अक्षय तृतीया का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

-मृत्युंजय दीक्षित-

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21 अप्रैल पर विशेषः-

हिंदू धर्मों में पर्वों की एक महान श्रृंखला  है जिसके अंतर्गत वैषाख माह की षुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया का पर्व मनाया जाता है। अक्षय तृतीया का पर्वों में अद्वितीय स्थान है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि इसदिन जो भी कार्य मिलते हैं उनका अक्षय फल मिलता है। वैसे तो सभी 12 माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया शुभ होती है किन्तु वैशाख मास की तिथि की युगादि तिथियों में गणना की जाती हैं। मान्यता है कि इसी दिन से सतयग और त्रेतायुग का प्रारम्भ हुआ था। इसी दिन मान्यता है कि भगवान विष्णु के नर- नारयण, हयग्रीव और परशुराम जी के स्वरूपों का भी अवतरण हुआ था। इसी दिन भगवान बद्रीनाथ की प्रतिमा स्थापित करके पूजा की जाती है। अक्षय तृतीया के दिन श्री लक्ष्मी नारायाण के  दर्षन किये जाने की परम्परा है। प्रसिद्ध बद्रीनाथ के कपाट भी इसी दिन खुलते हैं तथा पवित्र चार धाम की यात्रा का शुभारम्भ भी किया जाता है।

वृंदावन स्थित श्रीबांके बिहारी जी मंदिर में भी केवल इसी दिन श्रीविग्रह के चरण दर्शन होते हैं। अन्यथा पूरे वर्ष तक पूर्ण वस्त्रों से ढंके रहते हैं। पद्मपुराण के अनुसार अक्षय तृतीया को अपराहन व्यापिनी मानना चाहिए। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था। अक्षय तृतीया का अत्यंत महत्व है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि इस दिन से प्रारम्भ किया गया कार्य अथवा दान का कभी क्षय नहीं होता। मान्यता है कि इस दिन बिना पंचांग देखे कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। इस दिन नवीन वस्त्र धारण करने,नई संस्था, समाज आदि की स्थापना व उदघाटन का कार्य करना षुभ रहता हैं। अक्षय तृतीया के दिन कोई भी शुभ मांगलिक कार्य किया जा सकता है। यही कारण है कि वर्तमान समय में आर्थिक उदारीकरण के दौर में हर प्रकार की कंपनियां अपने उत्पादों को बड़े पैमाने पर बाजार पर उतारती हैं। विशेष रूप से सोना- चांदी, हीरे जवाहरात आदि के व्यापारी विशेष तैयारियां करते हैं। इस दिन भागवत पूजा व गंगा स्नान करने से पाप नाश होता है। इस दिन किया गया जप, तप, हवन , स्वाध्याय,दान भी अक्षय हो जाता है। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती हैं। यह भी  माना जाता है कि यदि इस दिन मनुष्य अपने जाने- अनजाने में किये गये अपने पापों पर भगवान से क्षमा मांगे व प्रायष्चित करे तो वह भी सफल हो जाता है और उस मनुष्य को भगवान पापमुक्त कर देते हैं। अतः आज के पवित्र दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में अर्पित करते हुए उनसे सदगुणों का वरदान मांगने की परम्परा है।

अक्षय तृतीया के अवसर भगवान परशुराम की जयंती भी काफी धूमधाम व उत्साह के साथ मनायी जाती है। स्कंदपुराण व भविष्यपुराण में उल्लेख है कि रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने भगवान परशुराम के रूप में जन्म लिया था। भगवाना परशुराम के पिता जमदग्नि हैं। दक्षिण भारत विशेषकर कोंकण आदि क्षेत्र में परशुराम जयंती विशेष उत्साह व धूमधाम के साथ मनायी जाती है। परशुराम जी की पूजा करके उनको विधिवत अर्ध्य देने का प्रचलन है। साथ ही विवाहित महिलायें और युवतियां इस दिन गौरी- पूजा करती हैं और उसके बाद मिठाई, फल आदि का भोग वितरित करती है।

अक्षय तृतीया का विभिन्न प्रांतों में भी प्रचलन है। बुंदेलखण्ड में यह पर्व अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें युवतियां अपने भाई पिता ,गांव, घर और परिवार के लोगों को शगुन बांटती हैं। साथ ही गीत गाती है। अक्षय तृतीया पर राजस्थान में वर्षा के लिए षगुन निकाला जाता है। वर्षा की कामना की जाती है। युवतियां घर- घर जाकर शगुन गीत गाती है। लड़के पतंग उड़ाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृषि कार्य करने से सुख समृद्धि आती है।

अक्षय तृतीया का जैनधर्म में भी विशेष महत्व है। यह जैनधर्म का महान पर्व है। जैन धर्म के महान प्रथम तीर्थंकर श्रीआदिनाथ भगवान ने सत्य एवं अहिंसा का प्रचर करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक सुख एवं पारिवारिक सुखों का त्याग करके जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया था। भगवान श्रीआदिनाथ ने लगभग 400 दिवस की तपस्या के पश्चात पारायण किया था। यह लंबी तपस्या थी। जैनधर्म में इसे वर्षीतम कहा जाता है। आज भी जैन धर्मावलम्बी वर्षीतम करके अपने आप को धन्य समझते हैं। यह तपस्या प्रत्येक वर्ष कार्तिक केे कृष्णपक्ष की अष्टमी से प्रारम्भ होकर दूसरे वर्ष अक्षय तृतीया के दिन पारायण करके समाप्त होती है। जैनधर्म के लोग अक्षय तृतीया के दिन विषाल पैमाने पर पारायण का आयोजन करते हैं। जहां पर उनके सम्बंधी तपस्या करने वालों को पारायण कराते हैं। धार्मिक गतिविधियों से ओतप्रोत  इस भव्य समारोह में संवेदनाएं स्वतः ही उमड़ पढ़ती है। चारों ओर हर्ष, उमंग और उत्साह का वातावरण चरम सीमा पर होता है। चारों दिशाओं में पर्व का उत्साह और नवीनता का जोश देखते ही बनता है। यही कारण है कि भारत पर्वों की महान धरती है।

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