अम्बेदकर के नाम पर कायमदलित-राजनीति के पीछे विदेशी संगठनों की सक्रियता चिन्ताजनक

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मनोज ज्वाला
भारतीय राष्ट्रीयता के प्रखर-पुंज भीमराव अम्बेदकर को एक ‘दलित-नेता’
के रूप में प्रचारित कर उनके नाम पर दलितों की राजनीति करने वाले नेताओं
और संगठनों के पीछे अभारतीय गैर-दलित और विदेशी संगठनों की सक्रियता
ध्यान देने योग्य है । भारत की सामाजिक संरचना को विखण्डित करने और
विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के हस्तक्षेप को आमंत्रित करने के लिए
अनेक अभारतीय संगठन विभिन्न रूपों में यहां इस कदर सक्रिय हैं कि वे न
केवल दलित-उत्पीडन की तथाकथित घटनाओं को प्रायोजित व प्रचारित करते रहते
हैं , बल्कि दलितों को हिंसक सामाजिक संघर्ष के लिए उत्प्रेरित भी करते
हैं । इन अमेरिकी विदेशी संगठनों की कारगुजारियों के कारण यहां कभी
‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर उठ जाता है , तो कभी ‘दलितों की
सुरक्षा ’ का ग्राफ नीचे की ओर गिरा हुआ बताया जाता है । ये संस्थायें
भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृति की हैं । कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं , जो
शिक्षण-अध्ययन के नाम पर भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह का
शोध-अनुसंधान करती रहती हैं ; तो कुछ संस्थायें ऐसी हैं , जो इन कार्यों
के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी कर उन्हें साध्य व साधन मुहैय्या
करती-कराती हुई विश्व-स्तर पर उनकी नेटवर्किंग भी करती हैं । ‘डी०एफ०एन०’
(दलित फ्रीडम नेटवर्क) संयुक्त राज्य अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जो
भारत में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें भडकाने के लिए
विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त-पोषण और नीति-निर्धारण करती
है । इसका प्रमुख कर्त्ता-धर्ता डा० जोजेफ डिसुजा नामक अंग्रेज है, जो
‘ए०आई०सी०सी०’(आल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल) का भी प्रमुख है ।
डी०एन०एफ० के लोग खुद को भारतीय दलितों की मुक्ति का अगुवा होने का दावा
करते हैं । इस डी०एन०एफ० की कार्यकारिणी समिति और सलाहकार बोर्ड में
तमाम वैसे ही लोग हैं , जो हिन्दुओं के धर्मान्तरण एवं भारत के विभाजन के
लिए काम करने वाली विभिन्न ईसाई मिशनरियों से सम्बद्ध हैं । वस्तुतः
धर्मान्तरण और विभाजन ही डी०एन०एफ० की दलित-मुक्ति परियोजना का गुप्त
एजेण्डा है , जिसके लिए यह संस्था भारत में दलितों के उत्पीडन की
इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित करती है ,
तथा दलितों को सवर्णों के विरूद्ध विभाजन की हद तक भडकाने के निमित्त
विविध विषयक ‘उत्त्पीडन साहित्य’ के प्रकाशन-वितरण व तत्सम्बन्धी विभिन्न
कार्यक्रमों का आयोजन करती-कराती है । डी०एन०एफ० और इससे जुडी
अम्बेदकरवादी भारतीय संस्थाओं की सक्रियता का आलम यह है कि इनका नियमित
पाक्षिक प्रकाशन- ‘दलित वायस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक
‘दलितस्तान ’ राज्य की वकालत करता रहता है । डी०एन०एफ० को अमेरिकी सरकार
का ऐसा वरदहस्त प्राप्त है कि वह अमेरिका-स्थित दलित-विषयक विभिन्न
सरकारी आयोगों के समक्ष भारत से दलित आन्दोलनकारियों को ले जा-ले जा कर
भारत-सरकार के विरूद्ध गवाहियां भी दिलाता है । अखिल भारतीय अनुसूचित
जाति-जनजाति संगठन महासंघ के अध्यक्ष उदित राज ऐसे ही एक अम्बेदकरवादी
दलित नेता हैं , जो डी०एन०एफ० के धन से राजनीति करते हुए भारत सरकार के
विरूद्ध विभिन्न अमेरिकी आयोगों व मंचों के समक्ष गवाहियां देते रहने के
बावजूद इन दिनों भाजपा से सांसद भी बने हुए हैं । डी०एन०एफ० दलितों को
भडकाने वाली राजनीति करने के लिए ही नहीं , बल्कि भारत के बहुसंख्य समाज
के विरूद्ध दलित-उत्पीडन और उसके निवारणार्थ विभाजन की वकालत-विषयक
शोध-अनुसंधान के लिए शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को भी फेलोशिप और
छात्रवृत्ति प्रदान करता है । इसने कांचा इलाइया नामक उस तथाकथित दलित
चिंतक को उसकी पुस्तक- ‘ह्वाई आई एम नाट ए हिन्दू ’ के लिए पोस्ट
डाक्टोरल फेलोशिप प्रदान किया है , जिसमें अनुसूचित
जातियों-जनजातियों-ईसाइयों और पिछडी जाति के लोगों को अम्बेदकर का हवाला
देते हुए सवर्णों के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए भडकाया गया है ।
मालूम हो कि भीमराव अम्बेदकर एक ऐसे राष्ट्रवादी नेता थे जो अपने
हिन्दू-समाज की सवर्ण जातियों के लोगों द्वारा अस्पृश्यता के नाम पर घोर
प्रताडना झेल चुके होने के बावजूद तत्कालीन ईसाई-मिशनरियों और
मुस्लिम-संगठनों द्वारा प्रेषित धर्मान्तरण-प्रस्तावों को यह कह कर
ठुकरते रहे थे कि “धर्मान्तरण तो राष्ट्रान्तरण है” । अंततः उन्होंने
स्वयं ‘बौद्ध पंथ’ में दीक्षित हो कर धर्मान्तरण के लिए विवश अथवा उत्सुक
लोगों को भी भारत-भूमि से बाहर के किसी भी अभारतीय धर्म-पंथ में दीक्षित
नहीं होने का ही संदेश दिया । किन्तु आज उन्हीं अम्बेदकर के नाम पर
दलितों को उनके राष्ट्रीय आदर्शों के विपरीत हिन्दू समाज-धर्म के विरूद्ध
भडका कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने वाले लोग धर्मान्तरणकारी
चर्च-मिशनरियों की भारत-विरोधी विखण्डनकारी योजनाओं के हस्तक बने हुए हुए
हैं ।
पी०आई०एफ०आर०ए०एस०(पालिसी इंस्टिच्युट फार रिलीजन एण्ड स्टेट)
अर्थात ‘पिफ्रास’ अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जिसका चेहरा तो समाज और
राज्य के मानवतावादी लोकतान्त्रिक आधार के अनुकूल नीति-निर्धारण को
प्रोत्साहित करने वाला है , किन्तु इसकी खोपडी में भारत की
वैविध्यतापूर्ण एकता को खण्डित करने और हिन्दुओं (दलितों) के धर्मान्तरण
की योजनायें घूमती रहती हैं । इसके स्वरुप की वास्तविकता यह है कि इसका
कार्यपालक निदेशक जौन प्रभुदोस नामक एक ऐसा व्यक्ति है , जो
धर्मान्तरणकारी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संगठनों के गठबन्धन
एफ०आई०ए०के०ओ०एन०ए० (द फेडरेशन आफ इण्डियन अमेरिकन क्रिश्चियन
आर्गनाइजेसंस आफ नार्थ अमेरिका) अर्थात ‘फियाकोना’ का भी प्रतिनिधित्व
करता है । ये दोनो संगठन एक ओर विश्व-मंच पर भारत को ‘मुस्लिम-ईसाई
अल्पसंख्यकों का उत्त्पीडक देश’ के रुप में घेरने की साजिशें रचते रहते
हैं , तो दूसरी ओर भारत के भीतर नस्ली भेद-भाव एवं सामाजिक फुट पैदा
करने के लिए विभिन्न तरह के हथकण्डे अपनाते रहते हैं ।
‘पिफ्रास’ का एक सदस्य सी० राबर्ट्सन अमेरिकी सरकार के
विदेश-सेवा संस्थान से सम्बद्ध है , जो ‘अमरिकन नेशनल एण्डाउमेण्ट आफ
ह्यूमैनिटिज’ नामक संस्था के आर्थिक सहयोग से भारत में रामायण के राम को
नस्लवादी , महिला उत्पीडक व मुस्लिम-विरोधी बताने के लिए बहुविध
कार्यक्रमों का आयोजन कराता है । इन दोनों अमेरिकी संस्थाओं की
भारत-विरोधी विखण्डनकारी गतिविधियों का आलम यह है कि ‘पिफ्रास’ ने
‘युनाइटेड मेथोडिस्ट बोर्ड आफ चर्च एण्ड सोसाइटी’ और ‘द नेशनल काउन्सिल
आफ चर्चेज आफ क्राइस्ट इन द यु०एस०ए०’ के सहयोग से आयोजित एक कार्यक्रम
में कांग्रेसी मनमोहनी सरकार की सोनिया-प्रणीत राष्ट्रीय सलाहकर परिषद के
प्रमुख सदस्य- जान दयाल की पहल पर यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया था कि “
भारत में अल्पसंख्यक लोग अपनी सुरक्षा और अपने प्रति किये जाने वाले
अपराधों के मामले में अपराधियों को दण्डित करने के लिए भारतीय राज्य पर
भरोसा नहीं कर सकते” । इसी तरह से
डी०एन०एफ०नामक अमेरिकी संस्था एक तरफ भारत के भीतर बहुसंख्यक समाज के
विरूद्ध दलितों और अल्पसंख्यकों को भडका कर विखण्डन के दरार को चौडा करने
में लगी हुई है , तो दूसरे तरफ भारत के बाहर वैश्विक मंचों पर भारतीय
राज्य-व्यवस्था को अक्षम-अयोग्य व पक्षपाती होने का दुष्प्रचार कर इस देश
में अमेरिका के हस्तक्षेप का वातवरण तैयार करने में भी सक्रिय है । ऐसी
एक नहीं अनेक संस्थायें हैं , जो भिन्न-भिन्न तरह के मुद्दों को लेकर
भारत के विरूद्ध अलग-अलग मोर्चा खोली हुई हैं , किन्तु वैश्विक स्तर पर
एक संगठित नेटवर्क के तहत उन सबका उद्देश्य एक है और वह है भारत के
विखण्डन की जमीन तैयार करना एवं इसे वेटिकन सिटी-निर्देशित व
अमेरिका-शासित अघोषित ‘श्वेत-साम्राज्य’ के अधीन करना ।
गौरतलब है कि दलितों के नाम पर संचालित इन तमाम संस्थाओं-संगठनों के
संचालकों में कोई एक भी दलित नहीं है । इन्हें भारत के दलितों की
ऐतिहासिक सामाजिक पृष्ठभूमि से भी इनका कोई लेना-देना कतई नहीं है ।
दलित-मामलों को उभारने के पीछे इनके दो मकसद हैं- पहला, दलितों का
धर्मान्तरण और दूसरा- भारत का पुनर्विभाजन । ‘दलित-मुक्ति’ की इनकी जो
परिभाषा है , सो वास्तव में सनातन-हिन्दू-वैदिक धर्म से दलितों को अलग कर
देना और ईसाइयत के बंधन में बांध देना ही है , जिसे किसी भी कोण से किसी
की ‘मुक्ति’ नहीं कहा जा सकता है । दलितों की हालत के परिप्रेक्ष्य में
उनकी ‘मुक्ति’ का वास्तविक मतलब तो दलितों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से
उनका मुक्त होना अथवा उन्हें मुक्त करना है, जिसके बावत इन संस्थाओं के
पास न तो कोई योजना है न कोई विचारणा ; सिवाय इसके कि उन्हें मतान्तरित
कर दिया जाये । ऐसे में अम्बेदकर के नाम पर दलितों के ध्रूविकरण के पीछे
इन संगठनों की ऐसी सक्रियता हमारी सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता की
दृष्टि से अत्यन्त चिन्ताजनक है ।
• मनोज ज्वाला

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