अजातशत्रु

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अब्दुल रशीद

बिहार के छोटे से गांव में जन्मे,भारतीयता की सजीव मूर्ति,एक ऐसे व्यक्तित्व जो सदा सत्य के लिए अहिंसा पथ पर चले, गांव से राष्ट्रपति भवन तक के लम्बे सार्वजनिक जीवन में जिनका कोई शत्रु नहीं, गांधी जी ने उन्हें अजातशत्रु कह कर सम्बोधित किया,जी हां वो थे भारत के सपूत देश के प्रथम राष्ट्रपति

महत्वपूर्ण तथ्य

1947- देश के आजाद होने के बाद नेहरू जी के आमन्त्रण और गांधी जी के आग्रह पर राजेन्द्र बाबू ने अन्न व कृषिमंत्री बनना स्वीकार किया। उनकी ही अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन और संविधान का निर्माण किया गया। 1950 में राजेन्द्र बाबू देश के प्रथम राष्ट्रपति बने उसके बाद 1952 और 1957 में भी राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए और 1962 तक राष्ट्रपति पद पर रहे। उस समय संविधान के अनुसार उनका वेतन 10 हजार रुपया प्रतिमाह था,लेकिन उन्होनें कहा के मेरे लिए इस वेतन का चौथाई भाग अर्थात ढाई हजार रुपए ही पर्याप्त है, मैं केवल इतना ही स्वीकार्य करुंगा। 1962 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

त्याग और देशभक्ति

आजादी के बाद देश में हुई शर्मनाक साम्प्रदायिक घटना से पटना भी अछूता नहीं रह सका । ऐसे संकटकालीन स्थिति में राजेन्द्र बाबू उस आग को शांत करने में लगे हुए थे, उनकी पुत्रवधू की मृत्यु का समाचार मिलने पर उन्होनें कहा साम्प्रदायिक दंगों के कारण हजारों लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु का जो दुःख है उसके सामने मेरा दु:ख तुच्छ है और वे पुत्रवधू के अन्त्योष्टि में शामिल नही हुए।

अवसर और सामर्थ्य होते हुए भी राष्ट्रपति जैसे उच्च पद का त्याग करना कोई साधारण काम नहीं था। महात्मा गांधी के बाद ऐसा प्रयोग राजेन्द्र बाबू ने कर दिखाया।

“उच्च आदर्शों के लिए तुच्छ अपनत्व का त्याग करना पड़ता है”।

आईना

साधारण से दिखने वाले असाधारण व्यक्तित्व के धनी वे उन नेताओं में से नहीं थे जो लफ्फाजी द्वारा मानवीय आदर्शों की खरीद-फरोख्त करते हैं। उन्होनें बापू के आदर्शों को अपने जीवन का मार्गदर्शक बना कर भारत के विकास का न केवल सपना देखा बल्कि जीवन भर बापू के आदर्शो पर चलकर भी दिखाया। आज कुछ लोग बापू के नाम पर वोट बैंक की राजनीति कर खुद को गांधीवादी कहते हैं उन्हें चाहिए की वे राजेन्द्र बाबू के जीवनी को पढे गांधीवादी होने का सही अर्थ समझ में आ जाएगा।

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