संघ को गालियां क्यों ?

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विजय कुमार  

35_09_13_45_Sushilkumar_Shindeकुछ दिन पूर्व गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के बारे में एक बेहूदा बयान दिया है। उनके अनुसार संघ और भाजपा के शिविरों में आतंकवाद का प्रशिक्षण दिया जाता है। इससे पूर्व श्री चिदम्बरम् ने भी गृहमंत्री रहते हुए ‘भगवा आतंकवाद’ का शिगूफा छेड़ा था। राहुल बाबा को भी संघ और सिमी में कोई अंतर नजर नहीं आता।

इन राजनेताओं का चश्मा जाने किस देश और दुकान से बन कर आया है, जो इन्हें सूर्य के प्रकाश में भी सब ओर अंधेरा दिखाई देता है। भारत का इतिहास साक्षी है कि किसी भी संकट की घड़ी में सेना, सरकार, पुलिस और प्रशासन से भी पहले वहां संघ वाले खड़े दिखायी देते हैं। क्या कांग्रेसी अपने काले इतिहास में से खोजकर कोई एक भी उदाहरण ऐसा दे सकते हैं ? यदि नहीं, तो उन्हें देशभक्ति और समाज सेवा के पर्याय संघ को गाली देने का कोई हक नहीं है।

सच तो यह है कि संघ को गाली देना श्री शिंदे या उनके आकाओं की मजबूरी है। केवल श्री शिंदे ही क्यों, मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू आदि भी इसमें पीछे नहीं हैं। इसका एकमात्र कारण मुस्लिम वोट पाने की होड़ है।

भारत के सब दलों और नेताओं को लगता है कि मुस्लिम वोटों के बिना चुनाव जीतना और सत्ता की मलाई खाना असंभव है। भाजपा वाले खुलकर तो यह नहीं कहते; पर मन के किसी कोने में भी यह बात बैठी अवश्य है। इसीलिए व्यापक लोकप्रियता के बावजूद, वे सुशासन और हिन्दुत्व के प्रतीक बन चुके नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने में संकोच कर रहे हैं।

2001 की जनगणना के अनुसार देश में मुसलमानों की जनसंख्या 13.8 करोड़ थी। अनुमान है कि 2011 के आंकड़ों में यह 15 करोड़ हो गयी होगी। इसे ही मुसलमान नेता 25-30 करोड़ बोल कर अपनी कीमत बढ़ाने और दहशत फैलाने का प्रयास करते हैं। एक कटु सत्य यह भी है कि मुसलमान संगठित होकर थोक में वोट डालते हैं, जबकि हिन्दू जाति और क्षेत्र के नाम पर बंट जाते हैं। मुसलमान लोग राजनेताओं की बजाय अपने मजहबी नेताओं पर अधिक विश्वास करते हैं। इससे उनकी वोटनिष्ठा भी रातोंरात बदल जाती है।

कैसा आश्चर्य है कि स्वाधीनता के 65 साल बाद भी मुसलमान वोट देते समय रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और सुव्यवस्था की बजाय मजहब को अधिक महत्व देते हैं। मजहबी नेताओं ने उनके दिमाग पर इतना मजबूत अलीगढ़ी ताला लगा रखा है कि उन्हें नये विचारों के खुले आकाश में सांस लेना अच्छा नहीं लगता।

किसी भी शहर की पुरानी बस्ती में जाकर देखिये, वहां अधिकांश मुसलमान ही मिलेंगे। गत 50 साल में शहर का विकास भले ही दस गुना हो गया हो; पर मुसलमान प्रायः वहीं रहना पसंद करते हैं। कुछ लोग इसका कारण उनकी गरीबी और अशिक्षा को बताते हैं; पर वे यह नहीं बताते कि सैकड़ों साल भारत के विभिन्न भागों में मुस्लिम शासन रहने के बाद भी वे गरीब और अशिक्षित क्यों है ? सरकारी विद्यालयों में शिक्षा तथा दोपहर के भोजन की निःशुल्क व्यवस्था के बावजूद वह उन मदरसों में क्यों जाते हैं, जहां की शिक्षा उनकी बेरोजगारी का मुख्य कारण है।

यह बात समझ में नहीं आती कि शिक्षित, समझदार और युवा मुस्लिम इस बीमार मानसिकता से उबरने का प्रयास क्यों नहीं करते ? वे क्यों उन मजहबी नेताओं और राजनीतिक दलालों के बंधक बने हुए हैं, जो उन्हें ऐसा ही बनाये रखना चाहते हैं। मुस्लिम युवक जिस दिन इनके विरुद्ध उठ खड़े होंगे, उस दिन उनकी उन्नति तो होगी ही, देश की उन्नति में उनका योगदान भी रेखांकित होने लगेगा।

मुस्लिम वोटों के इस दुष्चक्र को तोड़ने के दो मार्ग हैं। पहला तो यह कि हिन्दू लोग जाति, भाषा, पंथ और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद को पुष्ट करने वाले दलों का समर्थन करें। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के समय ऐसा ही हुआ था। इसके कारण केन्द्र और कई राज्यों में सरकारें बदली थीं; पर जैसे ही वातावरण ठंडा हुआ, पतनाला फिर वहीं गिरने लगा।

पिछले दिनों गुजरात में हुआ विधानसभा चुनाव इसका ताजा और सटीक उदाहरण है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा शासन ने विकास, शांति और सुशासन की जो गंगा बहाई, उसके कारण लोगों ने जाति, क्षेत्र और मजहबवाद से ऊपर उठकर उनके पक्ष में मतदान किया। इससे न केवल बाहरी, बल्कि अंदर से भी उन्हें पराजित देखने के इच्छुक लोगों को मुंह की खानी पड़ी।

कहते हैं कि दीवार पर बनी किसी रेखा को छोटा करने के लिए उसे मिटाने की बजाय उसके बगल में एक बड़ी रेखा खींच देना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। ऐसे ही राष्ट्रवाद की प्रबल आंधी चलाने से सब विभेद स्वयं दूर हो सकते हैं; पर यह काम आसान नहीं है। चूंकि देश और विदेश में बैठी शक्तियां ऐसे लोगों और संगठनों को ही बदनाम करने का षड्यन्त्र रच रही हैं। सुशील कुमार शिंदे और चिदम्बरम् इनमें से किसके अनुयायी हैं, यह खोज का विषय है।

कई लोग चुनाव में दल की बजाय प्रत्याशी के निजी रूप से अच्छा या खराब होने की बात कहते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि प्रत्याशी भले ही कितना अच्छा हो; पर संसद और विधानसभा में उसे अपने दल की इच्छा के अनुसार ही मतदान करना पड़ता है। इसलिए गठबंधन राजनीति के युग में प्रत्याशी से अधिक महत्व उसके दल और नेता का हो गया है।

दूसरा मार्ग यह है कि लोकतंत्र और संसदीय प्रक्रिया के अन्तर्गत चुनाव प्रणाली में ऐसा परिवर्तन हो, जिससे मजहब, जाति, क्षेत्र तथा भाषा के नाम पर विभेद पैदा करने वाले दल तथा धन और बाहुबल के आधार पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी महत्वहीन हो जाएं।

लेकिन वर्तमान परिदृश्य तो इसके ठीक विपरीत है। आज तो अधिकांश दल चुनाव में प्रत्याशियों का चयन करते समय सबसे पहले उनकी जाति, वंश, मजहब, धन और बाहुबल का आकलन करते हैं। उनके लिए प्रत्याशी का चरित्र या विचारधारा नहीं, जीतने की क्षमता सबसे अधिक महत्व रखती है। इसीलिए सदनों में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ रही है तथा सम्पूर्ण चुनाव व्यवस्था भ्रष्ट होकर चरमरा रही है।

‘सूची प्रणाली’ को अपना कर देश इस दुष्चक्र से बाहर निकल सकता है। इसलिए चुनाव व्यवस्था में सुधार के लिए विद्वानों द्वारा दिये जा रहे सुझावों पर व्यापक विचार विमर्श तथा यथाशीघ्र कुछ निर्णय भी होना चाहिए।

जहां तक संघ को गाली देने की बात है, तो सार्वजनिक रूप से ऐसा करने वाले भी अकेले में संघ की प्रशंसा ही करते हैं। वे भी चाहते हैं कि उनके क्षेत्र में संघ की शाखा खुले। सरस्वती शिशु मंदिर या स्वयंसेवकों द्वारा संचालित कोई सेवा प्रकल्प चले, जिससे वहां के बच्चे अनुशासित, देशप्रेमी और चरित्रवान बनें।

बड़ी संख्या में कांग्रेस और अन्य दलों को वोट देने वाले लोग इन प्रकल्पों के लिए भूमि और धन देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि संघ अच्छे लोगों का संगठन है। संघ के स्वयंसेवक अपने पड़ोसी के दुख-सुख में परिवार के सदस्य की तरह सहभागी होते हैं। किसी राजनीतिक मजबूरी में दूसरे पाले में जा चुके हजारों लोग भी अपने पूजाघर में छोटा सा भगवा ध्वज लगाये रखते हैं और स्नान के बाद अन्य देवी-देवताओं की वंदना के साथ ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ भी बोल लेते हैं।

सच तो यह है कि संघ बढ़ रहा है, इसीलिए उसे गाली मिल रही हैं। जिस दिन गाली बंद हो जाएंगी, तब उसे अपने बारे में सोचना पड़ेगा। स्वामी विवेकानंद के अनुसार किसी भी विचारधारा को तीन श्रेणियों में से होकर निकलना पड़ता है। ये हैं उपेक्षा, विरोध और समर्थन। 1925 से 1975, अर्थात पहले 50 वर्ष तक संघ की उपेक्षा और विरोध का दौर था। अब 50 वर्षीय विरोध और समर्थन का दूसरा दौर है। 2025 में संघ की शताब्दी के साथ ही समर्थन से लेकर विरोधियों द्वारा समर्पण तक का तीसरा दौर चल निकलेगा।

देश में संघ के अतिरिक्त भी सैकड़ों संस्थाएं हैं। उनमें से कई ने आजादी से पूर्व देश के सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक वातावरण को बदलने में व्यापक भूमिका निभाई है; पर आज वे मृतप्रायः हैं। कहीं कुर्सी की लड़ाई है, तो कहीं भवनों की। इसलिए उन्हें कोई गाली नहीं देता। आजादी के बाद भी ऐसी कई संस्थाएं बनी और बढ़ी हैं; पर वे प्रायः सत्ता के साथ ही चलना पसंद करती हैं। इसलिए उन्हें भी कोई गाली नहीं देता; पर संघ को लोग गाली देते हैं, क्योंकि वह सत्ता चाहे जिस दल की भी हो, उसकी जेब में नहीं रहता।

बाबा रामदेव का उदाहरण लें। जब तक वे योग शिविरों तक सीमित रहे, तब तक उनके मंचों पर जाकर सभी दलों के राजनेता उनकी प्रशंसा करते रहे; पर जब उन्होंने काले धन से चल रही भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने की बात कही, तो कांग्रेस शासन ने उन पर आधी रात में लाठियां चलवा दीं। सत्ता से टकराएंगे, तो गाली और लाठी पड़ेंगी ही; और सत्ता से वही टकराता है, जिसमें दम होता है।

संघ की बाहों में दम है, इसलिए वह भ्रष्ट और वंशवादी राजनीतिक व्यवस्था से टकरा रहा है। संघ को मिलने वाली गालियां देशभक्तों के लिए उपहार हैं। इसलिए इनसे भयभीत हुए बिना, हिन्दू संगठन के माध्यम से देश को सबल बनाने का काम करते रहना ही वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

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