आदिवासी संस्कृति के लिए संकट बना चर्च

हर्षद राठोड

वर्ष 2010 की संयुक्त राष्ट्र संघ की द स्टेट ऑफ द वल्‌र्ड्स इंडीजीनस पीपुल्स नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि मूलवंशी और आदिम जनजातियां पूरे विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर हैं। रिपोर्ट में भारत की चर्चा करते हुए कहा गया है कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास के नाम पर चलाई जा रही परियोजनाओं के कारण उनका विस्थापन हो रहा है। गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी और अशिक्षा के कारण आज आदिवासी समाज अपनी संस्कृति से दूर होता जा रहा है।

परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने आदिवासी समाज को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां से न तो वह अपनी संस्कृति को बचा पा रहा है और न ही आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो पा रहा है। बीच की स्थिति के कारण ही उनके जीवन और संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है। यह सब कुछ उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हुआ है।

पिछले दिनों दिल्ली में विभिन्न राज्यों से आए आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों के चेहरो पर अपनी संस्कृति से लगातार कटते जाने की पीड़ा साफ दिखाई दे रही थी। यह प्रतिनिधि राजधानी में फोरम फॉर सोशल जस्टिस द्वारा आयोजित भारतीय जनजातियों के सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन पर धर्मप्रचार के प्रभाव पर एक जनसुनवाई एवं कार्यशाला में शामिल होने के लिए आए थे। इस जनसुनवाई में देश के बारह राज्यों के सौ से ज्यादा आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों को गुजरात उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश सुरेश सोनी, जस्टिस डीएस तेवतिया, जस्टिस वीके गुप्ता, पूर्व पुलिस आयुक्त केपीएस गिल, पूर्व राजदूत प्रभात शुक्ला साहित 14 सदस्यों की जूरी ने सुना।

भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले जनजातियों के संस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी। जनजातियों की निर्धनता का लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियों ने उनके बीच धर्मातरण का चक्र चलाया। बड़े पैमाने पर इसमें मिशनरियों को सफलता भी प्राप्त हुई। जो जनजातियां ईसाई धर्म की तरफ आकर्षित हुई धीरे-धीरे उनकी दूरी दूसरी जनजातियों से बढ़ती गई और आज हालात ऐसे हो गए हैं कि ईसाई आदिवासियों और गैर ईसाई आदिवासियों में अविश्वास की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। गैर ईसाई आदिवासियों का आरोप है कि ईसाई मिशनरी धन की ताकत से जनजातियों को बांट रहे है। वे उनके मूल प्रतीकों, परंपराओं, संस्कृति और भाषा पर लगातार अघात कर रहे हैं। उग्र-धर्मप्रचार के कारण अब उनमें टकराव भी होने लगा है। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, नागालैंड जैसे राज्यों से आए आदिवासी प्रतिनिधियों ने कहा कि ईसाई मिशनरियों की गैर-जरूरी गतिविधियों के कारण जनजातियों के आपसी सौहार्द को बड़ा खतरा उत्पन्न हो रहा है।

 

ईसाई मिशनरियों पर विदेशी धन के बल पर भारतीय गरीब जनजातियों को ईसाई बनाने के आरोप भी लगते रहे हैं और इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता कि झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा और पूर्वोत्तर के राज्यों में चर्च के अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विभिन्न राज्यों में मिशनरियों की गतिविधियों का विरोध भी बढ़ रहा है और कई स्थानों पर यह हिंसक रूप लेने लगा है। पूर्वोत्तर का सारा क्षेत्र गरीब आदिवासियों एवं पर्वतीय लोगों से भरा हुआ है। धर्मातरण को लेकर इस क्षेत्र में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मिशनरियों के बीच भारी हिंसा हो रही है। स्थानीय कैथोलिक बिशप जोस मुकाला के अनुसार कोहिमा क्षेत्र में प्रोटेस्टेंट ईसाई कैथोलिक ईसाइयों को जोर-जबरदस्ती से प्रोटेस्टेंट बनाने पर तुले हुए है। उनके घर एवं संपत्ति को भी जलाया या बर्बाद किया जा रहा है। कैथोलिक ईसाइयों ने अपनी सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र तक गुहार लगाई है।

 

भारत का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आजादी देता है और उसमें निहित धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है, लेकिन धर्मप्रचार और धर्मातरण के बीच एक लक्ष्मण रेखा भी है। यदि धर्मातरण कराने का उदे्श्य रखने वाले संगठनों को खुली छूट मिल जाए तो राज्य को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। जहां भी अधिक संख्या में धर्मातरण हुए हैं, सामाजिक तनाव भी बढ़ा है। जनजातियों में धर्म परिवर्तन के बढ़ते मामलों के कारण कई राज्यों में शांत ग्रामीण वातावरण तनावग्रस्त हो रहा है। इन घटनाओं ने हिंदू उपदेशकों का ध्यान आकर्षित किया है, जो अब धर्मातरित लोगों के धर्म वापसी के लिए जनजाति क्षेत्रों में पैठ बना रहे हैं। जनजातियों के बीच चर्च अपना साम्राज्य बढ़ाने में लगे हुए हैं। भारत के आदिवासी समुदाय से एकमात्र कार्डिनल आर्चबिशप तिल्सेफर टोप्पो मानते हैं कि जनजातियों के बीच कैथोलिक चर्च अभी शैशव अवस्था में है। चर्च को जनजातियों के बीच आगे बढ़ने और पैठ बनाने की संभावनाएं दिख रही हैं। चर्च को चाहिए कि वह धर्मातरण को संख्या के खेल में न बदलें। कैथोलिक की कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत से भी ज्यादा छोटा नागपुर की जनजातियां हैं। इनमें से अधिकतर की धर्मपरिवर्तन के बाद भी दयनीय स्थिति बनी हुई है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है इस क्षेत्र से महानगरों में घरेलू नौकरानी के रूप में काम करने वाली जनजातीय लड़कियों की बढ़ती संख्या। चर्च के ही एक सर्वे के मुताबिक इनमें से 92 प्रतिशत लड़कियां ईसाई हैं, जबकि गैर-ईसाई जनजाति की लड़कियां दो प्रतिशत से भी कम हैं। जनजातीय क्षेत्रों में धर्मातरण समस्या को सुलझाने के बजाय सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ाकर समस्या को और जटिल बना रहे हैं। इससे उनके सामाजिक, आर्थिक पहलू पीछे छूट रहे हैं।

 

हिंदू धर्म, धर्मातरण नही करवाने वाला धर्म है, परंतु जब इस धर्म के विभिन्न पहलुओं की निंदा करने के लिए बड़े पैमाने पर आयोजन किए जाएं तो इसके अनुयायियों का नाराज होना स्वाभाविक है। जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सगठनों ने कुछ अच्छे प्रयास किए हैं, लेकिन राजनीतिक विवादों के कारण वह सीमित होते जा रहे हैं। जनजातीय क्षेत्रों के विकास की ओर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। हालांकि, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कृषि तथा औद्योगिक उत्पादन से आर्थिक विकास की अपार संभावनाएं हैं। जनजातियों की आबादी भले ही आठ प्रतिशत हो, लेकिन उनके साथ भारतीय समाज का भविष्य भी जुड़ा हुआ है। प्राकृतिक संपदा के दोहन के लिए देशी-विदेशी कंपनियां लगातार सक्रिय हैं। इस संपदा को सुरक्षित रखने के अलावा योजनाबद्ध तरीके से आदिवासी क्षेत्रों का विकास जरूरी है। आज जरूरत जनजातियों की संस्कृति और उनके जीवन को बचाने की है न कि उनका ईसाईकरण करने की। धर्मातरण का आह्वान केवल उन्माद को प्रेरित करेगा जो जनजातियों के अहित में होगा। संस्कृति और समाज की टूटन जनजातियों को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करेगी और उन्हें हिंसक घटनाओं की ओर जाने के लिए भी उकसाएगी।

 

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