मोदी के भाषण में किसानों का गुस्सा शांत करने की क्षमता

 राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जवाबी भाषण सुनकर मेरी त्वरित प्रतिक्रिया यह हुई कि किसान—आंदोलन का संतोषजनक समाधान संभव है। जिन अफसरों और सलाहकारों ने उनका यह भाषण तैयार करवाया है, वे प्रशंसा के पात्र हैं, क्योंकि यह भाषण सरकार और किसानों के बीच फंसी गांठ को खोल सकता है। उसके कई कारण हैं।

पहला, मोदी अपने भाषणों में अपने विरोधियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए जाने जाते हैं। उनके बरसों पुराने कई कड़वे बोल अभी तक उद्धृत किए जाते हैं लेकिन इस बार उन्होंने संसद में किसान—आंदोलन का जिक्र करते हुए न तो कोई आक्रामक मुद्रा अख्तियार की और न ही किसी प्रकार का अहंकार उनके भाषण में झलका। मोदी के व्यक्तित्व को यह नया आयाम प्रदान करने का श्रेय पंजाब और हरयाणा के किसानों को दिया जा सकता है। इस उदात्तता का लाभ स्वयं मोदी और देश को भी अवश्य मिलेगा।

दूसरा, यह ठीक है कि उन्होंने अपने भाषण में सरकार द्वारा अब तक किसानों को जो सीधे फायदे पहुंचाए गए हैं, उनका जिक्र सिलसिलेवार किया। लेकिन उन्होंने बैंक के कर्ज, फसल बीमा, खाद और सिंचाई की सुविधाओं से देश का छोटा किसान कैसे वंचित रह जाता है, इसका वर्णन आंकड़े देकर किया है। वे यह बताना भूल गए कि देश के सिर्फ छह प्रतिशत किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा उठाते हैं और वे पंजाब, हरयाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश तक सीमित हैं। उन्होंने शायद जानबूझकर ऐसा किया होगा, क्योंकि उनके भाषण में आंदोलनकारी किसानों की ज़रा-भी आलोचना नहीं की गई है।

तीसरा,  मोदी ने यह सावधानी भी बरती कि किसान आंदोलन पर खालिस्तानी और पाकिस्तानी बिल्ला भी नहीं चिपकाया। इसमें संदेह नहीं कि हमारे किसान आंदोलन की आड़ में इन अराष्ट्रीय तत्वों ने ही नहीं, कई अंतरराष्ट्रीय नेताओं और कलाकारों ने भी अपनी रोटियां सेंकी। इन तत्वों के हवाले से कई भाजपा नेताओं ने किसान आंदोलन को बदनाम करने की जो कोशिश की थी, मोदी ने वह गलती भी नहीं दोहराई।

चौथा,  मोदी का भाषण टीवी चैनलों पर करोड़ों साधारण किसानों ने जरुर ध्यान से देखा और सुना होगा लेकिन मालदार किसान नेताओं को जरुर परेशानी हुई होगी। अब उनका किसान आंदोलन अखिल भारतीय बनने की बजाय सिर्फ ढाई प्रांतों तक सिकुड़ गया है। अब वह पंजाब और हरयाणा से खिसककर पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हाथ में चला गया है। अब उसमें संप्रदाय और जाति के तत्व हावी हो गए हैं। दोनो को शांत करने के लिए मोदी ने चौधरी चरणसिंह को अपने पक्ष में उद्धृत किया और सिखों के बलिदान की दुहाई दी।

 पांचवा, मोदी चाहते तो तीनों कृषि-कानूनों की एक-एक धारा के फायदों को संक्षिप्त और सरल भाषा में समझा सकते थे और पिछले 70 साल में कृषि-विशेषज्ञों और अनुभवी किसान नेताओं ने भारत की खेती की चौगुनी वृद्धि के बारे में जो राय दी है, वह भी मोटे तौर पर बता सकते थे लेकिन उन्होंने दुग्ध-क्रांति का ठोस उदाहरण देकर यह समझाया है कि अब कृषि-क्रांति में देर करने का समय नहीं है। संसद के अपने अगले भाषणों में भारत के किसानों के सामने उनके स्वर्णिम भविष्य का विस्तृत नक्शा पेश कर सकते हैं।

छठा,  उन्होंने प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के जमाने में शुरु हुई हरित क्रांति का जिक्र किया और उस दौरान उस पर हुए आक्षेपों की याद दिलाते हुए उन्होंने आज के किसान आंदोलन और असंतोष की उससे तुलना की। वे इंदिरा गांधी की पहल और हिम्मत का भी जिक्र करते तो अच्छा होता लेकिन वे इस मौके का जबर्दस्त फायदा उठाने से नहीं चूके। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के भाषण की, जो खुद किसान नेता रहे हैं, तारीफ की और कांग्रेसी पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को खेती-सुधार पर उद्धृत करके विपक्ष की हवा बिखेर दी। ये दोनों पूर्व प्रधानमंत्री संसद में दत्तचित्र होकर मोदी का भाषण सुन रहे थे। मोदी ने शरद पवार, गुलाम नबी आजाद और रामगोपाल यादव जैसे विपक्षी नेताओं का उल्लेख भी बड़ी चतुराई से करके अपने भाषण की पसंदगी में बढ़ोतरी की।

सातवाँ,  मोदी ने दो-टूक शब्दों में पंजाब, हरयाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के आंदोलनकारी किसानों को आश्वासन दिया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी था, जारी है और जारी रहेगा। इसी तरह मंडी-व्यवस्था भी कायम रहेगी। यह इसलिए कायम रहेगी कि देश के 80 करोड़ कमजोर तबके के लोगों को कम से कम कीमत पर अनाज मुहय्या करवाना सरकार की जिम्मेदारी है। खुले बाजार से ये 80 करोड़ लोग यदि मोटी कीमतें चुकाकर अनाज खरीदेंगे तो क्या वे किसी सरकार को वोट देंगे ? और यदि कोई प्रधानमंत्री संसद में दिए गए अपने वायदे से मुकरेगा तो उसे गद्दी पर कौन टिकने देगा ?

मोदी ने अपने भाषण में विरोधी नेताओं पर कुछ मजेदार व्यंग्य भी किए। उन्होंने एक नया शब्द भी गढ़ा। परजीवी, श्रमजीवी, बुद्धिजीवी की तरह ‘आंदोलनजीवी’! जिन नेताओं के पास करने को कुछ न हो, उनके लिए हर आंदोलन जीने का एक बहाना होता है। विरोधी नेता लोकसभा का सत्र ठीक से चलने देते तो वे किसानों की आपत्तियों को ठीक से गुंजा सकते थे लेकिन वह मौका उन्होंने खो दिया। वे किसानों की बात देश के सामने बहुत बेहतर ढंग से रख सकते थे लेकिन अभी तार टूटा नहीं है। सरकार और किसान नेताओं के बीच सार्थक संवाद की भूमिका आज भी बरकरार है। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने किसान नेताओं से अब तक बहुत धैर्य और शिष्टतापूर्वक बात की है लेकिन स्वयं मोदी उनसे बात करें तो हल जल्दी निकल सकता है।

1 COMMENT

  1. जब तक आंदोलन जीवी वहां सक्रिय हैं तब तक किसी भी वार्ता के होने पर भी शक है और यदि हो गयी तो भी वे लोग कानून वापिस लेने के हठ पर अड़े रहेंगे विपक्ष भी वार्ता सफल नहीं होने पर आमादा है
    अभी तो एक मुद्दा और बीच में आएगा कि २६ जनवरी की घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध मुकदमे वापिस लिए जाएँ और उन्हें जेल से मुक्त किया जाए सरकार के लिए ऐसा मानना मुश्किल होगा और यदि मान लिया तो उसकी किरकिरी भी तय हो जायेगी तथा भविष्य के लिए इस प्रकार की घटनाओं के लिए रास्ते खुल जाएंगे
    अभितो निकट में कोई रास्ता नजर नहीं आता जब तक कि इनमें कोई फूटनहीं पड़ जाती है
    भा ज पा को भी अगले चुनावों में खामियाजा भुगतना पड़ेगा अभी के हालात तो यही कहते हैं जब तक कि कोई नया घटना क्रम न हो जाए

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here