आखिर क्या है अराजकता का मापदंड?

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-तनवीर जाफरी-  aap
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गत् 20-21 जनवरी को अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों तथा आम आदमी पार्टी के विधायकों के साथ नई दिल्ली में रेल भवन के पास दिल्ली पुलिस के विरुद्ध धरने पर बैठे। इन दो दिनों में जहां केजरीवाल के धरने को लेकर तरह-तरह के विचार व्यक्त किए गए, वहीं इन प्रतिक्रियाओं में सबसे अधिक चर्चित शब्द जो केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के मुंह से सर्वप्रथम निकला, वह था ‘एनार्की’ अथवा ‘अराजकता फैलाना’। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के धरने से केजरीवाल अराजकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। शिंदे ने जिस शब्द का प्रयोग किया था, उसके कई अर्थ हैं। इनमें अराजकता, विधि व शासनहीनता अथवा एक ऐसा समाज जिसमें शासन तथा कानून अनावश्यक होने के कारण हटा दिए जाएं जैसा अनुवाद मुख्य है। अब इस ‘एनार्की’ अथवा ‘अराजकता फैलाना’ के परिपेक्ष्य में यदि हम केजरीवाल व उनके सहयोगियों के धरने पर नज़र डालें तो हमें विधिहीनता तथा शासनहीनता के संदर्भ में केवल एक ही बात नज़र आती है और वह है- अरविंद केजरीवाल व उनके साथियों द्वारा संसद भवन क्षेत्र में लगाई धारा 144 को तोड़ा जाना। देश में प्रदर्शनकारियों द्वारा धारा 144 का उल्लंघन करना भी कोई नई बात नहीं है। इस आरोप में केजरीवाल व उनके कई सहयोगियों के विरुद्ध पुलिस द्वारा मुकदमा भी दर्ज किया जा चुका है। इसे यदि हम दूसरी नज़र से देखें तो हमें यह भी दिखाई दे सकता है कि अरविंद केजरीवाल ने कानून व शासन का स मान करते हुए ही दिल्ली पुलिस के रोकने पर गृहमंत्री के कार्यालय तक जाने का अपना इरादा बदला और इसी कारण वे पूरे लोकतांत्रिक तरीके से रेलभवन के पास धरने पर बैठ गए। पुलिस बल भी इन दो दिनों तक ‘आप’ कार्यकर्ताओं व नेताओं को नियंत्रित करने में पूरी तरह सफल रहा। हल्की-फुल्की अप्रिय घटनाओं के अतिरिक्त कोई बड़ा हादसा जनता व पुलिस बलों की रस्साकशी के बीच घटित नहीं हुआ, परंतु इस घटनाक्रम को न केवल गृहमंत्री ने बल्कि उनके कहने के पश्चात् और भी कई दलों के नेताओं यहां तक कि मीडिया ने भी केजरीवाल को अराजकता फैलाने वाला बताकर इस तरह कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की, गोया देश का सबसे बड़ा राष्ट्रद्रोही व्यक्ति अरविंद केजरीवाल ही है।
ऐसे में यह ज़रूरी है कि देश की जनता स्वयं इस बात का फैसला करे कि ‘एनार्की’ अथवा ‘अराजकता’ इस देश में कब-कब फैली है, किसके द्वारा फैलाई गई है और उस वास्तविक अराजकता को फैलाने के जि़म्मेदार आखिर हैं कौन? भारतवर्ष में 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली सहित देश में कई स्थानों पर सिख विरोधी हिंसा का तांडव देखा गया। इसमें सैकड़ों सिख जि़ंदा जला दिए गए। उनकी करोड़ों की संपत्ति लूट ली गई। यह उपद्रव सबसे अधिक देश ही राजधानी दिल्ली में केंद्र सरकार की नाक के नीचे तथा ‘योग्य’ कहे जाने वाली दिल्ली पुलिस की आंखों के सामने घटित हुआ। दिल्ली में तीन दिनों तक जैसे कानून का राज ही नहीं था। चारों ओर धुएं के काले बादल उठते दिखाई दे रहे थे। इस घटनाक्रम की तुलना यदि केजरीवाल के धरने से की जाए तो इसमें अराजकतापूर्ण वातावरण किसे कहेंगे और कौन था इसका जि़म्मेदार? यह फैसला देश की जनता स्वयं कर सकती है। अब नज़र डालिए 1992 की अयोध्या घटना पर। 5 दिसंबर को देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ में कारसेवकों की भीड़ को संबोधित करते हुए बड़े ही रहस्य व व्यंग्यात्मक लहजे में फरमाते हैं कि ‘कल अयोध्या में क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता’। उधर तत्कालीन उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार अदालत में विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे की रक्षा का हलफनामा भी देती है। उसके बावजूद लाखों लोग उत्तर प्रदेश सरकार के संरक्षण व उसकी रज़ामंदी से अयोध्या पहुंच जाते हैं। दो दिनों तक पूरे अयोध्या पर भगवाधारियों का राज हो जाता है। अदालत में मामला विचाराधीन होने के बावजूद विवादित ढांचे को गिरा दिया जाता है। पुलिस, अर्धसैनिक बल सब तमाशाई बने रहते हैं। अब ज़रा इस घटना की तुलना भी केजरीवाल के धरने से कीजिए और खुद देखिए कि ‘अराजकता’ का वातावरण कहां उत्पन्न हुआ और देश के कौन-कौन से तथाकथित राष्ट्रभक्त इस महाअराजकतापूर्ण घटना के लिए जि़म्मेदार थे? इस घटना के पश्चात देश में दर्जनों शहरों में दंगों की आग भड़क़ उठी। हर जगह अराजकता ही अराजकता नज़र आई।
इसी प्रकार 2002 में गुजरात के गोधरा कांड में दंगाइयों ने कानून व्यवस्था तथा पुलिस व प्रशासन की धज्जियां उड़ाते हुए साबरमती एक्सप्रेस के दो डिब्बों में आग लगाकर 58 कारसेवकों को जि़ंदा जला दिया क्या यह सुशासन या रामराज्य की मिसाल थी? या फिर उसके पश्चात इस घटना का बदला लेने की गरज़ से पूरे गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का तांडव और इसमें हज़ारों लोगों का मारा जाना, दिन-दहाड़े औरतों से बलात्कार करना, गर्भवती महिलाओं के पेट को फाडक़र उसके बच्चे को निकाल कर मार देना या गुलबर्ग सोसायटी सहित कई आवासीय कालोनियों में समुदाय विशेष को चुनकर निशाना बनाया जाना और इस दौरान अपने को देश का सबसे मज़बूत नेता समझने की गलतफहमी पालने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं को ‘नीरू’ की भूमिका में रखना क्या यह अराजकता नहीं बल्कि कानून व्यवस्था के सुचालन का प्रतीक है? केजरीवाल के धरने को अराजकता बताने वाले 2002 के गुजरात घटनाक्रम को आखिर किस नज़र से देखते हैं? क्या अराजकता के नज़रिए से इन दंगों की तुलना केजरीवाल के धरने से की जा सकती है? यहां यह भी गौरतलब है कि गुजरात दंगों में शामिल होने के बाद नरेंद्र मोदी ने जिस माया कोडनानी को पुरस्कृत करते हुए अपना कैबिनेट मंत्री बनाया था, बाद में उसे अदालत ने दंगों का मुख्य अभियुक्त मानते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है। और इसी माया कोडनानी के मंत्री बनाने पर अमेरिका मोदी से इस हद तक खफा है कि वह उन्हें अमेरिका आने का वीज़ा नहीं दे रहा है।
इसी प्रकार कश्मीर में गत् दो दशकों से अराजकता का ऐसा वातावरण है कि कश्मीरी अल्पसंख्यक वहां स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है। लाखों कश्मीरी अल्पसंख्यक अलगाववादियों द्वारा फैलाई जाने वाली आतंकी गतिविधियों से दहशतज़दा होकर देश में इधर-उधर भटकते फिर रहे हैं। कई अल्पसंख्यकों के घरों पर स्थानीय लोगों ने कब्ज़े जमा लिए हैं। परंतु यह वातावरण सुशासन का प्रतीक और केजरीवाल का धरना अराजकता का? आखिर यह कैसी दलीलें हैं? 2008 में उड़ीसा के कंधमाल में एक संत व विश्व हिंदू परिषद के चार कार्यकर्ताओं की हत्या के बाद कंधमाल व आसपास के क्षेत्रों में भड़क़े इसाई विरोधी दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए और लाखों लोग बेघर हो गए। गरीब इसाइयों के घरों में आग लगा दी गई। कई लोग जि़ंदा जलकर मर गए। इस तांडव में सम्मिलित लोग तथाकथित ‘राष्ट्रवादी’ थे। परंतु इसे हम अराजकता नहीं कह सकते क्योंकि हिंसा का यह तांडव धर्म के नाम पर और धर्म की आड़ में किया गया था, लेकिन जनता की दुख-तकलीफ व पुलिस ज़्यादतियों के विरोध में किया जाने वाला धरना अराजकता है? इंसाफ का आखिर क्या मापदंड है? ऐसे ही 2012 में आसाम में अनियंत्रित हिंसा देखने को मिली। इसमें भी सैकड़ों अल्पसंख्यक स्थानीय लोगों की हिंसा का शिकार हुए। राज्य की सरकार व मुख्यमंत्री इस हिंसा को रोकने में असफल रहे। परंतु इसे भी राजनेता सुशासन के ही खाते में डालना चाहेंगे, अराजकता के खाते में नहीं। 2013 में मुजफ्फरनगर व उसके आसपास के क्षेत्रों में भड़क़ी सांप्रदायिक हिंसा और दंगा पीड़ित शरणार्थियों का सर्दी में ठंड की वजह से मरना भी अराजकता नहीं, बल्कि सुराज का एक प्रमाण है जबकि इसके मुकाबले में केजरीवाल का धरना देश की अब तक की सबसे बड़ी अराजकता जिससे केंद्रीय गृहमंत्री के मुंह से उदघृत होना पड़ा?
भूख, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार तथा महंगाई से त्रस्त देश की यह जनता अब बखूबी समझने लगी है कि देश के पारंपरिक राजनैतिक दलों की कथनी और करनी में कितना अंतर है। जनता अब इनकी मंशा व हथकंडों से भली-भांति परिचित हो चुकी है। देश की आम जनता जोकि राजनैतिक दलों के दुष्प्रभाव से मुक्त है तथा अपनी निषक्ष सोच रखती है। वह निश्चित रूप से देश में एक नई व वास्तविक गणतंत्रीय व्यवस्था चाहती है। आम आदमी पार्टी का उदय तथा अरविंद केजरीवाल को मिलने वाला जनसमर्थन इस बात का प्रमाण है। लिहाज़ा यही जनता अपने-आप यह भी तय करेगी कि आखिर अराजकता कहते किसे हैं और इसके मापदंड क्या हैं और देश में अराजकता फैलाने व शासनहीनता के जि़म्मेदार कौन-कौन से दल व राजनेता हैं?

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