वह वैदिक पण्डित व आचार्य बन जाता है। सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर जो ज्ञान प्राप्त होता है वह संसार के किसी भी ग्रन्थ को पढ़कर नहीं हो सकता है ऐसा हमारा अनुमान व अनुभव है। यही कारण है कि हमने कुछ ही वर्षों में अधिकांश वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत सहित अनेकानेक विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़कर उससे मिलने वाले मानसिक सुख व सन्तोष को प्राप्त किया है। हम सभी पाठकों को जो किन्हीं कारणों से आर्यसमाज में नहीं जाते, प्रेरणा व निवेदन करते हैं कि आर्यसमाज से जुड़कर श्रेष्ठ व यथार्थ जीवन को जानने व उसके अनुसार आचरण कर उससे होने वाले लाभों को प्राप्त करें। आर्यसमाज जाने, वहां विद्वानों के प्रवचन सुनने व स्वाध्याय करने से यह जीवन उन्नत होगा और परजन्म भी सुधरेगा जो कि अन्य किसी प्रकार से होना कठिन व असम्भव है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

 

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