एक बार फिर …

History Of Buddhism

हे अपार करुणामय अमिताभ बुद्ध ,क्षमा करना -मैं एक मंद-मति  नारी हूँ, जो नर के समान  सहज मानव के रूप में तुम्हें भी स्वीकार्य नहीं थी. तुम्हारा सद्धर्म  मेरे

लिये निषिद्ध रहा ,और जब महाप्रजापति गौतमी के आग्रह पर स्त्रियों को  प्रवेश दे कर इस धर्म ने जो कुठाराघात झेला उससे उसकी जीवनावधि आधी रह गई -तुमने कहा था,“हे आनन्द! यदि मातुगण स्त्रियों ने गृहत्याग कर प्रवज्या अपना तथागत के बताये धम्म और विनय का मार्ग अङ्गीकार न किया होता तो ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचरिय) चिरजीवी होता, सद्धर्म एक हजार वर्ष तक बना रहता। किंतु हे आनन्द! चूँकि स्त्रियाँ इस मार्ग पर आ गयी हैं इसलिये ब्रह्मचर्य चिरजीवी नहीं होगा और सद्धर्म केवल पाँच सौ वर्षों तक चलेगा।“

राजपुत्र सिद्धार्थ ,

History Of Buddhism

बहुत सुख-विलास में पले थे तुम ,जीवन के दुखों से, कष्टों से नितान्त अपरिचित ,हर इच्छा पूरी होती थी तुम्हारी .संसार की वास्तविकताएँ तुम्हारे लिये अनजानी थीं

, किन्तु जीवन के कटु यथार्थ से कौन बच सका है .राजपुत्र होने से यहाँ अंतर नहीं पड़ता .सच सामने आयेंगे ही -झेलने भी पड़ेगे .जब वे सामने आए तुम दहल गए .उनसे छुटकारा पाने का उपाय खोजने का विचार बहुत स्वाभाविक था .अच्छा किया मार्ग ढूँढ लिया तुमने – साधना सफल हुई, बुद्ध हुए तुम!

हे प्रबुद्ध,

संसार को दुखों से मुक्त करने का निश्चय तुम्हारे जैसे महामना ही कर सकते हैं. हे ज्ञनाकार, दुख और कष्ट क्या केवल पुरुषों को ही व्यापते हैं, नारी को नहीं ?आत्म-कल्याण के पथ पर बढ़ने के लिये सहधर्मिणी को झटक कर , गृहस्थी के सारे दायित्व त्याग अपनी मुक्ति का मार्ग पकड़ ले यही थी सद्धर्म की पहली शर्त .स्त्रियों की मुक्ति पुरुष के लिये बाधक बन जाती है इसलिये उन्हें अपनी मुक्ति की चाह न कर, उसे पुरुष का अधिकार मान, सारी सुविधायें देना अपना कर्तव्य समझना चाहिये.वृद्धावस्था रोग और मृत्यु नारी पुरुष का भेद नहीं करते. मुझे लगता है स्त्री-पुरुष दोनों को समान चेतना-संपन्न मान कर वांछित न्याय कोई कर्मशील कृष्ण ही दे सकता है, वही अपने व्यवहार से भी सुख-दुख दोनो को समान भाव से ग्रहण करने ,कर्ममय संसार में डटे रहने का संदेश  दे सकता है.

सर्वदर्शी,

तुम्हारा वक्तव्य पढ़ कर (चूँकि स्त्रियाँ इस मार्ग पर आ गयी हैं इसलिये ब्रह्मचर्य चिरजीवी नहीं होगा और सद्धर्म केवल पाँच सौ वर्षों तक चलेगा.“)पहले तो मैं यह समझने का यत्न करती रही कि इसके लिये दोषी किसे मानें -स्त्रियों को, सद्धर्म में दीक्षित ब्रह्मचर्य निभानेवाले को , या मानव की स्वाभाविक वृत्तियाँ को ?

सोच लेना कितना  चलेगा वह धर्म जिसमें सहधर्मिणी की भी  सहभागिता न हो .जो प्राकृतिक स्वाभाविक जीवन के अनुकूल न हो जो समाज के केवल एक  वर्ग के कल्याण का ही विधान करता हो .

हे सुगत,

ऋत सृष्टि के नियमन का,उसके सुव्यवस्थित संचालन का हेतु है, प्रकृति की अपनी योजना है रचना-क्रम एवं पोषण -संरक्षण की, प्राणी  की मूल वृत्तियों का अपना महत्व है. इनसे विमुख होना विकृतियों का कारण बनता है अतः शोधन  के द्वारा  वृत्तियों का ऊर्ध्वीकरण  -संयम और नियमन -जिसके संस्कार हमारी संस्कृति में प्रारंभ से विद्यमान हैं .उनके दमन के बजाय उनका नियमन जो व्यक्ति और समाज  दोनों के उन्नयन में सहायक हों.

सिद्धार्थ,

मेरे पापी मन में कौंधता है  अगर स्त्रियों के लिये  भी ऐसे धर्मों या संप्रदायों का चलन होने लगे जिनमें सबसे निरपेक्ष रह कर अपना ही कल्याण देखें तो…

पर उन्हें छूट देने के पक्ष में तुम हो ही कहाँ ?कभी कोई नहीं रहा .गृहस्थ जीवन का पूरा अनुभव था तुम्हें.चिन्तक भी थे तुम. स्त्री- कुछ माँगे नहीं,पूरी तरह समर्पित हो , कभी शिकायत न करे तो उसके हित का विचार किस का दायित्व है? तुम्हारी करुणामय दृष्टि  भी नर का दुख देखकर विचलित हो गई  रही, नारी तक उसकी पहुँच नहीं हुई .

किसी पीपल तले एक बार फिर ध्यानस्थ होकर बैठो सिद्धार्थ, शायद मानव-मात्र(जिसमें नारी की सहभागिता हो) के लिये सम्मत,समाज के लिये कल्याणकारी , कोई पूर्णतर मार्ग कौंध जाये जो एक सहस्त्र या पाँच सौ वर्षों की सीमा से बहुत  आगे जा सके और तुम्हारी तथागत संज्ञा सार्थक हो सके.

*

– प्रतिभा सक्सेना.

 

 

2 COMMENTS

  1. दीपक के तले ऐसा अंधेरा!
    जितना बडा दीपक उतना ही बडा अंधेरा?
    करुणा मूर्ति गौतम बुद्ध जो ३ दृश्य देखकर द्रवित हो ऊठेथे; वे भी इस …….????
    आप की सरयू से छाया उठके जानेवाली कविता भी पढी थीं।
    उत्तर नहीं मिलता।
    मात्र प्रश्न खडे होनेपर संवेदनशीलता बढती हैं।
    आप दीपक तले अंधेरे में दृष्टिपात करवा कर उजागरण करवाने में सफल हुयी हैं।
    बहुत बहुत धन्यवाद।
    आप अवश्य लिखती रहें।
    शुभेच्छाएं।

  2. एक बार फिर – डॉ. प्रतिभा सक्सेना
    दु:खों से मुक्ति के मार्ग में महात्मा बुद्ध की एकांगी विचारधारा – पुरुष मात्र के लिये ही खोले गए मुक्तिद्वार पर लेखिका की सूक्ष्मता से की गई विवेचना सारगर्भित और तथ्यपूर्ण है । क्या बुद्ध द्वारा नारी को केवल कर्तव्य में रत रखने और अधिकारों से वंचित रखने की भावना या नियम उचित था ?
    ” न हि स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।” की स्थिति (अर्थात् स्त्री स्वतन्त्रता की अधिकारिणी नहीं है ।)-को ही स्वीकार करने पर बुद्ध प्राणिमात्र के उद्धारक तो नहीं रहे । लेखिका ने इस दिशा में उन्मुक्त भाव से गम्भीरतापूर्वक लेखनी उठाई है । ये तथ्य वस्तुत: विचारणीय है । नर-नारी के लिये समानता के भाव को निरस्त करने की स्थिति पर इस विशिष्ट दृष्टि के लिये लेखिका को बहुश: साधुवाद !!

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