आचार्य चाणक्य की छः सूत्रीय विदेश नीति और मोदी सरकार

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डॉ॰ राकेश कुमार आर्य

”अपनी नीति तो अपनाओ, लेकिन शत्रु की युद्ध नीति को समझना भी उतना ही आवश्यक है। युद्ध में अपने शत्रु की भान्ति सोचना भी आवश्यक है। जो भी नीति हो, उसे गुप्त रखो। उसे केवल अपने कुछ विश्वासपात्र सहयोगियों को बताओ। अच्छे के लिए सोचो, पर बुरे से बुरे के लिए भी उद्यत रहो।” – यह कथन है महामती चाणक्य का । जिसके आदर्श व्यावहारिक, राजनीतिक, कूटनीतिक चिन्तन का यह विश्व लोहा मानता है और जिसके विषय में निस्सन्देह यह कहा जा सकता है कि उसके कालजयी राजनीतिक व कूटनीतिक सूत्र हमारा आज भी मार्गदर्शन कर रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे।

यह बहुत ही दु:खद है कि चाणक्य जैसा महान कूटनीतिज्ञ जिस भारत देश में हुआ उसी देश में उसके विचारों की उपेक्षा की जाती है , जबकि विदेशों में उसे कहीं अधिक सम्मान दिया जाता है । चाणक्य ने राजनीति के ऐसे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था जो कालजयी हैं । ये सिद्धांत उतने ही मननीय, विचारणीय और ग्रहणीय आज भी हैं जितने उसके जीवन-काल में थे । हमारा मानना है कि जब तक सृष्टि रहेगी तब तक भारत के महान तपस्वी और राजनीतिक मनीषी महामति चाणक्य के ये विचार मानवता की सेवा करते हुए राजनीति का मार्गदर्शन करते रहेंगे ।
महामती चाणक्य ने हमें परामर्श दिया है कि शत्रु को जहाँ से भी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्ति प्राप्त हो रही है, उस स्रोत को शत्रु तक पहुँचने से पहले ही मिटा दो। सही समय की प्रतीक्षा करो। जब शत्रु पूर्णरूपेण दुर्बल हो तब उस पर (उसके शत्रु, जो कि अब आपका मित्र है) मिलकर आक्रमण कर दो। इस प्रकार के हमले के उपरान्त शत्रु पूर्णतः अचम्भित हो जाएगा और आपसे प्रतिशोध लेने में भी सक्षम नहीं होगा।
चाणक्य अथवा कौटिल्य ने विदेश नीति सम्बन्धी छः प्रकार की नीतियों का उल्लेख किया है :-
(1) सन्धि :- विदेश नीति में संधि शब्द का बहुत अधिक महत्व है । चाणक्य के कथनानुसार शान्ति बनाए रखने हेतु समतुल्य या अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृष्टि से शत्रु से भी सन्धि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्रु को कालान्तर में निर्बल बनाना है। भारतीय राजनीतिक चिन्तन और परम्परा में शत्रु वह है जो हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व को समाप्त करने के षड़यन्त्रों में या किसी भी प्रकार से मानवीय मूल्यों का हनन करने और मानवता का विनाश करने की योजनाओं में संलिप्त रहता है। चाणक्य का मत है कि संधि समतुल्य या शक्तिशाली राजा के साथ ही की जाती है।
यदि शत्रु शक्तिशाली है तो उससे संधि कर लेने में ही लाभ है । यद्यपि चाणक्य के इस कथन का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि शक्तिशाली शत्रु के सामने आप आत्महीनतावश सदा पूँछ हिलाते रहें। सन्धि करने से उसका अभिप्राय केवल इतना है कि देश, काल व परिस्थिति के अनुसार यदि कुछ समय के लिए शक्तिशाली राजा को या देश को इस भ्रम में डाला जा सकता है कि हम उससे सन्धि करना ही अपने लिए लाभकारी मानते हैं तो ऐसा कर लिया जाना चाहिए। समय आने पर अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहिए और फिर उसकी दानवता का प्रतिकार करना चाहिए।
चाणक्य नीति के इसी गुर को अपनाकर शिवाजी महाराज ने यदि एक समय मुगलों से संधि की तो समय आने पर स्वयं ही उस संधि को तोड़ दिया। यह उन्होंने तब किया जब उन्होंने भरपूर शक्ति का संचय कर लिया था।
(2) विग्रह या शत्रु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण। जब कोई शत्रु देश हमारे आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगता है और हमारी आन्तरिक शान्ति को भंग करने का प्रयास करने लगता है, तब उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना अनिवार्य हो जाता है। यह तब और भी अधिक आवश्यक हो जाता है जब कोई शत्रु हमारी सीमाओं को तोड़कर हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को चुनौती देता है या हमारे पौरुष और शौर्य की परीक्षा लेने के लिए हमारे समक्ष खड़ा होकर जंघाओं में हाथ मारता है।
महामती चाणक्य का कथन है कि ऋण, शत्रु और रोग को समय रहते ही समाप्त कर देना चाहिए। जब तक शरीर स्वस्थ और आपके नियंत्रण में है, उस समय आत्मसाक्षात्कार के लिए उपाय अवश्य ही कर लेना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के पश्चात कोई कुछ भी नहीं कर सकता।
-बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है। हाथी और पैदल सेना का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। उसमें पैदल सेना के ही कुचले जाने की आशंका रहती है। अत: युद्ध बराबरी वालों से ही करना चाहिए।…युद्ध के सही समय की प्रतीक्षा करना ही उचित है।
भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही युद्ध को अन्तिम विकल्प माना है , क्योंकि युद्ध से सदा ही शान्ति की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । ऐसा भी देखा गया है कि युद्ध आपत्तियों को आमंत्रित करने की एक ऐसी श्रंखला है, जिससे मानवता का विनाश होता है। इतना ही नहीं, बार-बार के युद्ध से मनुष्य की मति भंग हो जाती है और वह सात्विक क्रोध को त्यागकर और तामसिक क्रोध को अपनाकर दानवीय वृत्तियों के अधीन होकर मानवता का नरसंहार करने का कार्य करने लगता है। इससे अशिक्षा , अविद्या और अज्ञान को बढ़ावा मिलता है । क्योंकि तब मानवीय शक्तियां सृजनात्मक क्षेत्र में काम न करके विनाशात्मक दिशा में कार्य करने लगती हैं ।यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने युद्ध को अत्यंत आवश्यक परिस्थितियों में ही उचित माना है।
(3) यान या युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी। शत्रु को अपने प्रति सदा संशय में डाले रखना चाहिए । उसे हमारे राष्ट्र की किसी भी दुर्बलता का ज्ञान नहीं होना चाहिए । मनोवैज्ञानिक दबाव उस पर बना रहना चाहिए । यदि उसके समक्ष हमने अपनी दुर्बलताओं को दिखाने का तनिक सा भी प्रयास किया तो परिणाम वही होगा जो 1962 में चीन ने हमारे साथ किया था।उस समय भारत के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने चीन की शत्रुतापूर्ण साम्राज्यवादी और विस्तार वादी नीतियों के प्रति असावधानी बरतकर उसे अपनी अहिंसात्मक रक्षा नीति की दुर्बलता बता दी थी । जिसका परिणाम यह हुआ कि चीन ने भारत पर हमला किया और उस समय हमें अपने राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा बरती गई असावधानी का भारी मूल्य चुकाना पड़ा।
शत्रु देश को दिखाने के लिए हम सीमाओं पर युद्धाभ्यास करते रहें। इससे शत्रु कभी भी हम पर आक्रमण करने के बारे में विचार नहीं करेगा और हमारी दुर्बलताओं को न समझकर हमें सबल और सक्षम राष्ट्र के रूप में देखता रहेगा। भारत की इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए आज भी संसार के सभी देश युद्धाभ्यास करते रहते हैं । इससे उनके शत्रु देशों को उनकी ओर देखने का साहस नहीं होता। अतः जब कहीं आप किसी देश के द्वारा युद्धाभ्यास होते हुए देखें या उसका समाचार सुनें या पढ़ें तो समझ लेना चाहिए कि वह देश चाणक्य नीति के अनुसार अपना सैनिक अभ्यास कर रहा है।
चाणक्य का कहना है कि शक्तिशाली राष्ट्र की कामना के लिए राजा शक्तिशाली होना चाहिए, तभी राष्ट्र उन्नति करता है। राजा की शक्ति के 3 प्रमुख स्रोत हैं- मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक। मानसिक शक्ति उसे सही निर्णय के लिए प्रेरित करती है, शारीरिक शक्ति युद्ध में वरीयता प्रदान करती है और आध्यात्मिक शक्ति उसे ऊर्जा देती है, प्रजाहित में काम करने की प्रेरणा देती है। कमजोर और विलासी प्रवृत्ति के राजा शक्तिशाली राजा से डरते हैं।
(4) आसन या तटस्थता की नीति – यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान का युद्ध होने लगे तो हमें ऐसी स्थिति में तटस्थता बरतनी चाहिए। ऐसी नीति हमें तब अपनानी चाहिए जब युद्ध करने वाले दोनों ही देश हमारे शत्रु हों। इससे दोनों ही शत्रुओं की शक्ति का पराभव होगा। यह भी निश्चित है कि एक देश तो निश्चय ही दुर्बल हो जाएगा या टूट जाएगा।
(5) संश्रय अर्थात् आत्मरक्षा की दृष्टि से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शत्रु देश हम पर अचानक हमला कर देता है। तब उससे युद्ध के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय हमारे पास उपलब्ध नहीं होता । ऐसी स्थिति में एक ही विकल्प रह जाता है कि उस देश के अतिरिक्त जो देश हमारे मित्र हैं या आक्रमण करने वाले देश के शत्रु हैं ,हमें उनसे सामरिक संधि करनी चाहिए और उनका साथ लेकर ऐसे आक्रमणकारी शत्रु का सामना करना चाहिए। अपनी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बचाए और बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाना नैतिक रूप से उचित माना जाता है। जैसा कि हम वर्तमान समय में देख रहे हैं, जब चीन अपने सैनिकों को हमारी सीमा पर भेज रहा है और सीमा पर युद्ध की सम्भावना प्रबल होती जा रही हैं। ऐसे में भारत की विदेश नीति चाणक्य के इसी सूत्र का लाभ उठाते हुए संसार में अपने मित्रों को खोज रही है। इस समय हम यह भी देख रहे हैं कि भारत के साथ बड़ी संख्या में वैश्विक शक्तियां एकत्र होती जा रही हैं।
इसे चाणक्य नीति की सफलता ही मानना चाहिए कि जितनी बड़ी संख्या में वैश्विक शक्तियां भारत का सामरिक सहयोग करने की तैयारी कर रही हैं, उतने ही अनुपात में चीन हमारी ओर बढ़ने में भय अनुभव कर रहा है। पिछले दिनों चीन के द्वारा कुछ सैनिक भारत की सीमाओं पर तैनाती के लिए जब गाड़ियों में लादकर भेजे गए तो गाड़ियों में बैठे हुए चीनी सैनिक भारत के भय के कारण रो रहे थे । क्योंकि उन्हें यह आभास हो रहा था कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है , आज के भारत के साथ वैश्विक शक्तियां जुड़ती जा रही हैं और यदि इस बार युद्ध हुआ तो चीन को युद्ध का भारी मूल्य चुकाना पड़ सकता है । यही कारण है कि चीन के सैनिकों को ऐसा आभास हो रहा है कि हम संभवत: इस युद्ध में मारे जाएंगे।
(6) द्वैधीभाव अर्थात् एक राजा से शान्ति की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति। इस नीति को हम भारत रूस संबंधों के माध्यम से समझ सकते हैं । भारत के प्रति रूस का मित्रता पूर्ण दृष्टिकोण सारा संसार जानता है । भारत रूस की सामरिक संधि के चलते भारत को कभी भी रूप से किसी प्रकार का खतरा नहीं रहा है। रूस ने अपनी मित्रता को न केवल भारत रूस के द्वीपक्षीय सम्बन्धों के विषय में निभाया है, बल्कि उसने संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंचों पर भी भारत का साथ देकर अपनी सच्ची मित्रता का प्रमाण प्रस्तुत किया है। भारत ने रूस से सामरिक संधि करके भारत ने चीन को यह संदेश दिया है कि वह अपनी क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए उस से युद्ध करने को तैयार है। भारत रूस की मित्रता और सामरिक संधि को समझकर चीन भी भारत पर हमला करने से पहले 10 बार सोचेगा । भारत इस समय चीन से युद्ध करने के लिए तैयार है, क्योंकि वह जानता है कि चीन इस समय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने आपको अकेला अनुभव कर रहा है।
भारत चाणक्य नीति के इसी सूत्र को अपनाकर वैश्विक शक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित कर चीन से 1962 का बदला लेने के लिए तैयार है । यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय शान्ति को बनाए रखने के अपने महान दायित्व का निर्वाह करने के दृष्टिगत भारत अभी भी इसी प्रतीक्षा में है कि चीन ही युद्ध का आरम्भ करे तो अच्छा रहेगा।
कौटिल्य ने विदेश नीति के सन्दर्भ में साम,दाम , दण्ड और भेद की नीति का भी प्रतिपादन किया है। कौटिल्य का मानना है कि साम और दाम की नीति को सबल राजा के प्रति दुर्बल राजा द्वारा अपनाया जाना चाहिए । साम का अभिप्राय है कि समझा-बुझाकर किसी भी प्रकार से दुर्बल राजा सबल राजा से अपने देश और अपनी प्रजा की रक्षा करता रहे। जबकि दाम का अर्थ है कि किसी भी प्रकार समझा-बुझाकर धन आदि देकर दुर्बल राजा सबल राजा को संतुष्ट रखे और अपने देश व अपनी प्रजा की रक्षा करता रहे।
कौटिल्य के उपरोक्त कथन का एक अर्थ यह भी है कि जब मित्रता दिखाने (साम) की आवश्यकता हो तो आकर्षक उपहार, आतिथ्य, समरसता और सम्बन्ध बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए जिससे दूसरे पक्ष में विश्वास पैदा हो। शक्ति प्रयोग, दुश्मन के घर में आग लगाने की योजना, उसकी सेना और अधिकारियों में फूट डालना, उसके निकट के सम्बन्धियों और उच्च पदों पर स्थित कुछ लोगों को प्रलोभन देकर अपनी ओर खींचना कूटनीति के अंग हैं।
दुर्बल देशों के राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे अपने पड़ोसी सबल देश से किसी भी प्रकार मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाए रखें । यदि छोटे देश या छोटे राजा अपने पड़ोसी सबल राष्ट्र को तोड़ने की या उसे किसी भी प्रकार से आहत करने की चेष्टा में सम्मिलित होंगे या ऐसे षड़यंत्र को हवा देंगे तो निश्चय ही उनका अपना अस्तित्व मिट जाएगा । वर्तमान सन्दर्भ में हम नेपाल को देख सकते हैं। नेपाल हमारा बहुत पुराना पड़ोसी देश है , परन्तु वर्तमान में वह चीन के हाथों खेल रहा है। अब चीन जैसे पड़ोसी और साम्राज्यवादी देश के हाथों में खेलकर वह अपनी स्वयं की ही हानि कर रहा है।
चाणक्य की मान्यता है कि शत्रु को कभी भी स्वयं से दुर्बल मत समझो। शत्रु चाहे कैसा भी और कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, पर उसे अपने विवेक का प्रयोग करके हराया जा सकता है। शत्रु के मित्र को अपना मित्र बना लो जिससे कि वह आपको हानि न पहुंचा पाए और उसके शत्रु को भी अपना मित्र बना लो जिससे कि हमारे किए हुए प्रहार की शक्ति दोगुनी हो जाए।
महामती चाणक्य का मत है कि दण्ड और भेद जैसी नीतियों को सबल राष्ट्रों के द्वारा अपनाया जाना चाहिए। यदि कोई परराष्ट्र हमारे भीतरी मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है या हमारी एकता और अखण्डता को छिन्न -भिन्न करने की योजना में सम्मिलित है तो ऐसे उत्पाती पड़ोसी शत्रु देश पर हमला करके उसे दण्डित करना सबल राष्ट्र का कार्य है। ऐसे पड़ोसी शत्रु देश के प्रति सबल राष्ट्र को भेद के माध्यम से भी उचित मार्ग पर लाने का अधिकार है । इसका अभिप्राय है कि यदि आज महामति चाणक्य होते तो वे पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश को युद्ध के माध्यम से दंडित करने की नीति अपनाते । क्योंकि पाकिस्तान भारत की एकता और अखण्डता के लिए पहले दिन से एक खतरा बना हुआ है । वह नित्य प्रति ऐसे षड़यंत्र में लगा रहता है जिससे भारत की एकता और अखण्डता नष्ट हो जाए ।इसके उपरान्त भी भारत का नेतृत्व पाकिस्तान को ‘छोटा भाई’ कहकर क्षमा करने की आत्मघाती नीति का पालन करता रहा है ।चाणक्य के रहते ऐसी नीति को प्राथमिकता न देकर शत्रु पाकिस्तान को दण्ड और भेद के माध्यम से सही मार्ग पर लाने का प्रबंध किया जाता ।
चाणक्य का विचार है कि विदेश नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे राष्ट्र का हित सबसे ऊपर हो, देश शक्तिशाली हो, उसकी सीमाएं और साधन बढ़ें, शत्रु कमजोर हो और प्रजा की भलाई हो। ऐसी नीति के 6 प्रमुख अंग हैं- संधि (समझौता), समन्वय (मित्रता), द्वैदीभाव (दुहरी नीति), आसन (ठहराव), यान (युद्ध की तैयारी) एवं विग्रह (कूटनीतिक युद्ध)। युद्धभूमि में लड़ाई अंतिम स्थिति है जिसका निर्णय अपनी और शत्रु की शक्ति को तौलकर ही करनी चाहिए। देशहित में संधि तोड़ देना भी विदेश नीति का हिस्सा होता है।
विदेश नीति को सफल बनाने के लिए गुप्तचर व्यवस्था का शक्तिशाली होना भी बहुत आवश्यक है। इस संबंध में कौटिल्य का विचार है कि कौटिल्य ने गुप्तचरों के प्रकारों व कार्यों का विस्तार से वर्णन किया है। गुप्तचर विद्यार्थी गृहपति, तपस्वी, व्यापारी तथा विष -कन्याओं के रूप में हो सकते थे। राजदूत भी गुप्तचर की भूमिका निभाते थे। इनका कार्य देश-विदेश की गुप्त सूचनाएँ राजा तक पहुँचाना होता था। ये जनमत की स्थिति का आंकलन करने, विद्रोहियों पर नियंत्रण रखने तथा शत्रु राज्य को नष्ट करने में योगदान देते थे। कौटिल्य ने गुप्तचरों को राजा द्वारा धन व मान देकर सन्तुष्ट रखने का सुझाव दिया है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विजिगीषु को युद्ध या शांति का निर्णय अपनी और शत्रु की शक्ति का सही अनुमान करके करना चाहिए। यदि युद्ध से लाभ दिखायी नहीं देता तो शान्ति लाभदायक है। अपने शत्रु से अधिक शक्तिशाली राजा के साथ सन्धि लाभप्रद होती है। इसके लिए शक्तिशाली राजा से अच्छे सम्बन्ध रखने के लिए हरसम्भव प्रयत्न करना चाहिए।
-विजिगीषु (विजय की आकांक्षा रखने वाला) के शत्रु दो प्रकार के होते हैं। एक तो स्वाभाविक शत्रु होता है, जो बराबर की शक्ति रखता है और जिसकी सीमाएं देश से लगी हुई हैं। दूसरा काल्पनिक शत्रु है, जो इतना शक्तिशाली नहीं है कि युद्ध करके जीत जाए किंतु शत्रुता का भाव रखता है। शत्रुओं से मित्रता का प्रयास करता है। कुछ राजाओं से मित्रता विशेष कारणों से की जा सकती है जिससे अपने देश का लाभ हो या व्यापार और सैन्य शक्ति बढ़ाने में कुछ पड़ोसी राज्य ऐसे भी हो सकते हैं जिनके सिर पर शत्रुओं की तलवार लटकती रहती है। जो शक्तिहीन हैं, उन्हें वसल की संज्ञा दी गई है।
कौटिल्य के इस प्रकार के चिन्तन से स्पष्ट है कि उसके विचार आज की राजनीति के लिए भी मार्गदर्शक हैं। भारत की सरकारों को आचार्य चाणक्य के विचारों को अक्षरश: भारतीय राजनीति के मार्गदर्शक सूत्रों के रूप में मान्यता प्रदान करनी चाहिए । यह हम सबके लिए प्रसन्नता का विषय है कि भारत की वर्तमान मोदी सरकार आचार्य चाणक्य के दिए सूत्रों के अनुसार भारत के हितों को प्राथमिकता देकर अपनी विदेश नीति का निर्धारण कर रही है। इसके साथ – साथ मोदी सरकार भारत से शत्रुता रखने वाले देशों या भीतरी संगठनों से भी उसी कठोरता से निपटने का संकेत दे रही है, जैसा उसे आचार्य चाणक्य ने सुझाया है।

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