गठबंधन की सरकार नीतियों के क्रियान्वयन में बाधक

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-कन्हैया झा-
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इस चुनाव के माहौल में प्रधानमंत्री पर लिखी गयी संजय बारू (लेखक) की पुस्तक बहुत चर्चा में है. लेखक यूपीए-1 के कार्यकाल में मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे. नब्बे के दशक में श्री मनमोहन सिंह ने वित्त-मंत्री के पद पर कार्य करते हुए देश की अर्थव्यवस्था को लाईसेंस-परमिट राज से मुक्त किया था. यूपीए-1 के दौरान अमरीका से नाभिकीय-ऊर्जा के अनुबंध करने के समय भी उन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया था. उनकी ईमानदारी, देशभक्ति, कार्यकुशलता एवं सौम्य स्वभाव के कारण सभी उनका आदर करते हैं. फिर आज उनको लेकर इतना दुष्प्रचार क्यों हो रहा है ?

वास्तव में समस्या के मूल में वह शासन व्यवस्था है, जिसकी कमियां पिछले दो दशकों से चली आ रही साझा सरकारों के कारण पूरी तरह से उजागर हुई हैं. यूपीए-1 सरकार वामपंथी दलों के सहयोग से बनी थी, जो पूंजीवादी अमरीका को अपना घोर शत्रु मानते हैं. शासन चलाने के लिए कुछ लक्ष्मण-रेखायें तय की गयीं, जिसके लिए दोनों ही ओर से कुछ उदारवादी रुख अपनाए गए थे. देश की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अणु-ऊर्जा के विकल्प को अपनाने का विचार किया. परंतू सन 1998 के अणु-बम विस्फोट के कारण, अमरीकी पाबंदियों के चलते, विश्व का कोई भी देश भारत को नाभिकीय-ईंधन देने को तैयार नहीं था.

अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बहुत प्रभावित थे. सन 2005 में क्रेमलिन में हो रहे एक समारोह में जॉर्ज बुश एवं उनकी पत्नी अपनी सीट से उठे और मनमोहन सिंह एवं उनकी पत्नी को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा:
“तुम भारतीय प्रधानमंत्री से मिलो. तुम जानती हो कि 100 करोड़ से भी अधिक जनसंख्या वाला भारत एक प्रजातंत्र है, जिसमें अनेक मतों एवं अनेक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं. इनकी अर्थव्यवस्था भी प्रगति पर है, और यह व्यक्ति इस देश को नेतृत्व दे रहा है.”
शुरू में अमरीकी राष्ट्रपति आदर से मनमोहन सिंह को ‘सर’ कहकर बुलाते थे. बाद में जब बुश भारत आये तो एक दोस्त की तरह से वे मनमोहन सिंह के कंधे पर हाथ रखकर चलते देखे गए थे. इन दोनों नेताओं के व्यक्तिगत प्रयासों से ही दोनों ही देशों में अनेकों प्रशासनिक बाधाओं के बावजूद नाभिकीय-अनुबंध का प्रारूप संसद की मंजूरी के लिए तैयार था.

भारत ने सन् 1974 में पहला परमाणु-बम विस्फोट किया था. तभी से भारत पर नाभिकीय अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर करने का अमरीकी दबाव था. भारत यह हस्ताक्षर नहीं करना चाहता था, क्योंकि वह चीन की ही भांति नाभिकीय अस्त्रों को विकसित करने के अपने विकल्प को कायम रखना चाहता था. इस अनुबंध से अमरीका भारत के लिए एक अपवाद (exception) बना रहा था. इस प्रकार भारत के लिए अपने प्रति पिछले चार दशकों से चले आ रहे भेदभाव को हमेशा के लिए ख़त्म करने का यह एक सुनहरा मौक़ा था.

इसी बीच वाम-पंथी दलों में नेतृत्व परिवर्तन से पार्टी में कट्टरवादी लोगों का वर्चस्व हो गया. उन्होंने नाभिकीय अनुबंध के विरोध को जनता के समक्ष ले जाने के लिए प्रेस-वार्ता का आयोजन किया, जबकि प्रधानमन्त्री ने इस विषय पर संसद में वक्तव्य दिया था. साथ ही उन्होंने सभी पार्टियों के नेताओं को अपने निवास-स्थान पर बातचीत के लिए आमंत्रित किया, जहां पर प्रशासनिक अधिकारियों ने अनुबंध का पूरा विवरण उनके सम्मुख रखा. वाम-पंथियों द्वारा मुद्दे को जनता के बीच ले जाने का कोई औचित्य नहीं था. यह देश विविधताओं से भरा हुआ है. जनता से यह अपेक्षा करना कि वह संसद में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत दे पाएगी, मुश्किल है. साझा सरकार में यदि सभी पार्टियां अपनी विचारधारा पर अड़ी रहेंगी तो शासन नहीं चल सकेगा. विचारधारा तो साझे में सबसे बड़े घटक की ही चलनी चाहिए, क्योंकि सबसे अधिक मत देकर जनता ने उसकी विचारधारा का अनुमोदन किया है. हां! यदि क्रियान्वन में कहीं भ्रष्टाचार होता है तो अवश्य ही ऐसी सरकार को गिरा देनी चाहिए.

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