कृषि विकास और गांवों की खुशहाली

अखिलेश आर्येन्दु

कृषि विकास और गांवों की खुशहाली के लिए पशुधन की बढ़ोत्तरी पर गम्भीर होना ही होगा

आजादी के पहले एक विदेशी इतिहासकार और अर्थशास्त्री ने भारत की कृषि संस्कृति और कृषि सम्पदा की सराहना करते हुए लिखा था कि गांवों में गरीबी विकट होने और खेती घाटे में रहने के बावजूद भी लोग खेती को ही सबसे बढि़या आधार मानते हैं। जानवरों खासकर गाय को माता के समान मानते हैं। गांव का आदमी न तो दूध और घी को बेचकर पैसा कमाता है और न ही पानी पिलाकर किसी पर कोर्इ एहसान जताता है। जाहिर सी बात है तब गांव विपन्न होने के बावजूद भी अपनी संस्कृति और सभ्यता से पूरी तरह सम्पन्न थे। यह बात कवि घाघ और भण्डरी की कविताओं में भी लिखी गर्इ है। उत्तम खेती मध्यम बान। निशिध चाकरी भीख निधान। यानी खेती जिंदगी बसर के लिए सबसे बेहतर आजीविका का साधन थी। लेकिन आजादी के बाद यह सबसे ज्यादा खर्चीली, घाटे वाली और सबसे ज्यादा मेहनत लेने वाली साबित होने लगी। इसका कोर्इ एक वजह नहीं थी। लेकिन सबसे बड़ी वजह केंद्र और राज्य सरकार का इसे तवज्जो न देना और इसमें लगने वाली लागत का लगातार महंगा होते जाना है। इसके साथ कृषि के आधार गोवंश यानी गाय, बैल, बछड़े और साड़ का लगातार चोरी.छिपे कत्ल भी बहुत कुछ इसके महंगे होने की वजह रही। कर्इ प्रदेशों में तो पशुधन इतना कम हो गया कि बैल और बछड़े इतने कम हो गए कि जुतार्इ करना ही मुश्किल हो गया। सीमांत और छोटे किसानों को भी विकल्प के रूप में टे्रक्टर का सहारा लेना पड़ा। कम्पोस्ट यानी गोबर की खाद, जो सबसे निरापद और बगैर कोर्इ मूल्य चुकाए घर बैठे तैयार हो जाती थी की जगह महंगी कृतिम रासायनिक खादों का इस्तेमाल किया जाना लगा। इससे किसानों को कर्इ स्तरों पर घाटा उठाना पड़ा। साथ ही बिजली, पानी और मजदूरी भी लगातार महंगी होती चली गर्इ। आज तो स्थिति यह हो गर्इ है कि गांव में जिसके पास खेत हैं और साधन भी उपलब्ध हैं वे भी इसके बढ़े लागत की वजह से इसे छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं।

गांवों से शहरों की ओर बढ़ते पलायन की एक बड़ी वजह गांवों में गुजर.बसर के लायक साधनों की बेहद कमी भी है। एक समय था जब लोग गाय या भैंस पालकर गुजर.बसर कर लेते थे। शहर जाना महज इत्तीफाक ही होता था। बहुत से लोगों की तो जिंदगी बीत जाती थी लेकिन शहर देखा ही नहीं देखा होता था। आजादी के बाद से अपने पुस्तैनी खेत और घर को छोड़ गांव का किसान मजदूर शहरों की तरफ क्यों पलायन कर रहा है, इसे समझने की जरूरत है।

दरअसल गांव इस लिए महज गांव नहीं रहे कि वे शहर नही हैं। और शहर इस लिए शहर नहीं हैं कि वे गांव नहीं हैं। दरअसल दोनों की अलग.अलग संस्कृतियां, जीवनदर्शन और आदर्श रहे हैं। दोनों में सबसे बड़ा फर्क था सोच का। गांव में जिसके पास पशुधन नहीं होता था, उसे लोग बहुत ही आश्चर्य के साथ देखते थे। समाज में उसकी इज्जत वैसी नहीं होती थी जैसी जानवर पालने वालों की। गांय, भैंस, बछड़ा, पड़वा और बैलों की जोड़ी रखने वाला परिवार सबसे ज्यादा इज्जत का हकदार समझा जाता था। जिसके द्वार पर दो या तीन जोड़ी बैल बधे होते थे उसकी इज्जत गांवभर में सबसे ज्यादा होती थी। इसी तरह गाय और भैंस पालने वालों की इज्जत भी लोग करते थे। यानी गौ वंश का पालन खेती और रेाजमर्रा की जिंदगी से तो जुड़ा हुआ ही थाए इज्जत बढ़ाने वाला भी था। लेकिन आजादी के बाद से यह तस्वीर धीरे.धीरे बदलने लगी। पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका के कृषि माडल को दुनिया में सबसे बेहतर होने का शोर मचाया जाना लगा। इसके पीछे खेती की उन्नति की मंशा नहीं थी बलिक बड़े कत्लखानों के लिए जानवरों को मुहैया कराने की थी। गांवों में लोग कसार्इ को जानवर बेचना सबसे पाप समझते थे। इस सोच को भी खत्म करना था साथ ही तेल के आयात के लिए ज्यादा से ज्यादा मांस का निर्यात करना जरूरी था। पंजाब के किसानों को वहां की सरकार और कृषि से जुड़े संस्थान यह समझाने में सफल हो गए कि गोवंश के पालन और बैल या भैंसे से खेती न करके टै्रक्टर से करने वाला किसान अधिक खुशहाल, सम्पन्न और समझदार होता है। इसके पीछे कर्इ धारणाएं काम कर रही थीं। पहली धारणा तो यह थी कि गोवंश की उपेक्षा होते ही इसे सस्ते दामों पर मांस के लिए खरीदा जा सकेगा। दूसरी धारणा और सोच यह बनार्इ गर्इ कि टैक्टर को हर गांव और हर किसान के पास पहुचाना सरल हो जाएगा। तीसरी सोच के तहत गोबर की खाद की जगह रासायनिक खादों के इस्तेमाल के लिए किसान मजबूर हो जाएंगेए इससे तत्काल तो आमदनी बढ़ती दिखार्इ पड़ेगी लेकिन इसके दूरगामी बहुत ही घातक परिणाम.कृषि योग्य जमीन का बंजर हो जाने के रूप में आएगा। और जब खेती के लायक जमीन बंजर हो जाएगी तो हर हाल में बंजर जमीन को सुधारने के लिए बंजर.सुधार खाद का इस्तेमाल किया ही जाएगा। इस तरह किसान हर हाल में सरकार और विकास के इस तथाकथित नए माडल का गुलाम बन जाएगा। इतना ही नहीं गांवों से गोवंश को खत्म करने का एक षड्यंत्र यह भी किया गया कि इससे शुद्ध दूध, दही, मटठा, घी और मक्खन मिलना बंद हो जाएगा। जाहिरतौर पर इसके न मिलने पर किसान और उसके बच्चों की शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित होंगे। आज पंजाब और हरयाना की स्थिति हमारे सामने है। इन प्रदेशों के किसानों की जो स्थिति आजादी के पहले हुआ करती थी, अब देखने को नहीं मिलती है। शायद की कोर्इ घर हो जहां पर गोवंश पूर्ण रूप से दिखार्इ पड़े। लेकिन ट्रैक्टर हर घर के सामने खड़ा जरूर मिल जाएगा। यानी इन प्रदेशों से पशुधन लगभग गायब हो चुके हैं। यदि कुछ बचे हैं तो दूध देने वाले संकर किस्म के जानवर। यही स्थिति कमोवेश दूसरे प्रदेशों की भी होती जा रही है।

आजादी के बाद गांवों की मौलिकता और कृषि.संस्कृति के सभी आयामों का जिस तरह से उपेक्षा और नष्ट करने का सरकारी तंत्र द्वारा योजनाएं बनी उसे आम आदमी को तब नहीं पता चला। पता तो सही मायने में 1993 के बाद जब देश के विकास के नए माडल के तहत उदारीकरण और निजीकरण की नीति अपनार्इ गर्इ और उसका असर गांवों के हर वर्ग और तपके के लोगों को दिखार्इ पड़ने लगा तब चला। लेकिन विनाश के इस माडल को बहुत ही चालकी के साथ विकास का नाम देकर भ्रमित करने की कोशिशें की गर्इं। आज तो स्थिति यह हो गर्इ है कि बीज का ठेका अमेरिका की मोसेन्टो कंपनी को देकर यह बताया जा रहा है कि इससे किसानों के पैदावार में बढ़ोत्तरी होगी। विदेशी बीज से खेत लहलहाएंगे। जब कि यह सब एक धोका के सिवा कुछ नहीं है। गौर तलब है कि विदेशी बीज से कुछ सालों तक तो पैदावार बढ़ती दिखेगी लेकिन कुछ सालों के बाद उसमें कुछ भी पैदा नहीं होगा। यही बात देशी किस्म की गायोंए भैंसो और बैलों को खत्म करने के लिए विदेशी संकर किस्म की गांयों और बैलों को आयात करके किया गया। आजर् स्थिति यह हो गर्इ है कि देशी किस्म की दस गायों का नाश हो चुका है और इतनी ही किस्मों पर खतरा मडरा रहा है।

आजादी के बाद से तो पशुधन को खत्म करने का जैसे सरकार ने योजना ही बना ली थी। यह इससे भी लगता है कि सरकारी स्तर पर पशुधन की हिफाजत के लिए कोर्इ भी कदम नहीं उठाए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि 1947 में जहां देश में 117 करोड़ जानवर थे वे घटकर महज 12 करोड़ के आस.पास रह गए हैं। इसी तरह एक हजार व्यकितयों पर गायों की संख्या महज 32 रह गर्इ है। दूसरे जानवरों की भी लगभग यही स्थिति है। देश में पंजीकृत 36 हजार से ज्यादा बूचड़खाने हैं, जिनसे रोजाना लाखों जानवर कत्ल कर दिए जाते हैं। ऐसे में सरकार ही यह बात बेर्इमानी लगती है कि देश में जानवरों की तादाद बढ़ाने के लिए केंद्र गंभीरता से सोच रहा है।

दो महीने पहले योजना आयोग ने शिफारिस की कि अनुच्छेद की धारा 48 में संसोधन करके गोमांस के निर्यात की अनुमति केंद्र सरकार दे। इस शीफारिष से यह पता चलता है कि जिस आयोग के अध्यक्ष देश के प्रधानमंत्री हैं वह आयोग पशुधन खासकर गायों के प्रति कैसी नजरिया रखता है। गौरतलब है संविधान का अनुच्छेद 48 गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाता है। लेकिन जब इसमें संषोधन की बात कही जा रही है तो समझा जा सकता है कि आयोग और प्रधानमंत्री गोवंश की हिफाजत के प्रति किस तरह की नजरिया रखते हैं। जिस गोवंश के बूते भारत की खेती.किसानी चलती है उसी को खत्म करने का यह प्रस्ताव कितना विनाशकारी है, समझा जा सकता है।

देश के लिए पशुधन कितना राजस्व जुटाने वाला है, इसे सरकार जानते हुए भी गोवंश के नाश के लिए तुली हुर्इ है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 10 सालों से केंद्र को राजस्व 13 प्रतिशत तक प्राप्त हुआ। यही नहीं 2010.11 में तो यह बढ़कर 3ए40ए500 करोड़ का राजस्व केंद्र को मिला। यह कृषि डीजीपी की 28 प्रतिशत है। गौतलब है यह तब है जब देश में पशुधन लगातार कम होता जा रहा है। कृषि में जानवरों का इतना बड़ा योगदान होते हुए भी केंद्र और राज्य सरकार क्यों इनके प्रति उपेक्षा का भाव रखती हैं, समझ से परे है।

वाकर्इ में यदि केंद्र सरकार कृषि और बागवानी को बढ़ाने की तरफ कदम उठाना चाहती है तो सबसे पहले घटते पशुधन पर रोक लगाना होगा। इसी तरह गौशालाओं को भी इस तरफ गौर करने की जरूरत है। देश में गोवंश लगातार कम हो रहा है। ऐसे में जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा गौशालाएं खोलीं जाएं। ऐसी गाय जो दूध नहीं देतीं या अपंग हैं उनके देखभाल की जरूरत है। इनके गोबर और मूत्र से ही एक बड़ी राशि खाद के रूप में मिलती है। यह रासायनिक खादों के कम इस्तेमाल का भी एक बड़ा विकल्प है। गोवंश की हिफाजत नारा लगाने से नहीं बलिक इसकी रक्षा करने व पालन से ही हो सकती है। इसपर ठंठे दीमाग से सोचने की जरूरत है।

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