महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द जैसे कुछ ऋषि होते तो देश में अविद्या व अन्धविश्वास उत्पन्न न होते

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-मनमोहन कुमार आर्य

               हमारा देश महाभारत युद्ध के बाद अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियों वा मिथ्या परम्पराओं सहित अनेकानेक आडम्बरों से भर गया था जिसका परिणाम देश में छोटे-छोटे राज्यों के निर्माण सहित देश की पराधीनता के रूप में सामने आया। अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण ही देश में चेतन ईश्वर का तिरस्कार कर जड़ मूर्ति-पूजा का प्रचलन हुआ और इसी प्रकार की अन्य अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं अवतारवाद, फलित ज्योतिष तथा मृतक श्राद्ध सहित अनेकानेक वेद विरोधी दूषित परम्पराओं का प्रचलन भी हुआ जिसने हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ियों के लोगों को नाना प्रकार से दुःखसागर में डुबाया है। मिथ्या परम्पराओं पर दृष्टि डालें तो इसमें बाल विवाह, अनमेल विवाह, सती प्रथा, जन्मना जाति प्रथा, गुण, कर्म व स्वभावों को महत्व न देना, अज्ञानी व अशिक्षित ब्राह्मण कुलोत्पन्न मनुष्यों को वेद व शास्त्र ज्ञानियों से अधिक महत्व देना, छुआछूत की प्रथा, निर्धनों व उनके परिवारजनों का शोषण एवं उनके साथ अन्याय व अत्याचार सहित बाल विधवाओं की दुर्दशा, कन्याओं का पण्डितों व मठ-मन्दिरों में दान करना आदि अनेकानेक कुप्रथायें देश में चलीं जिन्होंने देश व समाज को एक प्रकार से नष्ट ही कर दिया।

               उपर्युक्त अज्ञानयुक्त अन्धविश्वासों का कारण वेद आदि सच्छास्त्रों का अध्ययन व अध्यापन बन्द हो जाना मुख्य था। अज्ञानी, स्वार्थी तथा अकर्मण्य लोगों के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई। यदि ऋषि दयानन्द (1825-1883) न आते तो आज हमारा अस्तित्व होता या न होता, इसका भी यथोचित उत्तर हमें नहीं मिलता। ऋषि दयानन्द का कोटिशः उपकार है कि उन्होंने देश, समाज व धर्म में प्रविष्ट हो चुके अज्ञान व अन्धविश्वासों से हमें अवगत कराया और उन्हें दूर करने के लिये आर्यसमाज के नाम से एक सफल एवं प्रभावपूर्ण अभूतपूर्व आन्दोलन चलाया। उन्हीं के प्रयासों से अन्धविश्वासों एवं मिथ्या अनावश्यक वेदविरुद्ध कुरीतियों का अन्त हुआ। अनेक कुप्रथाओं एवं वेदविरुद्ध परम्पराओं में सुधार भी हुए। आज भी हमारा समाज अज्ञान, अन्धविश्वास एवं कुप्रथाओं से मुक्त नहीं हुआ है। इसलिये आज भी ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज प्रासंगिक बने हुए हैं। आश्चर्य, चिन्ता एवं दुःख का विषय है कि आज आर्यसमाज अपने यथार्थ स्वरूप में विद्यमान नहीं है। इसे समाज व देश सुधार के जो कार्य करने थे वह नहीं हो रहे हैं। आर्यसमाज ने देश की आजादी के बाद अपने आप को राजनीति से दूर रखा, इस कारण भी देश व समाज की अपूरणीय क्षति हुई है। यदि आर्यसमाज राजनीति में सक्रिय हुआ होता तो इससे हमारे संविधान में वेद के मानवमात्र व प्राणीमात्र के हितकारी अनेक विधानों में से कुछ का समावेश होता। संविधान में बहुत से प्रावधान हैं जिनसे देश में अलगाववाद एवं अराष्ट्रीय गतिविधियों का संचालन कुछ विचारधारा के लोग विदेशियों के प्रभाव व लोभ आदि के कारण करते हैं। देश की आजादी के समय सही निर्णय लिये जाने से वह स्थिति उत्पन्न न होती। देश में ऐसी अनेक बातें हुई हैं जो उचित नहीं थी तथा जिनसे देश व समाज की अपूरणीय क्षति हुई है और अब भी वही क्रम जारी है।

               ऋषि दयानन्द ने वेद विद्या व ज्ञान पर आधारित एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की रचना की है। इस ग्रन्थ के छठे समुल्लास में उन्होंने राजधर्म का विस्तार से उल्लेख किया है। उनके अनुसार वेदों का एक पूर्ण विद्वान जो व्यवस्था दे उसका बहुमत व अन्य किसी प्रकार से अतिक्रमण व निषेध सम्भव नहीं होना चाहिये। आज की परिस्थितियों में यह आवश्यक भी प्रतीत होता है। आज हम देख रहे हैं कि भिन्न-भिन्न राजनीतिक दल अपने सत्ता स्वार्थों के लिये देश के लोगों की अनेक अनुचित मांगों को स्वीकार कर लेते हैं जिससे अन्य वर्गों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दलों को निष्पक्ष एवं सब देशवासियों के साथ पक्षपात रहित व्यवहार करना चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं होता है। लोगों के वोट से सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य से कुछ राजनीतिक दल भोलीभाली जनता को मनमोहक वायदें, सस्ती दरों पर बिजली व पानी जैसी घोषणायें, तुष्टिकरण जैसे निर्णय एवं कार्य करते हैं जिससे देश व समाज कमजोर होने के साथ इनसे विघटनकारी शक्तियों को बढ़ावा मिलता है। कश्मीर में पण्डितों पर अमानवीय अत्याचार होते हैं तो यह राजनीतिक दल मौन रहते हैं। आज कुछ ऐसे दल हैं तो शत्रु देश पाकिस्तान व चीन आदि के हितों को ध्यान में रखकर देश की सरकार व सेना पर सन्देह उत्पन्न करते हैं। देश एवं विघटनकारी लोगों की हां में हां मिलाते दिखाई दे रहे हैं जिससे देश के वर्तमान एवं भविष्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना निश्चित है। ऐसी स्थिति में देशवासियों को सजग रहना है और किसी भी राजनीतिक दल, सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं के देश विरोधी कार्यों व विचारों का विरोध करना है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसके दुष्परिणाम जल्दी सामने आयेंगे। देश का सौभाग्य है कि आज कुछ विद्वान व देश के हितैषी लोग जनजागरण के कार्य में लगे हैं। ईश्वर देश के हितकारी इन लोगों की रक्षा करे जिससे यह अपने कार्यों व उद्देश्यों में सफल हों, ऐसी कामना सभी देशभक्त शक्तियों को करनी चाहिये। देश का यह भी सौभाग्य है कि आज हमारे पास सुयोग्य प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री हैं।

               महाभारत युद्ध के बाद देश में अज्ञान, अन्धविश्वास कुरीतियां इसलिये उत्पन्न हुईं क्योंकि देश में वेदों के विद्वान उनके प्रचारक नहीं थे। जो विद्वान थे वह भी वेदाध्ययन से दूर रहने के कारण वेदों के सत्य तात्पर्य और उनके यथार्थ अर्थों से अनभिज्ञ थे। यही नहीं वह वेदों के अर्थों को जानकर उनके मिथ्या अर्थ प्रचलित कर देश समाज को अविद्या के अन्धकार में डूबोने के कार्य कर रहे थे। आश्चर्य होता है कि जब ऐसा हो रहा था तो तब उनका विरोध किसी योग्य विद्वान ने क्यों नहीं किया? जो भी हुआ हो, यह वास्तविकता है कि उनकी अविद्या एवं कार्यों से देश से वेदों का धीरे धीरे लोप हो गया और उनके स्थान पर अन्धविश्वास, पाखण्ड, आडम्बर तथा मिथ्या समाजिक परम्पराओं का प्रचलन होकर उसमें वृद्धि होती रही। इससे देश व समाज कमजोर हुआ और देश देशान्तर में अविद्यायुक्त मतों का आविर्भाव हुआ। आज भी वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध आदि बुराईयां समाज में आ गईं। ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में इनके यथार्थस्वरूप व इनसे होने वाली हानियों का प्रकाश किया है। इसके साथ ही जन्मना जातिवाद, स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन से वंचित किया जाना, शूद्र वर्ण के बन्धुओं के साथ अस्पर्शयता का व्यवहार, बाल विवाहों का प्रचलन तथा बाल विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाने लगा। यही हमारे समाज को कमजोर करने वाला तथा पराधीनता का कारण बना। ऋषि दयानन्द के आने, वेदों का उद्धार करने, वेदों के सत्यार्थ का प्रचार करने, वेदों को विद्या व सत्य ज्ञान के ग्रन्थ सिद्ध करने, उपनिषदों में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित कराने, दर्शनों को वेदों का उपांग बताकर उनके विद्या विषयक तथ्यों को प्रचारित करने, ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति का सत्य स्वरूप प्रस्तुत करने, ईश्वर की उपासना की आवश्यकता और उसकी तर्क संगत वैदिक विधि से अवगत कराने, अग्निहोत्र देवयज्ञ का प्रचार करने व उससे होने वाले अनेकानेक लाभों को प्रकाशित करने के बाद भी देश की जनता ने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रचारित सत्य विचारों व सत्य सिद्धान्तों को पूर्णरूपेण ग्रहण नहीं किया।

               देशवासियों द्वारा सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग न करने पर ऋषि दयानन्द ने स्वयं भी आश्चर्य व्यक्त किया था। ऋषि दयानन्द के प्रचार से यह लाभ अवश्य हुआ कि सभी लोगों को वेद पढ़ने का आधार मिला, जन्मना जातिवाद को युक्ति व तर्क के आधार पर समाज विरोधी प्रथा माना जाने लगा, ऋषि दयानन्द द्वारा स्वीकार व प्रचारित गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार लोगों ने जन्मना जाति को त्याग कर विवाह करने आरम्भ किये, विधवा विवाह भी प्रचलित हुए, लोग देश देशान्तर में जाने में जो पाप मानते थे वह मान्यता भी समाप्त हुई, योग का प्रचार हुआ, यज्ञों का प्रचार हुआ, वेदों का देश विदेश में प्रचार हुआ तथा लोगों ने वेदों के महत्व को काफी सीमा तक समझा इत्यादि अनेक लाभ ऋषि दयानन्द के वेद ज्ञान के प्रचार की देन कहे जा सकते हैं। आर्यसमाज के वेद व सत्य धर्म प्रचार से विधर्मियों द्वारा आर्य सन्तान हिन्दुओं का जो धर्मान्तरण किया जाता था उस पर अंकुश लगा। वह कम हुआ और शिथिल पड़ा था। अब फिर से सिर उठा रहा है। ऐसे अनेक लाभ ऋषि दयानन्द के प्रचार की देन हैं।

               ऋषि दयानन्द महाभारत युद्ध के बाद लगभग पांच हजार वर्षों बाद जन्में थे। इस बीच अन्धविश्वास व अविद्या अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई थी और आर्य हिन्दू जाति की अपूरणीय क्षति अन्धविश्वासी स्वजातीय लोगों व विधर्मियों ने कर दी थी। ऐसी विषम परिस्थिति होने पर भी ऋषि दयानन्द ने स्थिति को सम्भालने का प्रयास किया जिसके अनेक सुपरिणाम देश व समाज को प्राप्त हुए। यदि ऋषि दयानन्द और पहले आते अथवा ऋषि दयानन्द की वेद व धर्म सम्बन्धी योग्यता के अनेक विद्वान उनसे पहले उत्पन्न होते तो आज हिन्दू समाज में जो अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्परायें व सामाजिक समरसता का अभाव है, वह न होता अथवा दूर हो गया होता। आज हिन्दू समाज को सत्यासत्य का तर्क एवं युक्तिपूर्वक विवेचन कर सत्य का ग्रहण और असत्य का सर्वथा त्याग करने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही वेद, राम व कृष्ण को मानने वाले सभी भारतवंशी लोग संगठित होकर अपने विरोधियों को उनके छल, लोभ व बल पूर्वक किये जाने वाले धर्मान्तरण एव राजसत्ता से तुष्टिकरण के नाम पर उन्हें मिलने वाली अनेकानेक सुविधाओं का समाधान किया जा सकता है। यह भेदभाव तभी दूर होगा जब राम व कृष्ण को मानने वाले संगठित होकर एक मन, एक विचार, एक भावना, एक तन और एक प्राण वाले होंगे। बिना ऋषि दयानन्द की विचारधारा, वैदिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों को अपनायें सनातन वैदिक धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। आश्चर्य है कि बहुत से हिन्दु बन्धु भावी खतरों से असावधान है। उन पर धर्म व जाति विरोधी घटनाओं का जो प्रभाव होना चाहिये, वह होता नहीं है। अतः आर्यसमाज व समानधर्मी संस्थाओं को परस्पर सहयोग कर धर्मरक्षा के उपाय करने चाहियें। धर्मरक्षा होगी तो देश की रक्षा हो सकती है अन्यथा धर्मविरोधी विचारधारायें देश पर अपना अधिकार कर इतिहास में पूर्व घटित अमानवीय घटनाओं को दोहरा सकती हैं। देश के माता-पिताओं को अपनी सन्तानों को वैदिक संस्कार देने चाहियें और उन्हें वैदिक धर्म की पूरी शिक्षा स्कूल में न सही अपने घर व आर्यसमाज में भेजकर देनी चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। यदि महाभारत युद्ध के बाद कोई ऋषि दयानन्द जैसा वेदों का विद्वान व प्रचारक होता तो देश में अन्धविश्वास न फैलता और इस कारण हमारी वर्तमान पीढ़ियों को जो दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं वह न देखने पड़ते। ओ३म् शम्।

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