खेतिहर मजदूरी को मनरेगा से जोड़ा जाना चाहिए

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अनूप आकाश वर्मा 

दरअसल, सवाल नज़रिए का है..ज़रा विचारिये, आज छटे वेतन आयोग ने सरकार की सेवा में कार्यरत एक चपरासी को तकरीबन १५ हज़ार रूपये मासिक दने की वकालत की है| अच्छी बात है| मगर अब उन किसानों की नियति को क्या कहेंगे जो पूरे माह दिन-रात एक कर खेतों में खून-पसीना बहा कर भी २ से ३ हज़ार रूपयों के बीच सिमट कर रह जाता है| ये ठीक है कि एक चपरासी और किसान की तुलना नहीं की जानी चाहिए मगर अर्थ के आधार पर इतनी व्यापक भिन्नता कहीं न कहीं मन में एक सवाल का रूप लिए रह-रह कर कौंधती ज़रूर है कि हमारे योजनाकार भी अपनी दोनों आँखों की तुलना करने में कितने माहिर हैं| जो एक पक्ष को सेवा के बदले तो उसका नियत वेतन दे देते हैं मगर इस देश का पेट भरने वाले किसानों व खेतिहर मजदूरों को विषम परिस्तिथियों में भी जीवित रहने के लिए कोई सुनिश्चित आर्थिक गारंटी नहीं देना चाहते और यकीन मानिए अर्थ की यही अनिश्चितता भी एक कारण रही है जिसने इस देश के हज़ारों किसानों को आत्महत्या करने पर विवश कर दिया व देश का पेट भरने वाले खुद भूखों मरने पर मजबूर हो गए| देश के विकराल कृषि संकट और किसानों द्वारा की जानेवाली आत्महत्याओं को केंन्द्र में रखते हुए पी. साईंनाथ ने काफी समय पहले लिखे अपने एक लेख में किसानों की आत्महत्याओं का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि वर्ष 1997 से 2005 तक के बीच देश भर में कुल 9,77,107 लोगों ने आत्महत्याएं कीं, जिनमें से 1,49,244 किसान थे| ये आंकड़े ज़ाहिर है अब बढ़ चुके हैं, माजूदा तस्वीर भी कम भयावह नहीं है| मगर सवाल यही है कि क्या हमारा राजनीतिक तंत्र एक कलावती के नाम को उठा कर संसद तक घुमाने भर के लिए ही है या कुछ मिसालात्मक कार्य ज़मीनी हकीकत का अमलीजामा भी पहनेंगे| क्या सरकार इस ओर एक स्वस्थ नज़रिया नहीं रख सकती जिसमें एक आम किसान(भूमिहीन व सीमान्त किसान)या खेतिहर मजदूर विषम परिस्तिथियों में भी अपने परिवार को आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस कर सके| इसमें कोई दो राय नहीं कि चाहे प्राकृतिक आपदा हो या फिर बाज़ार के चढ़ते-उतरते भाव उसका पहला सीधा असर छोटी जोत के किसानों व खेतिहर मजदूरों जिनके पास ५-७ बीघे जमीन होती है, पर ही पड़ता है| बड़ी जोत के किसान इससे विशेष प्रभावित नहीं होते| जिसके दुष्परिणाम भी समय-समय पर सामने आते रहते हैं| यकीन मानिए,यदि आज किसानों का सर्वेक्षण कराया जाए तो मौजूदा में से ज्यादातर ऐसे मिलेंगे जो कृषि व्यवसाय को तुरंत छोड़ देना चाहेंगे अगर उनके पास विकल्प मौजूद हो| इसलिए इसमें बड़ा सुझाव यह है कि हमारे योजना निर्माता जो बंद कमरों में बैठ कर ही देश की अमीरी-गरीबी की कागजी नूरा-कुश्ती में मग्न हो वातानुकूलित कमरों में कुर्सी तोड़ते हैं, उन्हें चाहिए कि छोटी जोत के किसानों को भी खेतिहर मजदूरों की क्षेणी में रखकर मनरेगा जैसी ४०,००० करोड़ की विशाल योजना को कृषि जगत से जोड़ कृषि व्यवसाय को मजबूती प्रदान करें| जो वर्तमान में उपेक्षाग्रस्त है और उसे ऐसी मेहनतकश योजना की सबसे ज्यादा ज़रुरत है| गौर करें तो मनरेगा में वही लोग कागजी तौर पर कार्यरत हैं जो पूर्व में खेतिहर मजदूर थे| हालांकि मनरेगा में होने वाला काम मशीनों से कम खर्च व कम समय में किया जा सकता है परन्तु राजनीतिक गणित इसमें मजदूरों की ही मांग करता है जो कहीं-कहीं नाहक भी लगती है| इसलिए जो काम मशीनों से हो सकता है उसमें सिर्फ रोजगार के नाम पर मजदूरों का प्रयोग गैर ज़रूरी है| परिणामत: इससे खेतिहर मजदूरों की लगातार कमी सामने आई है और कृषि व्यवसाय पूरी तरह प्रभावित हुआ है क्योंकि ये ठीक है कि कृषि क्षेत्र में भी काम मशीनों से होता है परन्तु कृषि जगत में मजदूरों का अपना विशेष महत्त्व है| जिनके अभाव में कृषि व्यवसाय निरंतर पिछड़ रहा है और कृषकों में भी भारी निराशा देखने को मिल रही है| गाँवों में हालात ये हैं कि अब खेती के लिए मजदूर खोजे नहीं मिल रहे हैं| जो मिलते भी हैं तो उनके भाव और ढंग इतने गैर वाजिब होते हैं कि किसी भी कृषि व्यवसायी का बजट बिगड़ जाए|

इसमें नज़रिए की ही बात है और जब तक सरकार कृषि और कृषकों को उदासीन भरी तिरछी नज़र से ही देखती रहेगी तब तक हमारा देश एक कृषि प्रधान देश होकर भी भुखमरी के संताप से पीड़ित रहेगा| समस्या ये है कि पाश्चात्य संस्कृति में हाईटेक हो चुकी सरकार आज कृषि को एक सफल व्यवसाय के तौर पर आंकने को तैयार नहीं है| जबकि किसी भी राष्ट्र का यह सबसे ज़रूरी और प्रमुख व्यवसाय होता है| आज जनसंख्या के हिसाब से अन्य देशों के मुकाबले हमारे पास कृषि योग्य भूमि औरों से अधिक है| मगर फिर भी हमारे यहाँ भूख से मरने वालों की संख्या विश्व अनुपात में ४० प्रतिशत है| भंडारण की कमी व कृषकों में कुछ फसलों के उत्पादन के प्रति उदासीनता को भी सरकार गंभीरता से नहीं लेना चाहती है| जिसके परिणाम भी कम घातक नहीं हैं| दलहन आदि में हमारी स्तिथि अच्छी नहीं है| खाने-पीने के दाम आसमान छू रहे हैं| अनाज भंडारण की हमारे पास आज भी कोई ठोस रणनीति नहीं है| लाहों टन अनाज प्रतिवर्ष सरकार की लापरवाही की भेंट चढ़ जाता है| गरीब कराहता रहता है| सरकार सोती रहती है| इसलिए इसे देश का पेट भरने वाले किसानों को उनके अपने हाल पर छोड़ सरकार जब संसद ठप्प का प्रायोजित खेल खेलती है तो और भी ज्यादा दुःख होता है| मगर किसान तो प्रकृति का गुलाम और स्वभाव से मजबूर है सो चाह कर भी हड़ताल पर नहीं जा सकता| ….और सरकार कृषि के प्रति उसके इस समर्पण का नाजायज लाभ उठाना अच्छी तरह जानती है वो उठा भी रही है मगर सरकार यदि थोड़ी सी समझदारी और दूरदर्शिता से इस कृषि व्यवसाय की समस्या को समझे और जनहित में थोड़ा भी विवेक इस्तेमाल करे तो हम आज भी अपनी जनसँख्या को भूख की मौत मरने से बचा सकते हैं|

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