आर्यसमाज के सभी अनुयायियों को एक मन व हृदय वाला होकर पूरी निष्ठा से नियमों का पालन करना चाहिये

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मनमोहन कुमार आर्य

आर्यसमाज संसार के सभी मनुष्यों को उनके कर्तव्यों का बोध कराने के साथ जीवनयापन में आवश्यक सभी विषयों का सत्य व यथार्थ ज्ञान कराने वाली आन्दोलनात्मक संस्था है जिसका आधार ईश्वरीय ज्ञान वेद है। वेद सृष्टि की आदि में उत्पन्न हुए थे। महर्षि दयानन्द ने वेदोत्पत्ति का पूरा प्रकरण अपने विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में तर्क व युक्तियों के साथ प्रस्तुत किया है। सभी सदस्यों को इस पर पूरी श्रद्धा व निष्ठा रखने के साथ इसको सूक्ष्मता से समझने का प्रयास करना चाहिये। आर्यसमाज के सत्संगों में विद्वानों को सभी सदस्यों व श्रोताओं को वेदोत्पत्ति के रहस्यों को समझाने का प्रयत्न भी करना चाहिये। वेदोत्पत्ति से संबंधित जितने पक्ष व प्रतिपक्षी प्रश्न हो सकते हैं, उसका भी समाधान हमें जानना चाहिये। ऐसा होने पर ही हमारी वेदों पर श्रद्धा होगी ओर हम वेदों की शिक्षाओं व मान्यताओं के अनुसार अपना जीवन बना सकते हैं और इसके बाद उनका अन्य लोगों में प्रभावशाली रीति से प्रचार भी कर सकते हैं। किसी भी विषय का अधकचरा ज्ञान मनुष्य को हानि ही पहुंचाता है। यदि थोड़ा प्रयत्न कर उसे समझ लिया जाये तो इससे जीवन भर लाभ ही लाभ होता है। इससे हम कभी भ्रमित व गुमराह नहीं हो सकते। हमें यह भी अनुभव करते हैं कि यदि हम आर्यसमाज के सदस्य बने हैं तो हमें अपने विरोधी विचारों वाले मतों व संस्थाओ ंके साथ किसी भी प्रकार के स्वार्थ नहीं जोड़ने चाहिये। हमें उनसे अनेक प्रकार के प्रलोभन मिल सकते हैं परन्तु हमें उसमें फंसना नहीं चाहिये। अपने तो अपने ही होते हैं। दूसरे अपने बनाये जा सकते हैं, यह विवादास्पद है। कई बार आर्यसमाज में कुछ लोगों के आचरण व व्यवहार को देखकर लगता है कि वह अपने कुछ आचरणों व व्यवहारों से आर्यसमाज को कमजोर कर रहे हैं। लोग उनके उस आचरण से दुःखी होते हैं और उनका मान सम्मान प्रायः समाप्त हो जाता है। बाद में विपरीत परिस्थितियों में आर्यसमाज के अपने ही कुछ लोग काम आते हैं। अतः हमें आर्यसमाज को आधा अधूरा ही नहीं शत प्रतिशत अपनाने का प्रयास करना चाहिये। इसके लिए जीने व मरने का जज्बा होना चाहिये।

 

आर्यसमाज के इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि जब आर्यसमाज के लोग आपस में एक परिवार की तरह मिल जुल कर रहा करते थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी और पं. लेखराम जी दोनों आपस में गहरे मित्र थे और दोनों के परस्पर सम्बन्ध भी आदर्श सम्बन्ध थे। समय के साथयह स्थिति बदलती गई और आर्यसमाज में ऐसे लोग आ गये जो पदलिप्सा व अन्य प्रकार के स्वार्थों से ग्रस्त थे। यह लोग संख्या बल से अधिकारी बनते रहे और योग्यता पीछे जाती रही। संख्या बल में कमी देखी तो विघटन व मुकदमें आदि कर करवा दिये। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने बड़ी पीड़ा के साथ सार्वदेशिक सभा की एक घटना लिखी है कि जब सभा के निर्वाचन में लोगों ने समझा बुझा कर किसी तरह से वीतराम स्वामी आत्मानन्द सरस्वती जी को अन्तरंग सदस्य के लिए प्रत्याशी के रूप में खड़ा किया। दूसरे पक्ष की ओर से एक अधिवक्ता महोदय उनके विरोध में खड़े किये गये। यह अधिवक्ता महोदय कोई अधिक ऋषि-भक्त या आर्यसमाज-भक्त नहीं थे। स्वामी आत्मानन्द जी के समक्ष तो तुच्छ थे। निर्वाचन के परिणाम में स्वामी आत्मानन्द जी हार गये व अधिवक्ता महोदय विजयी हुए। इस घटना से स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी को बहुत बुरा लगा और उन्होंने इस अपमान के कारण सार्वदेशिक सभा से अपना त्यागपत्र दे दिया। आज भी यही स्थिति सभाओं और स्थानीय स्तर के निर्वाचनों में देखने को मिलती है। हम जीवन में आर्यसमाज में सक्रिय रहे परन्तु हमारा सौभाग्य रहा कि हम कभी पदाधिकारी तो क्या आर्यसमाज की स्थानीय ईकाई की अन्तरंग सभा के कभी सदस्य तक नहीं बने। इस घटना को लिखने का हमारा उद्देश्य इतना मात्र है कि आर्यसमाज में गुण, कर्म व स्वभाव को वरीयता दी जानी चाहिये परन्तु संख्या बल के सम्मुख योग्यता की महत्व क्षीण हो जाता है।

 

हम आर्यसमाज के अनुयायियों को कुछ भी हो जाये, कितना भी तिरस्कार समाज के भीतर व बाहर क्यों न हो, हमें आर्यसमाज के प्रति निष्ठावान व अपने कर्तव्यों की पूर्ति में सक्रिय व पुरुषार्थी बने रहना चाहिये। स्वामी दयानन्द जी के जीवन की एक घटना भी हमें स्मरण हो आयी है। एक बार वह किसी अंग्रेज अधिकारी से मिले। दोनों परस्पर परिचित थे। अंग्रेज अधिकारी ने स्वामी दयानन्द जी को कहा कि आप जन्मना जातिवाद व छुआछूत आदि कुरीतियों को नहीं मानते। मैं आपके साथ भोजन करना चाहता हूं। क्या आप मेरे साथ भोजन करेंगे? इस पर स्वामी जी ने उन्हें जो उत्तर दिया वह ध्यान देने योग्य है। स्वामी जी ने उन अधिकारी महोदय को कहा कि यह बात सत्य है कि मैं आपके साथ भोजन कर सकता हूं। मुझे इसमें कोई आपत्ति व विरोध नहीं है परन्तु मेरे जो अनुयायी हैं उनकी मानसिक अवस्था ऐसी नहीं है कि आपके साथ भोजन करने पर वह मेरी उस भावना को यथावत समझ सकेंगे। आपके साथ भोजन करने पर वह भ्रमित होकर इस घटना को अन्य प्रकार से ले सकते हैं। मैं आपके साथ भोजन बाद में करुंगा परन्तु उससे पहले मुझे अपने बन्धुओं से सभी प्रकार के भेदभावों को दूर कर यह निश्चय कराना होगा कि यदि मैं व एक ईसाई वा अंग्रेज सज्जन परस्पर मिलकर भक्ष्य पदार्थों का बना हुआ शुद्ध भोजन करते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है। इस घटना से यह शिक्षा मिलती है कि हमें पहले अपने समाज का सुधार करना चाहिये व उसे संस्कारित करना चाहिये। उसके बाद अपने विरोधी मत वालों से मित्रता व निकटता करनी चाहिये। यदि हम अपने विरोधियों की प्रशंसा और अपनों की आलोचना व निन्दा आदि करते रहेंगे तो इससे अच्छे परिणाम न मिलकर लोग हमें स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ लोगों के जीवन में यह स्थिति कभी न कभी बन सकती है। अतः हमें पहले अपने वैदिक धर्मी परिवारों के प्रति निष्ठावान होना है फिर अपने पौराणिक भाईयों और उसके बाद अन्य किसी मत व मतान्तर के प्रति। आर्यसमाज का यह सिद्धान्त है कि सभी मतों के लोग सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान ईश्वर की सन्तान हैं। सब आपस में भाई-बहिन हैं। परन्तु यह व्यवहार दोनों ओर से होना चाहिये। एकतरफा व्यवहार हमेशा हानि पहुंचा सकता है। हम यदि मित्रता में दो कदम आगे चलते हैं यह अनिवार्य होना चाहिये कि दूसरा व्यक्ति भी हमारे साथ समान रूप से दो कदम चले, दो कदम नहीं तो न्यूनतम एक कदम तो उसे आगे सही दिशा में बढ़ाना ही चाहिये। आर्यसमाज का वेद की मान्यताओं पर आधारित नियम सर्वत्र उपयोगी प्रतीत होता है जो कहता है कि ‘सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये।’

 

इस लेख में हम यह कहना चाहते हैं कि हम वैदिक धर्मी ऋषि भक्तों को एक मन व एक मत, एक विचार, एक सुख-दुःख, एक भाषा का होने के साथ एक दूसरे का सहयोगी व आपस में सपर्पित भावनाओं वाला होना चाहिये जिससे जीवन में किसी भी मुसीबत की घड़ी में हम परस्पर विभाजित न होकर एक चट्टान के समान खड़े रहें। हम सभी ऋषि भक्त इसकी आवश्यकता अनुभव करते हैं। हमें संगठनसूक्त की भावनाओं के अनुरूप लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर व प्रयत्नशील होना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

 

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