‘भारत में उत्पन्न सब लोगों को देश की उन्नति तन, मन व धन से करनी चाहिये’

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मनमोहन कुमार आर्य

हम बहुधा देखते कि कुछ स्वदेशवासियों व संस्थाओं में स्वदेश भक्ति कम है अथवा नहीं है। देश और मातृभूमि को सबसे ऊंचा व बड़ा नहीं माना जाता। ऐसे भी लोग हैं जो विदेशी मत-मतान्तरों व उनके अनुसार जीवन जीने में ही अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों का आचार, विचार व व्यवहार विदेशी लोगों के समान देखा जाता है। यहां तक देखने में आता है कि बहुत से लोगों ने अपने खान-पान व विवाह आदि के नियम भी विदेशी लोगों का अंधानुकरण कर उनके अनुरूप बना लिये हैं। ऐसे लोगों में अधिकांश अपने देश के ज्ञानवान व मानवता के पुजारी ऋषि-मुनि आदि पूर्वजों की प्रशंसा तो क्या करेंगे अपितु उसके स्थान पर इनकी पेट भर कर निन्दा करते हैं। ऐसे लोगों को यूरोप आदि देशों के लोग व उनके मिथ्या आचार-विचार भी भारत के महर्षियों के मानवता के हितकारी नियमों से अधिक अच्छे लगते हैं और यह उनकी दिल भर कर प्रशंसा करते हैं। इनका भ्रम व मिथ्या विश्वास है कि आर्यावर्तीय लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं। इन लोगों को वेदों, दर्शन एवं उपनिषद आदि ग्रन्थों का कोई ज्ञान नहीं होता परन्तु विदेशी लोगों की देखा देखी इन सत्य शास्त्रों की प्रशंसा छोड़कर निन्दा करने में प्रवृत्त रहते हैं। ऐसे आचार-विचारों की समालोचना करते हुए महर्षि दयानन्द जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में लिखते हैं कि भला जब आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए हैं, इसी देश का अन्नजल खाया पीया, अब भी खातेपीते हैं, तब अपने मातापितापितामह के मार्ग को छोड़ दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना, इस देश की संस्कृत विद्या से रहित होने पर भी अपने को विद्वान प्रकाशित करना, अंग्रेजी आदि पढ़कर पण्डिताभिमानी होकर अविवेकपूर्वक व्यवहार करना मनुष्यों का स्थिर और वृद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता है?

 

जापान, चीन, रूस, अमेरिका व इंग्लैण्ड आदि देशों के लोगों को देखते हैं तो उनमें स्वदेशभक्ति का गुण समग्रता कइी दृष्टि से शायद हमसे अधिक दिखाई देता हैं। वहां जो दूसरे देशों के लोग रहते हैं वह भी उन देशों के नियमों व आचार विचारों का पालन करते हैं परन्तु भारत में ऐसा देखने में नहीं आता। इन बातों पर विचार करने पर हमें लगता है कि यह वेदों व प्राचीन भारतीय संस्कृति के संस्कारों के न होने के कारण होता है। जो व्यक्ति जिस देश में उत्पन्न हुआ है उसे वहां के पूर्वजों की परम्पराओं व ज्ञान एवं दर्शन का सूक्ष्मता से अध्ययन करना चाहिये। विदेशी मतों व स्वदेश के धार्मिक व सांस्कृतिक ज्ञान व परम्पराओं का अध्ययन भी करना चाहिये और सत्य को अपनाना व असत्य का त्याग करना चाहिये। हमारे देश में न तो ऐसे नियम बनाये गये हैं और न इसके प्रति जागृति ही देखने को मिलती है। सभी लोग आज कल सुख सुविधाओं और भोग प्रदान संस्कृति ड्रिंक, ईट एण्ड बी मैरी को महत्व देते हैं। वह भूल जाते हैं कि ड्रिंक एण्ड ईट उनके हाथ में है परन्तु इसका परिणाम बी मैरी उनके अपने हाथ में नहीं है। इस विचारधारा का परिणाम अधिक महत्वाकांक्षी होना, दुःख, रोग व अल्पायु आदि के रूप में सामने आता है। सबसे उत्तम मनुष्य वह होता है जो बहुपठित हो और प्राचीन ग्रन्थों का आलोचनात्मक अध्ययन करता हो। यह सत्यासत्य का निर्णय करने के लिये आवश्यक है। जिस मनुष्य ने अन्य ग्रन्थों के अलावा वेद, दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थप्रकाश, प्रक्षेपरहित मनुस्मृति सहित शुद्ध रामायण एवं शुद्ध महाभारत आदि ग्रन्थों को भी पढ़ा है, वही विवेकी बन सकता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से ही मनुष्य सत्य व असत्य को जान सकता है। स्कूली किताबों व ज्ञान-विज्ञान को पढ़कर मनुष्य विद्वान व विवेकी मनुष्य नहीं बनता। इसके लिये स्वाध्याय अत्यन्त आवश्यक है। यदि कोई अधिक ग्रन्थ न पढ़ सके तो उसे सृष्टि विषयक तथ्यों एवं अपने कर्तंव्यों के ज्ञान के लिये सत्यार्थप्रकाश तो पढ़ना ही चाहिये। यदि पूरा न पढ़ सके तो इस ग्रन्थ के आरम्भ के दस या ग्यारह समुल्लास तो अवश्य ही पढ़ने चाहिये। इसके बाद वह आगे पढ़कर अन्य विद्या-अविद्यायुक्त मतों का अध्ययन भी कर सकता है और अपनी विवेक बुद्धि से सभी मतों के गुण व दोषों का निर्णय कर सकता है। जहां तक ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान का प्रश्न है वह तो केवल वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों को पढ़कर ही प्राप्त होता है। इसके साथ ही मनुष्य को विशिष्ट विद्वानों के भिन्न-भिन्न विषयों पर व्याख्यान भी सुनने चाहियें। हमें अपने जीवन में स्वाध्याय, विशिष्ट विद्वानों की संगति एवं उपदेश श्रवण का अवसर मिला है। हमें इससे लाभ हुआ है। यदि हम उपर्युक्त ग्रन्थों का स्वाध्याय-अध्ययन व सच्चे निस्वार्थी विद्वानों की संगति नहीं करेंगे तो हम सत्य ज्ञान को कदापि प्राप्त नहीं हो सकते। यही कारण है कि यत्र-तत्र की अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर कोई ज्ञानी देखने में नहीं आ रहा है। वैदिक साहित्य के अध्ययन एवं योगाभ्यास आदि से मनुष्य ज्ञानी होता है।  हम यह भी अनुभव करते हैं कि वर्तमान युग का पठित व्यक्ति कर्म-फल सिद्धान्त से सर्वथा अपरिचित वा अनभिज्ञ है। कर्म-फल सिद्धान्त को जानने के लिये हमें ईश्वर, जीवात्मा और इस सृष्टि की उत्पत्ति के कारण, जीवात्मा के उद्देश्य व लक्ष्य को जानना होगा। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, जीवों को उनके पूर्वजन्मों को कर्मानुसार जन्म देने वाली व उनके भूतकाल व वर्तमान काल के कर्मों का सुख-दुःख रूपी फल देने वाली सत्ता है। उसी ईश्वर ने जीवों के कल्याण व उनके कर्मानुसार उन्हें सुख-दुःख व मोक्ष प्रदान करने के लिये इस सृष्टि की रचना की है। वही ईश्वर इसका पालन कर रहा है तथा उसी से इस सृष्टि की यथासमय प्रलय होनी है। प्रलय के बाद निर्धारित अवधि व्यतीत होने पर परमात्मा पुनः अपने सर्वज्ञ ज्ञान व सामर्थ्य के अनुसार सृष्टि की रचना कर अमैथुनी सृष्टि में जीवों को जन्म देते हैं और मनुष्यों को वेदज्ञान भी सुलभ कराते हैं। सृष्टि का दूसरा अनादि व नित्य पदार्थ जीवात्माएक चेतन, अणु-परिमाण, एकदेशी, सूक्ष्म, आंखों से न दीखने वाला, अल्पज्ञ, इच्छा-द्वेष-सुख-दुःख से युक्त, सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील एक अनादि, नित्य, अविनाशी, अनुत्पन्न, अमर, सनातन सत्ता है। ईश्वर संख्या में एक है और जीवात्माओं की संख्या अनन्त है। पूर्वजन्म के कर्मानुसार ईश्वर जीवों को इनकी जाति (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि), आयु व भोग (सुख-दुःख) निर्धारित कर भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देता है। मनुष्य जन्म भोग व अपवर्ग (मोक्ष) के लिए होता है। अपवर्ग मोक्ष को कहते हैं जो योग-साधना व सत्कर्मो को करके और ईश्वर का साक्षात्कार करने पर प्राप्त होता है। प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक सूक्ष्म परिणामिनी व विकारिणिनी सत्ता है। यह प्रकृति ही सृष्टि का उपादान कारण है। ईश्वर इस प्रकृति को ही अपने ज्ञान व शक्ति से रूप व नाम वाली सृष्टि की रचना करते हैं। यह जान लेने के बाद कर्म-फल सिद्धान्त समझा जा सकता है। जीवात्मा अनादि, अविनाशी सत्ता होने के कारण बार-बार कर्मानुसार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होकर पूर्वजन्म-जन्म-परजन्म के चक्र में फंसी रहती है। मनुष्य योनि उभय योनि होती है जिसमें मनुष्य शुभ-अशुभ कर्मों को करता है। ईश्वर न्यायाधीश के रूप में उसके प्रत्येक कर्म का फल देने के लिये उसे उसके कर्मां के अनुसार नाना योनियों में जन्म देते हैं। ईश्वर द्वारा जीव के प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्म का सुख व दुःख रूपी फल देना ही कर्म-फल सिद्धान्त कहलाता है। यह शुभ कर्मों का शुभ अर्थात् सुख रूपी तथा अशुभ कर्मों का दुःख के रूप में होता है।

 

कोई भी मनुष्य दुःख नहीं चाहता। दुःख दूर करने के लिये विद्या प्राप्ति की आवश्यकता सहित दुष्कर्मों व अशुभ कर्मों का त्याग करना है। तभी जन्म जन्मान्तरों में सुख व शान्ति मिलेगी। यदि हम विद्या प्राप्ति व शुभ कर्मों का आचरण व अशुभ व असत्य कर्मों का त्याग नहीं करेंगे तो यह निश्चित है कि हमारा यह जन्म व परजन्म निश्चय ही दुःखों से पूरित होगा। अतः मनुष्यों को मत-मतान्तरों के दुष्चक्र में न फंस कर सत्य मत व वेदों की सत्य विचारधारा का अध्ययन कर सच्चे ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के स्वरूप को जानकर सद्कर्म व ईश्वरोपासना, परोपकार, यज्ञ, दान व विद्याप्रचार के कार्यों को ही महत्व देना चाहिये। इसी से उनका कल्याण हो सकता है।

 

देश के प्रायः सभी लोग सत्य ज्ञान वा विद्या से दूर हैं। इस कारण वह अपने कर्तव्यों से भी अपरिचित हैं।  बहुत से लोग स्वदेश में उत्पन्न होकर अपने देश की धरती व इसकी वायु का सेवन करते हैं। इनसे उत्पन्न अन्न, दुग्ध, फल, निवास व सभी प्रकार की सुविधायें यहीं से प्राप्त करते हैं परन्तु अज्ञानवतावश अपने कर्तव्यों का निर्वाह न कर मिथ्या चक्रों में फंस जाते हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्य व असत्य के स्वरूप से परिचित कराने तथा कर्तव्यों की प्रेरणा करने के लिये ही वेदों का प्रचार किया था और आर्यसमाज की स्थापना की थी। लोगों की बहुधा सत्य व वेद में प्रवृत्ति न होने के कारण देशवासियों ने वैदिक सत्य सिद्धान्तों पर ध्यान नहीं दिया। वह लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति व धन, दौलत, सुख व सुविधाओं से आकर्षित होकर उसी में बह गये। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में तेजी से जनसंख्या बढ़ी और सब लोगों को भोजन, वस्त्र, शिक्षा, निवास, चिकित्सा, रोजगार आदि सुविधायें समान रूप से न्यायपूर्वक सभी को नहीं मिल सकीं। आज देश में बड़ी संख्या में धन कुबेर हैं तो वहीं प्रतिदिन भरपेट भोजन से वंचित 20 करोड़ से अधिक लोग हैं। यह संख्या अनेक देशों की जनसंख्या से भी अधिक हैं। देश के धनाड्य लोगों को इन निर्धन व साधनहीन लोगों की चिन्ता नहीं है। वर्तमान व्यवस्था से शायद सबको सामाजिक न्याय मिलना सम्भव नहीं है। इस स्थिति में इतना प्रचार तो सबको करना ही चाहिये कि जो इस देश में उत्पन्न हुआ है वह इस देश के प्रति अपने कर्तव्यों को जाने और विदेशी कुचक्रों व हानिकारक विचारधाराओं में न फंसे। देश से अविद्या व अन्धविश्वास भी दूर होने चाहिये और सभी सामाजिक परम्परायें सबके लिये कल्याणकारी एवं हितकारी होनी चाहिये जिससे भविष्य में हम उन दुःखों से बच सकें जो इससे पूर्व गुलामी के दिनों में हमें झेलने पड़े हैं। देश तभी संसार का उन्नत देश बनेगा जब इसके सभी लोग देशभक्त एवं स्वदेश के पूर्वज ऋषि-मुनियो तथा राम-कृष्ण-दयानन्द पर गौरव करने वाले होंगे।

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