आर्यसमाज के यशस्वी विद्वान डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी

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मनमोहन कुमार आर्य

               डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी आर्यसमाज के यशस्वी विद्वान हैं। आप वेदों के सुप्रसिद्ध विद्वान डा. आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सुपुत्र है। डा. रामनाथ वेदालंकार जी भारत के राष्ट्रपति जी से संस्कृत के विद्वान के रूप में सम्मानित थे। उन्होंने सामवेद का संस्कृत और हिन्दी में भाष्य किया है और वेदों पर बहुत उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे हैं। उनके ग्रन्थों की सूची लम्बी है। हमारा सौभाग्य है कि हमें आचार्य जी के जीवन काल में उनका सान्निध्य मिला। वह हमसे स्नेह करते थे। वह वस्तुतः वेदों के आचार्य, वैदिक विद्वान एवं ऋषितुल्य वा ऋषि ही थे। उनके वेदभाष्य एवं अन्य ग्रन्थों को पढ़कर इस तथ्य की पुष्टि होती है। आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी एवं डा. विनोद चन्द्र विद्यालंकार जी की शिक्षा-दीक्षा गुरुकुल कांगडी हरिद्वार में हुई है। आप गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पंतनगर के प्रकाशन विदेशालय में अनेक पदों पर रहे। दिनांक 30-6-2002 को आप इस सरकारी सेवा से सेवानिवृत हुए थे। सेवानिवृत्ति के बाद से आप आर्य संस्था आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम, ज्वालापुर मे निवास कर रहे हैं। पिछले दिनों आपने वानप्रस्थ आश्रम की हीरक जयन्ती स्मारिका का योग्यतापूर्वक सम्पादन किया था। इस स्मारिका की सामग्री भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हमें भी आपसे इस स्मारिका की एक प्रति प्राप्त हुई थी। यह स्मारिका भी आर्य साहित्य का एक पठनीय एवं उपयोगी ग्रन्थ बन गया है।

               आपने आर्य साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया है। आपकी सभी कृतियों अत्यन्त उपयोगी हैं। आपकी अनेक कृतियां वा रचनायें हमारे पास हैं। आपकी एक प्रमुख रचना ’’स्वामी श्रद्धानन्द एक विलक्षण व्यक्तित्व है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन पर यह एक विस्तृत एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें जो सामग्री उपलब्ध होती है वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती। हमारा इस पुस्तक को पढ़ने के बाद यह विचार बना था कि प्रत्येक आर्यसमाजी विद्वान व ऋषि दयानन्द के अनुयायी को इस ग्रन्थ को अवश्य पढ़ना चाहिये। इस ग्रन्थ के अध्ययन से स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन को सर्वांगपूर्ण रूप में जानने के साथ हम अपने जीवन व चरित्र के निर्माण में प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं।

               आर्यजगत में स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती जी का नाम सुप्रसिद्ध है। आप सन्यास से पूर्व पं. बुद्धदेव विद्यालंकार जी के नाम से जाने जाते थे। मेरठ के निकट प्रभात आश्रम उन्हीं का स्थापित किया हुआ आश्रम है। यहां वर्तमान में एक गुरुकुल चलता है। स्वामी विवेकानन्द सरस्वती जी इस गुरुकुल के संचालक हैं और स्वामी समर्पणानन्द जी के शिष्य रहे हैं। हमारा सौभाग्य है कि हमें वर्षों पूर्व स्वामी समर्पणानन्द जी के जीवन पर भी एक विस्तृत लेख लिखने का अवसर मिला था। इसकी सामग्री हमने आर्य विद्वान श्री मूलचन्द गुप्त जी के सम्पादन में प्रकाशित साप्ताहिक पत्र आर्यसन्देश के स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती विशेषांक से ली थी। उनके द्वारा सम्पादक कार्य से पृथक होने के बाद आर्यसन्देश के वैसे विशेषांक प्रकाशित नहीं हुए जो उनके समय में लगभग एक दर्जन की संख्या में प्रकाशित हुए थे। इस प्रकार से हम इन स्वामी जी के जीवन से परिचित हुए थे। प्रसंगवश यह भी बता दें कि स्वामी समर्पणानन्द जी भी गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक थे। रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी की पत्नी माता लक्ष्मी देवी ने उन्हें पंडित लेखराम जी के बीमे में प्राप्त धन को इनकी छात्रवृत्ति के लिये प्रदान किया था जिसका प्रभाव स्वामी जी के जीवन में परिलक्षित होता था। इन स्वामी जी ने भी जीवन में कुछ कुछ पं. लेखराम जी के मार्ग का ही अनुसरण किया था। प्रभात आश्रम गुरुकुल की आर्यजगत में गहरी प्रतिष्ठा है। इस गुरुकुल के ब्रह्मचारी गुरुकुल परिसर में संसकृत में वार्तालाप करते हैं। इस गुरुकुल के एक ब्रह्मचारी ने धनुर्विद्या वा निशाने बाजी में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था। स्वामी समर्पणानन्द जी के जीवन पर भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने दो खण्डों में किया है। उस ग्रन्थ का नाम है शतपथ के पथिक: स्वामी समर्पणानन्द सरस्वतीएक बहुआयामी व्यक्तित्व इस ग्रन्थ को यशस्वी आर्य प्रकाशक श्री अजय आर्य जी द्वारा अपने प्रकाशन संस्थान विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली से कई वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था। यह ग्रन्थ भी आर्य पुरुषों के जीवन साहित्य में एक बेजोड़ ग्रन्थ है। ऐसे विस्तृत एवं वृहद ग्रन्थ का प्रकाशन अन्य किसी आर्य विद्वान द्वारा सम्भव नहीं था, ऐसा हम अनुभव करते हैं। इस महनीय कार्य के लिये भी डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी बधाई के पात्र हैं।

               सन् 2017 में डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी का एक अन्य ग्रन्थ भी प्रकाश में आया है जिसका नाम है आर्य संस्कृति के संवाहक आचार्य रामदेव यह ग्रन्थ भी बड़े आकार में है जिसमें 515 पृष्ठ हैं। आचार्य रामदेव जी ने वर्षों तक गुरुकुल कांगड़ी को अपनी सेवायें दी थी। आपने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया था। देहरादून का कन्या गुरुकुल जो बाद में महाविद्यालय बना, आचार्य रामदेव जी द्वारा स्थापित किया गया था। हमने इस विद्यालय की संचालिका व प्रधानाचार्या श्रीमती दमयन्ती कपूर जी को कई बार साक्षत् देखा है। डा. विनोद जी का यह ग्रन्थ भी जीवन चरित साहित्य में बेजोड़ है। इन तीनों ग्रन्थों के सम्पादन में सम्पादक महोदय डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने कितना श्रम किया होगा इसका अनुमान करना कठिन है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी से यशस्वी आर्य-प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने किया है। इसके अतिरिक्त भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का लेखन व सम्पादन डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी के द्वारा बहुत ही योग्यतापूर्वक किया गया है जिसके लिये समूचा आर्यजगत उनका ऋणी है और उनको साधुवाद देता है।

               डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने लेखनी के द्वारा आर्यसमाज और आर्य साहित्य की जो सेवा की है, उसके लिये अनेक आर्य एवं इतर संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया गया है। श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी की ओर से अपने साहित्य सम्मान से भी वह सम्मानित किये गये हैं।

               दिनांक को 27-1-2020 हमें व्हटशप पर उनके स्वास्थ्य के विषय में एक सन्देश मिला है। डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उनको पुनः देहरादून के जौली ग्रान्ट स्थित ‘हिमालयन हास्पीटल’ में उपचार हेतु भर्ती कराया गया है। हम डा. विनोद जी के शीघ्र स्वस्थ होने की ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ईश्वर उन्हें शीघ्र स्वस्थ और दीर्घायु करें। हमारी परम पिता परमेश्वर से यह प्रार्थना एवं विनती हैं। ओ३म् शम्।

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