अकबर जैसे पहाड़ से टकराने को उद्यत हो गये महाराणा प्रताप

राकेश कुमार आर्य

pratap

महाराणा से अपेक्षित व्यवहार
महाराणा प्रताप के जीवन का उद्देश्य (राजकाज संभालने के पश्चात) अकबर का विरोध करना ही हो सकता था या कोई और भी? क्या उस समय कोई ऐसा मार्ग था -जिसे अपनाकर महाराणा प्रतापसिंह अपना और अपने देश का सम्मान बचा सकते थे?
यदि इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि जिन परिस्थितियों में महाराणा प्रताप ने मेवाड़ का मुकुट संभाला, उस समय प्रथमतया तो मेवाड़ के पास कुछ था ही नही, दूसरे यदि कुछ था भी तो वह पर्याप्त नही था? पर इससे भी बड़ी बात ये थी कि उन्हें मेवाड़ का शासक बनाया ही इसलिए गया था कि वे कभी भी अकबर के सामने शीश नही झुकाएंगे, और यही वचन वह अपने राज्यारोहण के समय के संबोधन में लोगों को दे भी चुके थे। इसलिए अकबर का हर स्थिति में सामना करना और उसे अपना शासक स्वीकार न करना उनके लिए अनिवार्य था।
महाराणा ने अपनाया कष्टों का मार्ग
ऐसी परिस्थितियों में महाराणा प्रताप के समक्ष प्रश्न यह था कि अब वह अकबर की अधीनता स्वीकार करें या न करें। उनकी अंतरात्मा ने उन्हें इस प्रश्न का उत्तर दिया कि स्वाभिमान की रक्षार्थ अकबर की अधीनता स्वीकार नही करनी है। अधीनता स्वीकार नही करने की स्थिति में बात स्पष्ट थी कि कष्टों का मार्ग अपनाया जाना अवश्यम्भावी था। महाराणा ने अंत में कष्टों का मार्ग ही अपना लिया।
राणा उदय सिंह के साथ हुए 1567 के संघर्ष (जिसे चित्तौड़ का तीसरा ‘शाका’ भी कहा जाता है) के समय से ही चित्तौड़ के उपजाऊ भाग पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया था। अब राणा के पास मात्र 300 वर्गमील के लगभग की परिधि का एक छोटा सा पर्वतीय भाग ही रह गया था। वास्तव में यह चित्तौड़ के दुर्दिन थे और उसका वह पुराना वैभव अब नही रह गया था जब उसकी दुन्दुभि ईरान से लेकर नेपाल तक बजा करती थी। पर जो कुछ भी था महाराणा प्रताप के अपने व्यक्तित्व का ही प्रताप था कि वह छोटे से भूभाग के राजा होकर भी इतिहास बनाने में सफल रहे।
जगमाल जा मिला अकबर से
जगमाल को जब राज्य सिंहासन नही मिला तो वह प्रतिशोध की ज्वाला में धधकता हुआ, अकबर से जा मिला। कहने का अभिप्राय है कि उसने जयचंदी भ्रातृदोह की परंपरा का पालन किया। अकबर ने भी जगमाल का स्वागत एक शासक के रूप में किया। ऐसा करने के पीछे अकबर की सोच यही रही होगी कि इससे महाराणा प्रताप की शक्ति दुर्बल होगी और उसे अपने नियंत्रण में लेने में सरलता भी होगी। अकबर सोचता था कि महाराणा प्रतापसिंह शीघ्र ही आत्मसमर्पण करने की स्थिति में आ जाएगा। पर अकबर का यह सोचना केवल सोचना मात्र ही बनकर रह गया, महाराणा प्रतापसिंह को अकबर जीवनभर कभी अपने आधीन न ही कर सका। इस प्रकार वह जीतकर हार गया और महाराणा जीता हुआ ही सिंहासन पर बैठा और जीता हुआ ही संसार से गया। क्योंकि महाराणा की मान्यता थी कि अकबर के सामने शीश ना झुकाना ही उनकी सबसे बड़ी जीत है। महाराणा प्रतापसिंह के साथ उनकी समस्त जनता खड़ी रही, परंतु अकबर का सोचना था कि जगमाल को अपने साथ रखकर वह मेवाड़ की जनता में फूट उत्पन्न कर देगा। जगमाल का कोई अपना विशेष व्यक्तित्व नही था इसलिए उसके अकबर के साथ जाने से भी मेवाड़ में शांति रही और राजपरिवार सहित कहीं से भी कोई विरोध या विद्रोह का स्वर दिखाई नही दिया।
अकबर चाहता था कि महाराणा दरबार में उपस्थित हों
जगमाल को अपने दरबार में रखकर अकबर ने सोचा था कि इससे मेवाड़ का नया शासक महाराणा प्रतापसिंह शीघ्र ही टूट जाएगा और वह अपने स्वाभिमान को एक ओर रखकर तेरे दरबार में तेरी चरण वंदना करने के लिए आ उपस्थित होगा। परंतु महाराणा प्रतापसिंह हिमालय की उस चोटी का नाम था, जिसे अकबर जितना छूने के लिए निकट आता जाता था वह उतनी ही ऊंची होती जाती थी। अकबर के गणित के अनुसार यह चोटी बहुत निकट दिखती थी, परंतु उस तक पहुंचने के लिए उसे जितनी घुमावदार घाटियों को पार करना था, उनके हर मोड़ पर खुलने वाले मार्ग से चोटी की दूरी उतनी ही अधिक होती जाती थी। यह उस मुगल शासक का दुर्भाग्य रहा कि वह इस महाराणा प्रतापसिंह नाम की भारत के स्वाभिमान की चोटी को छू नही पाया। इस चोटी पर लहराने के लिए उसने जिस ध्वज को बार-बार सजाया वह चोटी पर लहराने के काम तो नही आया, हां उसके स्वयं के लिए वह जीवन के अंतिम क्षणों में उसका कफन अवश्य बन गया।
चित्तौड़ बन गयी भारत का स्वाभिमान
मेवाड़ चाहे सिमटकर आज छोटा से राज्य में परिवर्तित हो गया था, परंतु उसके सरदारों-सामंतों और यहां तक कि वहां की जनता का मनोबल बहुत ऊंचा था, बच्चा हो या वृद्घ सभी के मन में चित्तौड़ को लेने की आग जल रही थी, और इसलिए हर व्यक्ति को अकबर से घृणा थी। मानो सारे भारत का स्वाभिमान इस लघु से राज्य में आकर सीमित हो गया था।
अब अकबर को धीरे-धीरे सत्य का पता चलने लगा कि महाराणा प्रताप झुकने वाली या टूटने वाली चट्टान का नाम नही है। उसने 1567 ई. से 1572 ई. तक के चार पांच वर्ष मेवाड़ के शासक और जनता को इसलिए दिये कि वे अधिक उपद्रवी (स्वतंत्रता प्रेमी) ना हों और अन्य राजाओं की भांति अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें। पर उसे ही समझ आने लगा कि तू गलत स्थान पर गलत प्रयोग कर रहा है।
महाराणा उठ खड़े हुए स्वाभिमान की रक्षा के लिए
उधर महाराणा प्रतापसिंह अपने सीमित साधनों और सीमित भूक्षेत्र में रहते हुए अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के उपायों में जुटे थे। वह अपने पास उपलब्ध भूक्षेत्र की स्वाधीनता को तो बचाये रखना चाहते ही थे, साथ ही चित्तौड़ को प्राप्त करने का उपाय भी खोज रहे थे। उनके पास सैनिक शक्ति का भी अभाव था, इसलिए वह कभी कभी यह भी सोचते थे कि अभी युद्घ को जितना हो सके टाला जाए। महाराणा एक पराजित शक्ति के नायक थे। वह समझौता चाहते थे पर स्वतंत्रता से समझौता न करने की शर्त पर। सचमुच महाराणा की यह शर्त बड़ी अटपटी थी समझौता और वह भी स्वतंत्रता से समझौता न करने की शर्त पर, और उधर अकबर की शर्त थी कि समझौता हम भी चाहते हैं, लेकिन चित्तौड़ की स्वतंत्रता को हमारे यहां बंधक रखने की शर्त पर।
इसलिए युद्घ अवश्यम्भावी था। अत: दोनों पक्ष ना चाहते हुए भी युद्घ की ओर बढऩे लगे।
जयमल-फत्ता की वीरता अकबर को स्मरण थी
यह ठीक था कि अकबर महाराणा प्रतापसिंह से इस शर्त के साथ समझौता चाहता था कि वह उनके दरबार में आकर अन्य राजपूत राजाओं की भांति उसकी अधीनता स्वीकार कर लें, पर अकबर की इस कथित उदारता के पीछे चित्तौड़ का वह कटु अनुभव भी था, जो उसने अभी 1567-68 ई. के युद्घ में चखा था। उसे जयमल और फत्ता की वीरता का शौर्यपूर्ण कृत्य भली प्रकार स्मरण था, और वह यह भी जानता था कि चित्तौड़ के दुर्ग में प्रवेश करने पर उसे वहां राख की ढेरी के अतिरिक्त कुछ नही मिला था, इसलिए इतनी महंगी ‘विजय’ के लिए आगे बढ़ता हुआ अकबर पीछे हट जाता था। वह जानता था कि यहां के बच्चों का खेल (जयमल और फत्ता उस युद्घ के समय किशोरावस्था में ही थे) देखना भी कितना घातक होता है।
महाराणा को समझाने के किये गये अनेक यत्न
‘तबकाते अकबरी’ के लेखक का मानना है कि महाराणा प्रताप ने 1572 ई. में जब मेवाड़ का राज्यभार संभाला था तो अकबर ने उन्हें समझा-बुझाकर अपने दरबार में बुलाने का प्रयास किया था। अकबर ने महाराणा को समझाने बुझाने के लिए चार बार अपने दूत भेजे थे। इन दूतों में पहला व्यक्ति अकबर का अतिविश्वसनीय सरदार जलाल खां कोची था, जिसे अकबर ने भीलवाड़ा के बागौर नामक स्थान से सितंबर 1572 ई. में भेजा था। परंतु वह निराश होकर 21 नवंबर 1572 ई. को लौट आया।
राजा मानसिंह और महाराणा प्रतापसिंह
1573 ई. में कछवाहा राजा मानसिंह के नेतृत्व में एक दूतमंडल गठित करके महाराणा के पास भेजा गया, परंतु इस दूत मंडल को भी निराश होकर ही लौटना पड़ा था। इस दूतमंडल की महाराणा प्रताप ने स्वयं अगवानी की थी, परंतु उस दूतमंडल की शर्तों से वह सहमत नही हो पाये। अंत में इस दूत मंडल के साथ महाराणा की अनबन हो गयी।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मानसिंह स्वयं ही महाराणा से मिलने के लिए उस समय गया था, जब वह एक विजय अभियान से लौट रहा था। कहा जाता है कि महाराणा ने उससे मिलने से इंकार कर दिया था और अस्वस्थ होने के कारण उसके साथ भोजन करने के लिए भेज दिया था।
इस भोज का आयोजन उदयसागर झील के किनारे किया गया। मानसिंह के बार-बार आग्रह के पश्चात भी जब महाराणा उसके साथ भोज के लिए उपस्थित नही हुए तो वह मारे क्रोध के बिना खाना खाये ही यह कहकर चल दिया था कि मैं शीघ्र ही महाराणा के सिरदर्द की औषधि लेकर उपस्थित होऊंगा।
महाराणा प्रतापसिंह मानंिसंह के इस कथन को सुन चुके थे, इसलिए उन्होंने मानसिंह से कह दिया कि -‘अपने फूफा (अकबर को) को भी मालिश के लिए साथ ले आना।’
महाराणा की कूटनीतिक भूल?
महाराणा के इस कथन ने जलती आग में घी का काम किया था। जिसने युद्घ की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। हमारा मानना है कि यहां महाराणा प्रताप से कूटनीतिक भूल हुई थी। उन्हें मानसिंह को अपने साथ लाने का हर संभव प्रयास करना चाहिए था, और उसको राजपूती परंपरा से परिचित कराते हुए, साथ ही स्वतंत्र भारत कराने की अपनी योजना से अवगत कराते हुए स्वतंत्रता के लिए साथ मिलकर काम करने की बात करनी चाहिए थी। यदि वह नही मानता तो भी उससे अपशब्द अपने स्तर पर प्रयोग नही करने चाहिए थे। परंतु जो कुछ भी हुआ वह महाराणा ने अति उत्साह और स्वाभिमान के अतिवादी प्रदर्शन के वशीभूत कर दिया। फलस्वरूप युद्घ अब निकट आ गया।
महाराणा को ‘समझाने’ का तीसरा प्रयास
अकबर नामा (भाग 3 पृष्ठ 89) के लेखक अबुल फजल के अनुसार-‘‘अकबर ने अपना तीसरा दूतमंडल 1573 ई. में अहमदाबाद से राजा भगवानदास के नेतृत्व में ईडर के मार्ग से भेजा था। उस दूतमंडल को यह स्पष्ट आदेश दिया गया था कि वह राणा के देश के विरोधी तत्वों को दबाते हुए उन्हें उचित दण्ड दे। राणा के साथ कैसा बर्ताव किया जाए? संभवत: अकबर यह बतलाना भूल गया था।’’
इस दूतमंडल को जिस प्रकार के कठोर कार्यवाही के आदेश दिये गये थे, उनसे स्पष्ट है कि इसे कुछ अधिक अधिकारों से युक्त करके महाराणा प्रताप के पास भेजा गया था। अकबर यह स्पष्ट करना चाहता था कि यदि प्यार से महाराणा प्रताप अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नही होते हैं तो उनके विरूद्घ शक्ति का प्रयोग भी किया जाएगा।
महाराणा प्रतापसिंह को जब इस दूतमंडल की जानकारी मिली तो उन्होंने इस दूतमंडल का भी आगे बढक़र स्वागत किया और सम्मान पूर्वक उनसे चर्चा की। उन्हें अपने निवास स्थान गोगूंदा में पूर्ण सम्मान के स्थान टिकाया भी। राजा भगवानदास जो कि इस दूत मंडल का नेतृत्व कर रहे थे महाराणा के सेवाभाव से अभिभूत भी हुए। पर महाराणा प्रताप ने पुन: स्पष्ट कर दिया कि स्वतंत्रता से कोई समझौता नही हो सकता है।
महाराणा पर अबुल फजल का मिथ्या आरोप
राजा भगवान दास ने अकबर से जाकर (राजा मानसिंह के विपरीत) कुछ अच्छी बातों के संकेत दिये कि महाराणा से संधि संभव है और वह शीघ्र ही मान जाएंगे। हो सकता है कि राजा भगवानदास ने ऐसे संकेत किसी अशुभ घटना को टालने के दृष्टिकोण से दिये हों। परंतु अबुल फजल ने उसके संकेतों को नया ही रूप दे दिया। उसने अकबरनामा में लिख दिया-
‘‘राणा कीका ने अपने पहले व्यवहार जो कि राजा मानसिंह के साथ किया गया था और शाही सेवा में उपस्थित होने में विलंब होने पर खेद प्रकट किया और कहा कि दुर्भाग्य के कारण मेरे मन में गलत विचार घर कर गये थे, जिसकी वजह से उक्त कारण बने, अब मैं उसके साथ अपने पुत्र अमरसिंह को बतौर धरोहर के रूप में भिजवाकर अर्जी भेज रहा हूं कि जैसे ही मेरा मन शांत हो जाएगा वैसे ही मैं स्वयं बादशाह की सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।’’
महाराणा प्रतापसिंह पर अबुल फजल का यह मिथ्या आरोप है। क्योंकि ऐसा कोई वर्णन या साक्ष्य हमें प्राप्त नही होता जिससे यह स्पष्ट होता हो कि महाराणा ने अपने पुत्र अमरसिंह को अकबर के दरबार में धरोहर के रूप में भेजा हो।
भारत में दूतत्व धर्म
महाराणा प्रताप दूतमंडलों के महत्व को भली प्रकार समझते थे। भारत की प्राचीन परम्परा रही है कि एक राजा को दूत के साथ सदा ही विनम्र भाव से वार्तालाप करना चाहिए, क्योंकि दूत किसी का प्रतिनिधि है। किसी वार्ता के अनुक्रम में सदा ही मुख तो एक दूत का होता है, पर उससे निकलने वाले शब्द सदा उस व्यक्ति के होते हैं जिसके प्रति वह दूतत्व धर्म का निर्वाह कर रहा होता है। इसलिए उस दूत के प्रति सुनने वाले को इसलिए धैर्य भाव अपनाना चाहिए कि वह जो कुछ कह रहा है-वह उसका अपना नही है। अत: दूत की कठोर भाषा को भी अच्छे वार्ता कार राजा को धैर्य से सुनना होता है, और उसी प्रकार धैर्य से ही उसे उत्तर देना होता है।
दूत विरोधी और शत्रुभाव रखने वाले पक्षों के मध्य संधि का एक अच्छा माध्यम होता है। अत: दूत का वध करना हमारे यहां अपराध माना जाता था। माना यह जाता था कि दूत अपने माध्यम से और अपने वाकचातुर्य से दोनों पक्षों में संधि कराना चाहता है और उसके लिए एक अच्छी पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। इसलिए उसे उचित सम्मान देना राजकीय शिष्टाचार में आता था।
यही कारण था कि महाराणा प्रतापसिंह अकबर के दूतमंडल के साथ विनम्रता का व्यवहार करते रहे।
अकबर का अंतिम दूतमंडल
अकबर की ओर से अंतिम दूतमंडल 1573 ई. में अक्टूबर माह में राजा टोडरमल के नेतृत्व में भेजा गया। महाराणा प्रताप ने इस दूतमंडल के साथ भी अच्छे वातावरण में स्वस्थ वार्तालाप किया। यद्यपि अबुल फजल ने लोगों को यहां भी भ्रम में डालने के लिए लिख दिया कि-‘‘राणा ने टोडरमल की बड़ी चापलूसी की और उसकी आज्ञाकारिता का प्रदर्शन किया।’’
दामोदरलाल गर्ग लिखते हैं-‘‘उपरोक्त वार्तालापों में राणाप्रताप ने बिना गर्म हुए जिस गंभीरता का परिचय दिया उसकी हमें दाद देनी पड़ेगी। अकबर जैसे शक्ति संपन्न बादशाह के साम-दाम-दण्ड-भेद पूरित प्रस्तावों को प्रताप ने बड़े धैर्य से सुना बगैर, विरोध प्रदर्शन किये जहां अपनी कुछ मजबूरियां बताईं वहीं दिलासा देकर उन्हें आशापूर्ण किंतु अनिश्चित मानसिकता में विदा करना, यह केवल राणा प्रताप के लिए ही संभव था।’’
महाराणा ने खोज निकाला उपाय
महाराणा प्रतापसिंह यह भलीभांति जानते थे कि अकबर की ओर से उन्हें समझाने के लिए जो दूतमंडल भेजे जा रहे हैं, वे समझाने के लिए कम और झुकाने के लिए अधिक भेजे जा रहे हैं। अकबर उनसे अपनी शर्तों पर संधि करना चाहता था, और उन शर्तों में सबसे घातक और अपमानजनक शर्त यह थी कि महाराणा प्रतापसिंह को अकबर के दरबार में उपस्थित होकर उसे शीश झुकाना था। जो महाराणा को किसी भी स्थिति में स्वीकार नही था। इसलिए महाराणा प्रतापसिंह ने चित्तौड़ की स्वाधीनता के लिए उपाय खोजने आरंभ किये। ऐसी परिस्थितियों में उन्होंने अंतत: एक उपाय खोज निकाला।
महाराणा ने अपने चित्तौड़ वासियों के लिए एक उद्घोषणा जारी करा दी कि जिनको हमारी अधीनता में रहना स्वीकार हो वे सभी लोग अपने परिवारों सहित अपने घर द्वार छोडक़र इस पर्वत पर आ जाएं। जो लोग ऐसा नही करेंगे वे शत्रु समझे जाएंगे।
महाराणा की सफल योजना से चिढ़ गया था अकबर
महाराणा की इस उद्घोषणा का चमत्कारिक प्रभाव हुआ। चित्तौड़वासी अधिकांश जनता वहां से उठकर पर्वत की ओर चल दी। फलस्वरूप मेवाड़ राज्य निर्जन हो गया, हरी-भरी फसलें सूखा गयीं और सर्वत्र सुनसान जंगल व्याप गया। इससे अकबर को इस राज्य से होने वाली आय प्रभावित हुई। जिस कारण अकबर को बहुत क्रोध आया।
यहां देखने वाली बात ये है कि महाराणा के एक संकेत पर सारा मेवाड़ निर्जन हो गया। सब लोग भूखे मरने के लिए और देश सेवा के लिए अपना सब कुछ छोडक़र राणा की शरण में आ गये। विश्व इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलने दुर्लभ हैं, जब विजित क्षेत्र की जनता से पराजित राजा के उत्तराधिकारी ने ऐसी अपील की हो और जनता अपना घर द्वार व खेत खलियान सब कुछ छोडक़र अपने राजा के साथ आ खड़ी हुई हो। पर यह भारत है और ऐसा इतिहास केवल भारत ही रच सकता है।
कर्नल टॉड का कथन है-‘‘अकबर बादशाह ने जब राणा प्रताप के विरूद्घ युद्घ की तैयारियां कीं तो जो राजपूत राजा उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे उन सभी ने अकबर का साथ देने के लिए वचन दिया। इन राजाओं का साथ देने का कुछ और भी कारण था। जो राजा मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर चुके थे और अकबर से मिल चुके थे राणा प्रताप ने उनको पतित समझकर न केवल उनसे संबंध उसने स्वयं तोड़ लिया था, बल्कि उनसे कोई संबंध न रखने के लिए उसने दूसरे राजपूतों को उत्तेजित किया।
उस समय अवस्था यह थी कि राजस्थान के लगभग सभी राजपूत राजा मुगल साम्राज्य से भयभीत होचुके थे और इसलिए उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार की थी। बूंदी का झड़ा राजा किसी प्रकार अपनी मर्यादा को सुरक्षित रख सका था।’’
महाराणा परिस्थितियों से पूर्णत: परिचित थे
महाराणा प्रतापसिंह अपने विरूद्घ हो रही तैयारियों से क्षण प्रतिक्षण अवगत हो रहे थे। इसलिए वह भी अपनी तैयारियों में जुट गये। भारत में महाभारत के पश्चात यूं तो धर्म की स्थापनार्थ और अधर्म के विनाशार्थ एक नही कई युद्घ हो चुके थे और उनके परिणाम भी युगांतरकारी रहे थे, पर अब हल्दीघाटी का युद्घ उन युद्घों से कुछ अर्थों में भिन्न था। उदाहरण के रूप में यहां ‘दुर्योधन’ पक्ष के साथ धर्मभ्रष्ट राजा अपने ‘युधिष्ठिर’ को छोडक़र जा मिले थे।
यह देश का दुर्भाग्य ही था कि हमारे अपने कई लोग ‘दुर्योधन’ की जीत को ही ‘युधिष्ठिर’ की जीत के समान मान रहे थे। इसमें एक पराजित शक्ति (चित्तौड़ के महाराणा प्रतापसिंह) को अपनी वीरता का परिचय देना था और एक विदेशी शासक (बादशाह अकबर) को अपने ‘देशी’ होने का परिचय देना था।
युद्घ का सज गया साज
अकबर ने अपने पुत्र सलीम को इस युद्घ का नायक बनाकर भेजा। (वैसे ये कथन असत्य है, जिस पर हम आगे चलकर प्रकाश डालेंगे।) महाराणा प्रताप भी कई हजार राजपूतों की सेना के साथ युद्घ के लिए प्रस्थान कर चुके थे। सलीम के साथ महाराणा प्रताप का छोटा भाई शक्तिसिंह भी आया था। जिसे महाराणा प्रतापसिंह ने ही अपने राज्य से बहिष्कृत कर दिया था। जबकि जगमाल नामक महाराणा का भाई पूर्व से ही अकबर के दरबार में रह रहा था। जब सगे दो भाई और अधिकतर राजपूत राजा महाराणा के विरूद्घ शत्रु के साथ खड़े हों और जब शत्रु को अपनी सेना तैयार करने के लिए अफगानिस्तान ईरान तक का क्षेत्र मिला हो और महाराणा के पास केवल 300 वर्गमील का क्षेत्र ही अपनी सेना तैयार करने के लिए मिला हो, तो उस समय के लिए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मुकाबला राई और पहाड़ का है। पर महाराणा भी अदम्य साहस की प्रतिमूत्र्ति थे। इसलिए हटे नही और सारी विषमताओं को समझकर भी उन्हें अपने अनुकूल बनाने के लिए युद्घ के लिए सन्नद्घ हो गये। बात स्पष्ट है कि ‘‘वे रूके नही और हम झुके नही।’’
क्रमश:

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