आय-व्यय का लेखा-जोखा और पं. दीनदयाल

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pandit deen dayal; upadhyay अमित राजपूत

देश के नीति नियंताओं की व्यस्तता आजकल राजनीतिक लेखा-जोखा और आगामी नीतियों को तैयार करने के विचार पर है। संसद में बजट सत्र प्ररम्भ होने वाले हैं। एकराष्ट्र की परिधि में बात करें तो उस राज्य में निवास करने वाला हर नागरिक अपने राज्य के समस्त आय और व्यय की जानकारी को समझना चाहता है, वह यह जानना चाहता है कि हमारा देश की आय क्या है और उसका इस पर कितना व्यय हो रहा है, जिसका कि उसको अधिकार है और ये हर नागरिक को चाहिए भी कि वह अपने राज्य द्वारा किए जा रहे हर तरह के राजनीतिक आय-व्यय को जाने, समझे और उसे किस तरह से किया जाए उस पर विचार करे। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक आय-व्यय के दृष्टिकोणों और उसके प्रतिमानों पर नज़र डालें तो वह हमें बताते हैं कि राजनीतिक आय-व्यय के समय हमकोबार-बार इस बात का विचार करना चाहिए कि कौन सा देश और काल है? कौन मित्र है? हमारा आय-व्यय क्या है? हम कौन हैं तथा हमारी शक्तियाँ क्या हैं? इन बातों का निरन्तर विचार करनेवाला राष्ट्र ही सदा विजयी एवं सफल होता है।
भारतवर्ष की बात करें तो इसका कारोबार बहुत पुराना है। दुनिया में सब लोग जब अच्छी तरह व्यापार करना न जानते थे तब से इसका उद्योग चल रहा है। अपनी उत्पत्ति तथा उनकी विशेषताओं के लिए वह बहुत दिनों से प्रसिद्ध रहा है, इसलिए इसकी साख सदैव बहुत ही मूल्यवान रही है। बहुत दिनों तक तो ज्ञान, विज्ञान, कला व कौशल आदि की उत्पत्ति पर एकाधिकार रहा और इस कारण वह दुनिया में सबसे अधिक धनवान ही नहींप्रतिभावान भी समझा जाता था। व्यापार में ‘एक बात’ इसका गुण था जिसे इसने सत्य का ट्रेडमार्क दे रखा था, सहिष्णुता इसकी दूसरी विशेषता थी।

इधर कुछ सदियों से कारीगरों और प्रबंधकों में मन-मुटाव तथा भेद-भाव होने के कारण इसकी साख गिर गई और वह विदेशियों के हाथ में भी चली गई जिसने इसकी मशीनों को नष्ट करने और उनमें आमूल परिवर्तन करने का प्रयत्न किया। फलत: इसकी उत्पत्ति भी गिर गई तथा इनके स्टेंडर्ड में भी फर्क आ गया। पण्डित जी कहते हैं कि विकासोंमुख भारतीय अर्थनीति की दिशा की ओर संकेत अनेक बार किया जा चुका है। यह निश्चित है कि काफी लंबे अर्से से परागति की ओर जानेवाली व्यवस्था को प्रगति की दिशा में बदलने के लिए प्रयास करने होंगे क्योंकि स्वत: वह ह्रास से विकास की ओर नहीं मुड़ सकती। वास्तव में जब कोई व्यवस्था शिथिल हो जाती है तो उसके सुधार का सामर्थ्य उसमें स्वत:ही जाता रहता है। विकास की शक्तियों का प्रादुर्भाव होने एवं गति देने के लिए योजनापूर्वक प्रयास करने पड़ते हैं। स्वतंत्र देश के शासन के ऊपर स्वाभाविक रूप से यह जिम्मेवारी आती है।
अपने इस दायित्व का निर्वाह करने के लिए योजना और नीतियों के निर्धारण की आवश्यकता होती है। किंतु शासन कई बार ग़लती कर जाता है। वह अर्थ-व्यवस्था को गति देने के स्थान पर स्वयं ही उसका अंग बनकर खड़ा हो जाता है। इस प्रयास में उसे उन लक्ष्यों और उद्देश्यों का भी विस्मरण हो जाता है जिनको लेकर उसने अपने प्रयत्न प्रारंभ किए थे।
अर्थ-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन संपूर्ण जनता के नाम पर ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ के नामाभिधान से तानाशाही रवैये और चाहे वह सही माने में प्रतिनिधि शासन हो, जनता का स्थान नहीं ले सकता। वह जनता का मार्गदर्शन कर सकता है, सहायक बन सकता है, उसका नियंत्रण कर सकता है, आदेश दे सकता है, उसे गुलाम बना सकता है। इनमें से उसे किस रूप में व्यवहार करना है इस पर ही उसकी योजनाओं की मर्यादाएँ और स्वरूप निर्भर करेंगे।
नीति और नियोजन
प्रजातंत्रीय देशों में शासन मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के नियंत्रण आदि से अर्थ-व्यवस्था की गतिविधियों को ठीक रखता है। उनका नियोजन नीति-निधार्रण और बजट आदि तक सीमित रहता है। वे एक-एक क्षेत्र और एक-एक इकाई की गतिविधि की चिन्ता नहीं करते। इसे हम वृहत् आर्थिक नियोजन कह सकते हैं। इसके विपरीत जहाँ छोटे-छोटे लक्ष्यों का निर्धारण तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म आर्थिक गतिविधियों का नियोजन किया जाए उसे अणु-आर्थिक नियोजन कहेंगे। रूस दूसरी तरह की पद्धति का पालन करता है तो अमेरिका और ब्रिटेन पहली का। हमने दोनों का मेल बिठाने की कोशिश की है, किन्तु पूर्ण समाजवाद न होने के कारण दूसरा असफल होता है तो सार्वजनिक क्षेत्र का अत्यधिक विस्तार होने के कारण पहला प्रभावी नहीं हो पाता। इसलिए आवश्यकता है कि शासन अपने हाथ में बहुत ही थोड़े एवं अपरिहार्य उद्योग ले तथा शेष का नियंत्रणों के द्वारा नियमन करता चला जाए।

इन सबके अलावा पण्डित दीनदयाल उपाध्याय सदा इस बात पर ज़ोर देते रहते थे कि ‘सब को काम’ ही भारतीय अर्थनीति का एकमेव मूलाधार है और साथ ही बजट व आगामी योजनाओं को तैयार करते समय प्रयास यह रहें कि सदन में लगभग मतैक्य की स्थिति बने। अपने राज्य की कुशल योजनाओं के निर्माण और समस्त लेखा-जोखों को खंगालने और आगामी नीतियों पर चर्चा के लिए विपक्ष के दृष्टिकोंण को भी राज्य के लिए दक्षिणतम कोने से नज़र डालनी होगी अन्यथा एक राष्ट्र के लिए बनी नीतियाँ जितनी बेमन और मतों के बिखराव के साथ शुरू होती हैं वो अपने गन्तव्य तक पहुंचते-पहुंचते लगभग पूरी तरह से बिखरी हुई ही मिलती है, जिसका परिणाम यह होता है कि हम जहाँ से शुरू हुए थे वहीं पर खड़े नज़र आते हैं और सिवाय अपव्यय के हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता। अतः राष्ट्र के राजनीतिक लेखे-जोखे के लिए यह भी आवश्यक है कि वह सर्वसम्मति से सभी पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए ही बने और इसके लिए सभी को एक राष्ट्र का समर्थन करना चाहिए।

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