बयान पर विवाद या कटु सत्य पर प्रहार

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विनोद बंसल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उत्तर प्रदेश के फतेहपुर की एक रैली में यह कहा जाना कि अगर किसी गांव को कब्रगाह के निर्माण के लिए कोष मिलता है, तो उस गांव को श्मशान की जमीन के लिए भी कोष मिलना चाहिए. गांव में कब्रिस्तान बनता है तो श्मशान भी बनना चाहिए. अगर आप ईद में बिजली की आपूर्ति निर्बाध करते हैं, तो आपको दीपावाली में भी बिजली की आपूर्ति निर्बाध करनी चाहिए.यानि,  भेदभाव नहीं होना चाहिए.

भाजपा सांसद साक्षी महाराज द्वारा यह कहा जाना कि ”चाहे नाम कब्रिस्‍तान हो, चाहे नाम श्‍मशान हो, दाह होना चाहिए। किसी को गाड़ने की आवश्‍यकता नहीं है।”  गाड़ने से देश में जगह की कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्‍होंने कहा कि ”2-2.5 करोड़ साधु हैं सबकी समाधि लगे, कितनी जमीन जाएगी। 20 करोड़ मुस्लिम हैं सबको कब्र चाहिए हिंदुस्‍तान में जगह कहां मिलेगी।” अगर सबको दफनाते रहे तो देश में खेती के लिए जगह कहां से आएगी, सत्य ही तो है.

इसके अलावा उनका मुसलमानों और ईसाइयों की नसबंदी सम्वन्धी बयान हो या हिन्दुओं द्वारा चार बच्चे पैदा करने की बात हो, चार बीवी और 40बच्चों का मामला हो या गौ रक्षार्थ मरने या मारने की बात, राम जन्म भूमि पर मंदिर की मांग हो या कुछ अन्य, आखिर हिन्दुओं के अधिकारों या सामान नागरिक कानून की बात में विवाद कैसा?

उपरोक्त बयानों पर सारा विपक्ष तथा समस्त सैक्यूलरिस्ट ब्रिगेड बौखला गया तथा एक जुट होकर गत एक सप्ताह से लगातार केंद्र में सत्ता धारी पार्टी के पीछे चून बाँध के पडा है. किन्तु दूसरी ओर जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्य मंत्री व केन्द्रीय मंत्री रहे फारुख अब्दुल्ला चाहे देश को तोड़ने बाले बयान दें या उन्ही की विचारधारा के पोषक दिल्ली के पर्यावरण मंत्री इमरान हुसैन हिन्दुओं के अंतिम संस्कार में लकड़ियों के प्रयोग पर प्रतिबन्धलगाने की सिफारिश करें या बिहार सरकार घरों में आग के खतरे के कारण हिन्दुओं के सर्वोत्तम धार्मिक कार्य यज्ञ / हवन पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करें तो ये सभी सैक्यूलरिस्ट मानो बिल में घुस जाते हैं. इतना ही नहीं, यदि कोई भारत माता के टुकडे करने या कश्मीर की आजादी के नारेलगाए तो ये सभी एक होकर उन देश द्रोहियों के तलवे चाटने लग जाते हैं.

आओ! अब उपरोक्त बयानों की हकीकत की भी पड़ताल करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने मुस्लिमों के लिए कब्रिस्तानों के निर्माण पर जहां १३०० करोड़ रूपए खर्च किए वहीँ समस्त गैर मुस्लिमों के श्मशान हेतु मात्र ६३७ करोड़ रूपए ही आबंटित किए गए. यह सर्व विदित है कि ईद व रमजान पर ख़ास सख्ती के साथ बिजली की शत-प्रतिशत आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है वहीँ दीपावली पर बिजली व होली पर पानी की भारी किल्लत देखने को मिलती है. इतना ही नहीं, इन हिन्दू त्योहारों पर अधिकांश सैक्यूलरिस्टों के दिमाग में विविध प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण का खतरा भी मंडराता रहता है जबकि वहीँ बकरीद व क्रिसमस पर इन्हें चहुँ ओर पर्यावरण की स्वच्छता नजर आने लगती है. जहां तक जनसंख्या असंतुलन की बात करें तो अकेले उत्तर प्रदेश को ही ले लो. समस्त भारत में मुस्लिम कुल जनसंख्या के १९.३% हैं. वहीँ, उत्तर प्रदेश की शहरी आबादी में इनका प्रतिशत ३७.२% है. यानि, अखिल भारतीय औसत का दुगना. प्रदेश में मुस्लिम बहुलता वाले कस्बों की संख्या जहां १९८१ में १०१ थी वही संख्या २०१६ में बढ़ कर लगभग ढाई गुनी यानि २३१ हो गई. १५ कस्बों में इनकी आबादी ९०% से अधिक तथा ८४ कस्बों में ७० से ९० प्रतिशत के बीच पहुँच गई है. मात्र आंकड़े भयावह नहीं बल्कि वह सोच विचारणीय है जिसके कारण मुस्लिम बाहुल्य गाँव, कस्बों व शहरों में हिन्दू समाज दमन का शिकार बन धर्मांतरण, लव जिहाद व पलायन को मजबूर है.

अब बात करते हैं अंतिम संस्कार की पद्धतियाँ और उनसे उपजी समस्याओं की. यजुर्वेद के ३९ वें अध्याय के १३ मन्त्रों में अंतिम संस्कार की विशुद्ध वैज्ञानिक वैदिक पद्धति का स्पष्ट वर्णन है. जिसके तहत शव को गाढ़ने, बहाने या जंगल में छोड़ने के विपरीत समस्त मानव जाति के लिए वैदिक यज्ञ विधि से किए गए अग्नि दाह को ही पूर्णतया वैज्ञानिक, प्रदूषण रहित पुण्य कर्म माना गया है. जो लोग इस वेदवाणी से अनभिज्ञ हों या नहीं मानते हों उन्हें भी यह बात तो समझनी ही पड़ेगी कि जब आगामी कुछ वर्षों में भारत दुनिया की सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश बन जाएगा, उन सब के लिए कब्रिस्तान हेतु जमीन कहाँ से लाएगा.

दुनिया के अन्य देशों में भी झाँके तो कहने को तो इंसान को दफनाने में सिर्फ दो गज जमीन लगती है. लेकिन हालत ये है कि कई देशों में दफनाने के लिए वेटिंग लिस्ट तैयार होने लगी है. एबीपी न्यूज की एक रिपोर्ट के अनुसार एक रिसर्च में ये भी सामने आया कि हांगकांग में मर चुके लोगों की समाधि बनाने के लिए 5 साल की वेटिंग चल रही है. यहाँ जगह की कमी के कारण 1970 के बाद से नए कब्रिस्तान नहीं बन रहे हैं.आप दुनिया की सारी दौलत देकर भी स्थाई कब्र की जगह नहीं ले सकते हैं. अगले 24 साल में अमेरिका को लास वेगस के बराबर की जमीन चाहिए होगी. फिलीपींस की राजधानी मनीला में जगह की कमी के कारण कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने पड़ रहे हैं. मनीला में कब्र का किराया5 साल बाद नहीं दिया तो वो जगह किसी और को दे दी जा रही है. जापान में कब्रिस्तान की कमी के कारण इंतजार करना पड़ता है तो लोगों को तब तक शव रखने के लिए एक होटल अपनी सर्विस देता है.

अब भारत में भी मान्यताओं के मुताबिक अंतिम संस्कार के लिए कई नियम बदले जा रहे हैं. मुंबई की तरह देश में और भी कई जगहें ऐसी हैं, जहां कब्रिस्तान की कमी के कारण मान्यताओं में बदलाव खुद धर्मगुरु ला रहे हैं. जैसे छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्मगुरुओं ने दफनाने की जगह दाह संस्कार का भी नया रास्ता खोला है. कई चर्च में रविवार की प्रार्थना के बाद इसकी बकायदा जानकारी भी दी जा रही है.

इंटरनेशनल क्रिमेशन स्टेटिस्टिक्स के मुताबिक दुनिया के कई देशों में शवों को दफनाने की जगह जलाने का प्रचलन बढ़ा है. अमेरिका में 1960 में जहां दाह संस्कार करने वाले सिर्फ 3.8 फीसदी थे, उसी अमेरिका में 2015 में 49 फीसदी लोगों ने अंतिम संस्कार के लिए दफनाने की जगह दाह संस्कार की प्रथा को अपनाया. कनाडा में 1970 में जहां शवों को जलाकर अंतिम कर्म क्रिया करने वाले 5.89 प्रतिशत थे. अब कनाडा में दाह संस्कार करने वाले 68.4 फीसदी हो चुके हैं. चीन में भी 46 फीसदी लोग अब दाह संस्कार के जरिए अपनों को अंतिम विदाई देने लगे हैं.

शवों को दफनाने की जगह जलाने के पीछे एक बड़ी वजह अगर कब्रिस्तान में जगह की कमी है तो दूसरी बड़ी वजह आर्थिक भी है. अमेरिका जैसे देश में शवों को दफनाने पर जहां कुल खर्च 5 लाख 59 हजार रुपए आता है. वहीं शव को जलाकर अंतिम संस्कार का खर्च सिर्फ 2 लाख 13 हजार रुपए ही होता है.

पूरी दुनिया के भ्रमण का जब सार यही निकलता है कि वैदिक रीति से किया गया अग्निदाह ही संसार के लिए लाभकारी है तो इसमें विवाद कैसा और उसमें देरी क्यों. इससे पहले कि देशवासियों की कृषि, निवास, आफिस और उद्योगों हेतु भूमि की पर्याप्तता का संकट पैदा हो, छुद्र राजनैतिक व साम्प्रदायिक सोच से ऊपर उठ कर इसका समय रहते समाधान निकाला जाना नितांत आवश्यक है. इसके साथ ही कुछ चुनिन्दा नेताओं के हर बयान में विवाद के दर्शन करने वालों को बयानों के पीछे छुपे कटु सत्य पर प्रहार से भी बाज आना चाहिए.

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  1. सामयिक और सारगर्भित, यह लेख तथाकथित सैक्यूलरिस्टों के समक्ष विभिन्न सामाजिक विषयों पर सत्यता प्रस्तुत करता है| अन्य प्रयासों के बीच ऐसे लेख केंद्र और प्रादेशिक शासनों में बजटीय नियंत्रण और समान नागरिक संहिता पर समन्वय लाने में सहायक हो सकते हैं|

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