अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर…

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speechतनवीर जाफ़री
मानवाधिकारों संबंधित अनेक बिंदुओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी एक प्रमुख बिंदु है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया भी जाना चाहिए। किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का यह एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जहां कहीं लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होती उस व्यवस्था को तानाशाही व्यवस्था माना जाता है। परंतु इसी तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही कभी-कभी पूरे विश्व में ऐसा ‘भूचाल’ पैदा कर देती है जो संभाले नहीं संभलता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज़रूरी है और यह बहुत अच्छी बात भी है। परंतु क्या इस स्वतंत्रता की सीमाएं नहीं होनी चाहिएं? एक प्रचलित कहावत है कि-बेशक आपको सीमाओं के अंदर अपनी छड़ी घुमाने की आज़ादी है परंतु अगर घुमाते समय आपकी छड़ी किसी दूसरे व्यक्ति से टकराने लगे तो आपकी आज़ादी उस सीमा के आगे समाप्त हो जाती है। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भी ऐसी सीमाएं निर्धारित नहीं होनी चाहिए? क्या कोई भी व्यक्ति कोई लेखक,कार्टूनिस्ट,नेता, सामाजिक कार्यकर्ता अथवा कोई अन्य साधारण व्यक्ति क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार के तहत किसी दूसरे को,उसकी भावनाओं को,उसके धर्म अथवा विश्वास को आहत करने या उससे छेड़छाड़ करने के लिए भी स्वतंत्र है? मेरे विचार से अभिव्यक्ति की इस हद तक स्वतंत्रता कतई मुनासिब नहीं है।
आज भारतवर्ष से लेकर दुनिया के कई देशों में इसी विषय को लेकर तूफान बरपा है। डेनमोर्क में ज़ीलेंडस पोस्टेन अख़बार में कभी पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया जाता है तो कभी फ्रांस के चार्ली एब्दो में इसी कारनामे को दोहराया जाता है। कभी अमेरिका में कोई पादरी सार्वजनिक रूप से कुरान शरीफ जलाने जैसे दुस्स्साहस करने की कोशिश करता है। तो कभी भारत में पेंटर मक़बूल फ़िदा हुसैन हिंदू देवियों की नग्र पेंटिग बनाकर हिंदू समाज की भावनाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आहत करते हैं तो कहीं बीफ फेस्टीवल यानी गौमांस खाए जाने जैसी घोषणाएं इसी आज़ादी के नाम पर की जाती हैं। ऐसी घटनाएं दुनिया के कई देशों में अक्सर होती रहती हैं। ज़ाहिर है जब अभिव्यक्ति की इस कथित व असीमित स्वतंत्रता से समाज का कोई वर्ग आहत व प्रभावित होता है तो वह अपने गुस्से को इसी तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रतिक्रिया स्वरूप निकालने की कोशिश करता है। इसका नतीजा क्या होता है यह किसी से छुपा नहीं है। हां ऐसे घटनाक्रमों में यह बात ज़रूर सही है कि ऐसे मौक़ों की ताक में बैठी सांप्रदायिक, कट्टरपंथी व विघटनकारी शक्तियां ऐसे अवसरों का भरपूर लाभ ज़रूर उठाती हैं और ऐसे विषयों को मुद्दा बनाकर आहत समाज के लोगों में मंथन कर समाज में ध्रुवीकरण का प्रयास करती हैं। अक्सर ऐसे हालात काबू से बाहर होते भी देखे जाते हैं। और जब यह मुद्दा व्यापक राजनैतिक रूप धारण कर लेता है तो परिणामस्वरूप बेगुनाह लोग,औरतें,बच्चे व बुज़ुर्ग जिनका न तो अभिव्यक्ति की कथित स्वंतंत्रता प्रकट करने में कोई हाथ होता है न ही यह बेचारे प्रतिक्रियावादी होते हैं परंतु बिगड़ी परिस्थितियों में सबसे अधिक भुगतान इसी वर्ग को करना पड़ता है। और आख़िरकार अभिव्यक्ति की असीमित स्वतंत्रता जब इस क्रिया की प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लेती है उस समय यह पूरी तरह अनियंत्रित हो जाती है।
सलमान रूश्दी एक ऐसे ही विवादित उपन्यासकार का नाम है जिन्होंने अपने उपन्यास सेटेनिक वर्सेस में हज़रत मोहम्मद तथा उनके परिवार के सदस्यों के विषय में कुछ आपत्तिजनक बातें लिखीं। उनके इस विवादित लेखन को सही ठहराने वाले वर्ग द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उनका अधिकार बताया गया। जबकि हज़रत मोहम्मद व उनके परिवार को अपनी आस्था का केंद्र बिंदु समझने वाले मुसिलम जगत द्वारा सलमान रश्दी को इस्लाम के दुश्मन के रूप में देखा जाने लगा। रूश्दी के विरुद्ध मौत का फतवा तक जारी हुआ। रूश्दी को स्कॉटलैंड यार्ड जैसी विश्व की सबसे आधुनिक व मज़बूत सुरक्षा व्यवस्था के घेरे में वर्षों रखा गया। हालांकि सलमान रुश्दी द्वारा अपने इस विवादित उपन्यास में लिखी गई बातों के पक्ष में सफाई भी दी गई परंतु तब तक मुस्लिम समाज की नज़रों में वे मुस्लिम आस्थाओं पर हमला करने वाले एक बड़े अपराधी के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। इसी प्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने भी अपनी विवादित पेंटिग के विषय में स्पष्टीकरण देने की कोशिश की। परंतु उनकी आपत्तिजनक पेंटिंग से आहत हिंदुत्ववादी वर्ग ने उन्हें माफ़ नहीं किया। हुसैन के संस्थानों में तोडफ़ोड़ की गई और उन्हें जान से मारने की धमकी दी गई। आख़िरकार इस विश्वविख्यात पेंटर ने जिसे पदमश्री,पदमभूष्ण और पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नवाज़ा जा चुका था, को भारत छोडक़र कतर की नागरिकता लेनी पड़ी और 9 जून 2011 को 95 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मातृभूमि से दूर लंदन में अपने प्राण त्याग दिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर यदि मकबूल फ़िदा हुसैन ने स्वतंत्रता की सीमाओं को लांघा न होता तो न तो यहां उन्हें अपनी जान का खतरा होता न ही उन्हें अपने वतन की मिट्टी छोड़ किसी दूसरे देश में पनाह लेनी पड़ती। परंतु इन सबके बावजूद अभी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर एक वर्ग ऐसे विवादित विषय की पैरवी करता दिखाई देता है।
हमारे देश में इन दिनों खानपान को लेकर एक बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस विवाद को हवा देने में तथा इसे देश के सबसे प्रमुख मुद्दे के रूप में उछालने के पीछे एक बड़ी राजनैतिक विचारधारा अपने राजनैतिक स्वार्थ को सिद्ध करने की गरज़ से सक्रिय है। किसे क्या खाना चाहिए और किसे क्या नहीं खाना चाहिए निश्चित रूप से यह किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी वस्तु विशेष से नफरत है तो आप उसके सामने या उसे जताकर यह कहें कि हम तो यही खाएंगे या आपको भी यह खाना चाहिए। इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि गौवंश को हिंदू धर्म में आराध्य समझा जाता है। परंतु यह भी सच है कि सदियों से देश के पूर्वोत्तर राज्यों में तथा दक्षिण भारत में केरल सहित कई स्थानों पर गौवंश के मांस का प्रयोग सभी धर्मों के लोगों द्वारा किया जाता है। परंतु यदि गौमांस खाने वालों द्वार यह कहा जाए कि वे इसे सार्वजनिक रूप से खाएंगे अथवा गौवंश का मांस खाने संबंधी प्रदर्शनी आयोजित करेंगे तो इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता बल्कि इसे हिंदू समाज के उस बड़े वर्ग को भडक़ाने तथा उनकी भावनाओं को आहत करने की कार्रवाई ज़रूर कहा जा सकता है जो गौवंश के मांस का सेवन तो करते नहीं हां उसे अपनी आस्था का केंद्र ज़रूर मानते हैं। अब यदि ऐसी कथित स्वतंत्रता के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियां ऐसी कार्रवईयों को रोकने के लिए सडक़ों पर उतरने की घोषणा करें तो यह भी उनकी स्वतंत्रता का ही एक हिस्सा है और उनका अधिकार भी। ऐसे में स्वतंत्रता तथा उसकी प्रतिक्रिया के संघर्ष के परिणामस्वरूप जो भयावह स्थिति पैदा हो सकती है उसका ज़िम्मेदार आख़िर किसे कहा जाएगा?
पूरे विश्व में सुअर का मांस भी बीफ के मांस की ही तहर बड़े पैमाने पर खाया जाता है। परंतु मुस्लिम जगत में सुअर का मांस खाना तो दूर सुअर का नाम लेना यहां तक कि उसे देखना व छूना तक गवारा नहीं किया जाता। इस्लाम में बताई गई हराम वस्तुओं में सुअर को सबसे ऊंचे दर्जे की हराम चीज़ों में माना जाता है। और यदि ऐसे में मुसलमानों को कोई सलाह देने लगे कि आप भी सुअर का मांस खाईए तो देश में आपकी सहिष्णुता प्रदर्शित होगी तो यह सलाह मुसलमानों को निश्चित रूप से नागवार गुज़रेगी। ठीक उसी तरह जैसे गौवंश के प्रेमी हिंदुओं के सामने गौवंश का मांस खाने की बात की जाए या गौवंश को काटने की वकालत की जाए। परंतु पिछले दिनों बंगाल भाजपा के पूर्व अध्यक्ष रहे त्रिपुरा राज्य के राज्यपाल तथागत राय ने कहा कि ‘असहिष्णुता के विरुद्ध लड़ाई को तभी संतुलित किया जा सकता है जबकि मुस्लिम समुदाय के लोग सार्वजनिक रूप से सुअर का मांस खाना शुरु कर दें’। राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा ऐसी सलाह दिया जाना भारतीय मुसलमानों को नागवार गुज़रा। सवाल यह है कि क्या महामहिम राज्यपाल महोदय की इस सलाह को भी उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानकर मुसलमानों को इसकी अनदेखी कर देनी चाहिए थी। ठीक उसी तरह जैसे गौवंश का मांस खाने या गौवंश की हत्या करने अथवा इस विषय की प्रदर्शनी लगाने को इसके पैरोकार अपनी स्वतंत्रता समझते हैं ? ज़ाहिर है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर न तो यह सही है न ही वह। लिहाज़ा यदि देश और दुनिया में अमन-शांति तथा सद्भाव का वातावरण बनाए रखना है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मापदंड व इसकी सीमाएं तो निश्चित रूप से निर्धारित करनी ही होंगी।
तनवीर जाफ़री

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  1. मीडिया पर पश्चिमी राष्ट्रों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव है। वे चतुर है। बड़े सोचे समझे ढंग से चर्च से इतर अन्य धर्मो पर विवाद खड़े करना, सीमाओ को लांध कर निंदा करना, बौद्धिकता के जामें में घृणा भरी बातें करना उनके लिए आम बात है। ऐसे मसलो पर कड़ी प्रतिक्रिया होती है तो मीडिया असहिष्णुता का आरोप लगाता है, शिष्ट प्रतिक्रिया की अनदेखी करता है। ऐसे में ईश निंदा के सम्बन्ध में स्पस्ट कानून आए तो कैसा रहेगा? या इसे मीडिया के विवेक पर छोड़ा जाए।

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