प्राकृतिक आपदा से संकट में खेती-किसानी

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प्रमोद भार्गव

मध्यप्रदेश समेत पूरे देश  में बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि  से खेती-किसानी जबरदस्त संकट में हैं। इस संकट को भ्रष्ट  प्रषासनिक व्यवस्था और राजनीतिक लापरवाही ने किसान को बेहद मायूस कर दिया है। किसान को जहां खरीफ फसल की बोनी के दौरान सूखे ने परेशानी  में डाला वहीं इस ओलावृष्टि  और बेमौसम बरसात ने किसान को लगभग तबाह कर दिया है। इस कुदरती आपदा का असर मध्यप्रदेश , महाराष्ट्र, उत्त्तर प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश ,दिल्ली और हरियाणा में देखने में आया है। इस कारण जहां रवि फसलों की पैदावार में 20 फीसदी की गिरावट आ सकती है,वहीं दलहन उत्पादनों में 7 फीसदी तक हानि की आशंका  जताई जा रही है। जाहिर है,मौसम की यह मार जहां फसलों की गुवत्त्ता को प्रभावित करेगी, वहीं महंगाई बढ़ाने वाली भी साबित होगी।

मौसम की मार ने किसानों की मुसीबत बढ़ा दी है। इस मार से गेहूं, चना, मसूर, सरसों, धनिया, मटर, संतरा और आलू की फसलें प्रभावित हुई हैं। इस साल वैसे भी देरी से बारिश  होने के कारण समय पर रवि फसलों की बुबाई नहीं हो पाई थी। नतीजतन कृषि  मंत्रालय को पैदावर पिछली साल 10,60,65000 टन की तुलना में इस साल 10,03,40000 टन होने की उम्मीद थी,किंतु अब इसमें और गिरावाट की उम्मीद बढ़ गई है। जाहिर है, इस बार रवि फसलों की पैदावार में 20 प्रतिशत  तक की गिरावाट आएगी। जबकि दलों में 7 प्रतिशत  की पैदावार कम होने की उम्मीद है। इस कारण कृषि  मंत्रालय के ताजा अनुमान के अनुसार इस साल देश  का दलहन उत्पादन 184.3 लाख टन रह जाएगा। पिछले साल यह उत्पादन 197.8 लाख टन था। इस साल तुअर का उत्पादन 27 लाख टन और चने का उत्पादन 10 फीसदी घटकर 82.8 लाख टन रहने के आसार हैं। मौसम की इस मार की गुहार संसद में शून्य  काल के दौरान कोटा-बूंदी के लोकसभा सांसद ओम बिरला ने लगाई थी। बिरला ने राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, उत्त्तरप्रदेश, छत्त्तीसगढ़ व महाराष्ट्र  सहित विभिन्न राज्यों में हुई भारी बारिश  से नश्ट फसलों का मामला उठाकर किसानों को लगात के आधार पर मुआवजे की मांग केंद्र सरकार से की थी। लेकिन इस आवाज को केंद्र सरकार ने कोई ज्यादा तरजीह नहीं दी। जबकि उत्त्तर प्रदेश में तो फसल की बुरा हाल देखकर एक किसान आत्महात्या भी कर चुका है। क्योंकि पश्चिमी  उत्त्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा गेहूं की फसल होती है,जिससे किसानों की रोजी-रोटी चलती है। यहां के किसान की आमदनी का प्रमुख साधन रवि की फसल ही है। बेमौसम बरसात के पहले तक गेहूं समेत दलहन और आलू की फसलें बेहतर थीं। किसान को उम्मीद थी कि इस बार उसकी आर्थिक स्थिति सुधार जाएगी,लेकिन कुदरत की मार ने अन्दाता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। पूरे उत्त्तर प्रदेश में 30 से 40 फीसदी तक के नुकसान का अनुमान कृषि  विभाग ने लगाया हैं। जिसकी भरपाई न तो केंद्र सरकार करने को तैयार है और न ही उत्त्तर प्रदेश सरकार।

इस असामान्य बारिश  से मध्यप्रदेश के किसान भी बुरे हाल में हैं। कटाई के लिए तैयार खड़ी गेहूं-चना की फसल खेत में ही बिछ गई है। इससे दाने में दाग लगने या दाने छोटे रह जाने की आशंका  बढ़ गई है। चना और मसूर के साथ धनिया और सब्जियों के लिए भी यह बारिश  जानलेवा साबित हुई है। प्रदेश में इस साल 54 लाख हेक्टेयर में गेहूं की बुआई की गई है। जिन किसानों ने सिंचाई सुविधा के चलते बोवनी पहले की थी, उनकी फसल पक जाने के कारण कटने की स्थिति में है। जो अचानक बारिश  से गिली होकर एवं पानी की मार से खेतों में बिछ गई। इससे दाना कमजोर तो पड़गा ही उसमें दाग भी आ जाएंगे। लिहाजा किसान को फसल का उचित मूल्य नहीं मिलेगा। फसल का यह नुकसान ग्वालिया-चंबल संभाग से लेकर महाकौषल व विंध्य तथा मलवा-निमाड़ तक में भी है। मौसम की यह मार पश्चिमी  विक्षोभ के कारण बने जलवायु प्रसार का असर बताया जा रहा है। इस विक्षोभ का 90 प्रतिशत  तक गेंहू की फसल पर असर पड़ा है। इस बार किसानों पर मार इसलिए भी ज्यादा पड़ने वाली है, क्योंकि फसल के दागी होने के कारण किसान को बाजिव मूल्य मिलने वाला नहीं है, दूसरे सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य लगभग बंद कर दिया हैं। केंद्र सरकार द्वारा प्रदेश के कई जिलों में मनरेगा योजना से भी हाथ खिंच लिए गए हैं, गोया तय है किसान और किसानी से जुड़े मजदूरों को राहत कार्यों से होने वाली आमद भी बंद हो गई है। मसलन किसान चैतरफा आर्थिक संकट से घिरा अनुभव कर रहा है।

मध्यप्रदेश में यह हालत उस किसान की है जिसका मध्यप्रदेश की जीडीपी दर में योगदान 24 फीसदी है और पिछले चार साल से लगातार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान कृषि  कर्मण पुरूशकार लेकर खेती-किसानी का गौरव-गान करने में लगे हैं। बावजूद प्रदेश सरकार खेती-किसानी की चिंता की बजाय उद्योगपतियों की चिंता में कुछ ज्यादा ही लगे हैं। जबकि प्रदेश सरकार को जरूरत है कि वह कृषि  और कृषि  आधारित उद्योग-धंधों पर ज्यादा ध्यान दे। जिससे किसान को फसलों का अच्छा मूल्य मिले औरा कृषि  लाभ का धंधा साबित हो क्योंकि प्रदेश में खेती-किसानी की हालत लगातार बद्तर हो रही है। सिंचाई का रकवा बढ़ने के बावजूद 64 प्रतिशत  कृषि  भूमि अभी भी आसिंचित है। खेतो के आकार भी घट रहे हैं। 2000-01 में जहां प्रदेश में औसत जोत का आकार 2.22 हेक्टेयर था, वहीं 2010-11 में यह घटकर 1.78 हेक्टेयर रह गया है। एक कृषि  सर्वे के अनुसार पूरे प्रदेश में महज एक फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास 10 हेक्टेयर से ज्यादा खेती की जमीन है,जबकि लगभग 72 प्रतिशत  किसान ऐसे हैं,जिनके खेतों का रकवा 2 हेक्टेयर से कम है। साफ है, किसान की हरेक स्तर पर हैसियत सिकुड़ती जा रही है। ऐसे में मौसम की मार किसान की आर्थिक लचारी को और बढ़ाने का काम  कर रही है। ऐसे ही हालातों के चलते मध्यप्रदेश में भाजपा के पिछले एक दशक के कार्यकाल में लगभग 11 हजार किसान कृषि  संबंधी मजबूरीयों के चलते आत्महात्या कर चुके हैं।

इस बेमौसम बारिश  की मार से महाराष्ट्र  का किसान भी बद्हाली का शिकार हुआ है। पिछले साल सूखे से लड़ने वाला किसान अक्टूबर-नबंवर आते-आते ओले और बेमौसम बरसात से तबाह हो गया था। इससे वह उभर भी नहीं पाया था कि बरसात ने तबाही मचाकर फसलें चैपट कर दी। इस तबाही की चपेट में घर और मवेशी  भी आए हैं। महाराष्ट्र  में सरकार का खजाना खाली है और केंद्र सरकार की मदद इसलिए नहीं मिल पा रही है क्योंकि नियमों के मुताबिक केंद्र किसी राज्य की तभी मदद कर सकता है, जब फसलों पर 65 मिलीमीटर से ज्यादा बेमौसम बरसात की मार पड़ी हो। जबकि महाराष्ट्र  में जो 30 मिमी बरसात हुई है,उससे 3 ग्रामीणों की मौत हुई है और 12 जख्मी हुए हैं। 200 घर जमींदोज हुए हैं और लगभग एक सैंकड़ा पालतू जानवर मरे हैं। 7.49 लाख हेक्टेयर खेती को नुकसान हुआ है। लेकिन यह बेमौसम बरसात तय पैमाने से कम हुई है, इसलिए केंद्र सरकार आर्थिक मदद करने से मजबूर है। पैमाने की इस विरोधाभासी आकड़ेबाजी से रूबरू होने के बावजूद केंद्र सरकार इस मानक पैमाने को बदलने में कोई रुचि नहीं दिखा रही है, जबकि केंद्र सरकार को इस पैमाने को बदलकर नुकसान का वास्तविक आकलन करके किसानों को हर संभव राहत पहुंचाने की जरूरत है।

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