हिन्दू समाज के विरुद्ध अमेरिकी ‘आयोग’ का षड्यंत्रकारी ‘हठयोग’

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मनोज ज्वाला
दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी का स्वघोषित ठेका चला
रहे अमेरिका की एक अर्द्धन्यायिक संस्था ‘युएस कमिशन फॉर इण्टरनेशनल
रिलीजियस फ्रीडम’ ने अमेरिकी सरकार को प्रेषित अपनी वार्षिक रिपोर्ट में
भारत के विरुद्ध नकारात्मक टिप्पणी करते हुए इसे ‘खास चिन्ता वाले देशों’
(कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न- ‘सीपीसी’) के साथ सूचीबद्ध करने की
सिफारिश की है । उसने इस बावत यह तर्क दिया है कि भारत में भी अल्पसंख्यक
आबादी के धार्मिक हितों का हनन हो रहा है , इसलिए इसे भी उस सूची में
शामिल किया जाना चाहिए । हॉलाकि अमरिकी सरकार ने भारत को उक्त सूची में
शामिल करने से इंकार कर दिया है , लेकिन देश-विदेश के अनेक ईसाई-मुस्लिम
संगठनों द्वारा इस बावत अमेरिकी राष्ट्रपति पर लगातार दबाव दिया जा रहा
है ।
मालूम हो कि उक्त सूची में नौ देशों के नाम पहले से दर्ज हैं जो
इस प्रकार हैं- चीन, म्यांमार ,लेरिट्रिया, ईरान, उतरी कोरिया,
पाकिस्तान, सऊदी अरब, तजाकिस्तान, और तुर्कमेनिस्तान । इस वर्ष रुस,
नाईजीरिया, सिरिया और वियतनाम के साथ भारत का नाम भी दर्ज करने की
सिफारिश की गई है । गौरतलब है कि इन 14 देशों की इस सूची में कम से कम
भारत एक ऐसा देश जरूर है, जहां किसी भी अल्पसंख्यक समाज के किसी भी
समुदाय के किसी भी धार्मिक या मजहबी-रिलीजियस हित का मामूली हनन भी नहीं
हो रहा है ; बल्कि सच तो यह है कि यहां बहुसंख्यक समाज के धार्मिक हितों
की कीमत पर अल्पसंख्य समुदायों को पोषित-संरक्षित किया जाता रहा है ।
बावजूद इसके, ‘युसीआईआरएफ’ ने भारत को भी पाकिस्तान, ईरान, सिरिया,
कोरिया, वियतनाम और चीन के साथ शामिल करने की हिमाकत की है, तो यह उसकी
षड्यंत्रकारी मंशा को ही जाहिर करता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि
अमेरिकी सरकार की वह संस्था धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के नाम पर एक
प्रकार का गुप्त एजेण्डा चलाती रही है । इसे समझने के लिए सिर्फ एक ही
उदाहरण काफी है कि भारत-विभाजन के वक्त पाकिस्तान में तकरीबन ढाई करोड
हिन्दू रह गए थे और लगभग उतने ही मुसलमान भी भारत में रह गये थे , किन्तु
आज पाकिस्तान में वहां के शासन-संरक्षित मुस्लिम आतंक से
पीडित-प्रताडित-धर्मांतरित-विस्थापित होते रहने के कारण हिन्दूओं की
आबादी घट कर बीस लाख (दस प्रतिशत) से भी कम हो गई है ; जबकि भारत में
शासन से तुष्टिकृत-उपकृत होते रहने के कारण मुसलमानों की आबादी बढ कर
पैंतीस करोड से भी ज्यादा (लगभग 15 गुनी) हो गई है ; तब भी उसने भारत को
भी पाकिस्तान आदि के साथ ही सूचीबद्ध किया हुआ है ।
मेरी एक पुस्तक ‘भारत के विरुद्ध पश्चिम के बौद्धिक षड्यंत्र’
में “अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, अर्थात बे-रोक-टोक
ईसाईकरण” शीर्षक से एक अध्याय संकलित है , जिसमें अनेक प्रामाणिक तथ्यों
से मैंने यह सिद्ध किया हुआ है कि यह अमेरिकी अधिनियम वस्तुतः ‘वेटिकन
सिटी’ के वैश्विक ‘ईसाई-विस्तारवाद’ को क्रियान्वित करने वाले एक
षड्यंत्र का नाम है । ‘युएस कमिशन फॉर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ उसी
अमेरिकी अधिनियम को दुनिया भर में लागू करने-कराने वाला अर्द्ध-न्यायिक
अमेरिकी आयोग है, जो भारत राष्ट्र के विघटन, सनातन धर्म के उन्मूलन व
हिन्दू-समाज के मजहबीकरण का ईसाई-मिशनरी हथकण्डा और गैर-मजहबी देशों के
आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप का अमेरिकी फण्डा मात्र है । ‘युएस कमिशन
फॉर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ पहले भी भारत के विरुद्ध इसी तरह की
पूर्वाग्रही रिपोर्ट जारी करता रहा है और उसकी रिपोर्ट के आधार पर
अमेरिकी विदेश मंत्रालय भी गाहे-बगाहे घुडकियां देते रहता है । भारत में
भाजपा-मोदी की सरकार कायम होने के बाद से इस आयोग ने भारत के विरुद्ध
ऐसे दुष्प्रचार का एक अभियान सा चला रखा है । इस अमेरिकी आयोग द्वारा
पिछले दिनों जारी वार्षिक रिपोर्ट में दावा किया गया कि “भारत सरकार ने
धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हुए, विशेष रूप से मुसलमानों के लिए
राष्ट्रीय स्तर की नीतियों का निर्माण करने के लिए अपने संसदीय बहुमत का
इस्तेमाल किया है ।” इस आरोप को सिद्ध करने के लिए उक्त वार्षिक रिपोर्ट
में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-2019 का उल्लेख किया गया है, जो
अफगानिस्तान, बांग्लादेश व पाकिस्तान में मजहबी भेदभाव से पीडित होने के
कारण वहां से विस्थापित होते रहने वाले गैर-मुस्लिम प्रवासियों को भारतीय
नागरिकता प्रदान करने वाला है । उक्त रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि
“सरकारी अधिकारियों के बयानों के अनुसार, यह कानून सूचीबद्ध गैर-मुस्लिम
धार्मिक समुदायों के लिए देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) से
सुरक्षा प्रदान करने के लिए है, जिसके बाद समुदाय-विशेष के लोगों को
हिरासत में ले कर वापस भेज दिया जाएगा और संभावित रूप से उन्हें
राष्ट्रविहीन बना दिया जाएगा ।” रिपोर्ट में आयोग ने यह भी उल्लेख किया
था कि “ अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में सरकार समर्थित तत्वों ने भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । केन्द्र सरकार सहित विभिन्न राज्य-सरकारों
ने भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पीड़न और हिंसा के राष्ट्रव्यापी
अभियानों को जारी रखने की अनुमति दे रखी है और उनके खिलाफ हिंसा करने व
नफरत फैलाने की छूट दे दी है ।”. इन्हीं फर्जी तथ्यों के आधार पर इस
रिपोर्ट में ‘यूएससीआईआरएफ’ ने भारत को ‘सीपीसी’ में नामित करने को कहा
हुआ है ।
उल्लेखनीय है इससे पहले वर्ष- 2017 में भी यूएससीआईआरएफ ने अपनी
रिपोर्ट में यह कहा था कि भारत में गोरक्षा के बहाने हिंदू-संगठनों
द्वारा गैर-हिन्दू समुदाय-सम्प्रदाय के लोगों पर हमले किये जाते रहे हैं
। इस अमेरिकी आयोग ने भारत के विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा
गो-वध प्रतिबंधित कर दिए जाने और गो-वध पर जेल की सजा व जुर्माने का
कानूनी प्रावधान किये जाने पर आपत्ति जताते हुए उससे मुस्लिम-हितों के
हनन तथा अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों के शोषण क दावा किया था ।
‘यूएससीआईआरएफ’ की रिपोर्टों का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो
जाता है कि उसकी नीयत साफ नहीं है । वह पक्षपातपूर्ण तरीके से भारत के
विरुद्ध एकतरफा रिपोर्ट कर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारतीय राष्ट्रीयता
की छवि खराब करने का हठ करता रहा है । पिछले साल की अपनी रिपोर्ट में
उसने जम्मू-कश्मीर के कठुआ में 08 साल की मुस्लिम लड़की के साथ हुए कथित
दुष्कर्म एवं उसकी हत्या के मामले का तो जिक्र किया था, किन्तु मुस्लिम
सम्प्रदाय के लोगों द्वारा हिन्दू-लडकियों-महिलाओं का बलात्कार किये जाने
की चर्चा तक नहीं की थी । उक्त रिपोर्ट में भाजपा के कुछ नेताओं पर
अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया गया था,
जबकि ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों को नजरंदाज कर दिया गया
। और तो और , उसने अपनी रिपोर्ट में कतिपय शैक्षणिक संस्थानों के
‘अल्पसंख्यक दर्जे’ को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के सरकारी
फैसले को भी अनुचित बताया और ‘इलाहाबाद’ शहर का नाम ‘प्रयागराज’ कर दिए
जाने पर भी आपत्ति दर्ज कर दी । स्पष्ट है कि ‘यूएससीआईआरएफ’ कहने को तो
धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करता है ; किन्तु सच यह है कि प्रकारान्तर
में वह पैगम्बरवाद से मुक्त सनातनधर्मियों के ईसाईकरण अथवा इस्लामीकरण की
हिमाकत करता है और इस हेतु ‘ईसाई-क्रूसेड’ व ‘इस्लामी जेहाद’ को सहयोग
प्रदान करता है, क्योंकि दोनों पैगम्बरवादी मजहब है, जबकि हिन्दू-समाज
मजहबी नहीं है । जाहिर है , अमेरिकी आयोग की यह रिपोर्ट प्रकारान्तर से
समस्त हिन्दू-समाज के विरुद्ध ही है ।
यह ‘यूएससीआईआरएफ’ अमेरिकी कांग्रेस (संसद) द्वारा पारित जिस
‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ की कोख से सृजित हुआ है, वह
अधिनियम ही ‘वेटिकन सिटी’ (ईसाई मजहब के वैश्विक-प्रधान का
सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य) से निर्देशित विभिन्न चर्च मिशनरी
धर्मान्तरणकारी संस्थाओं यथा- वर्ल्ड विजन, क्रिश्चियनियटी टूडे
इण्टरनेशनल, क्रिश्चियन कम्युनिटी डेवलपमेण्ट एशोसिएसन, वर्ल्ड
इवैंजेलिकल एलायन्स, फ्रीडम हाउस, नेशनल बैपटिस्ट कॉन्वेंसन आदि के
‘ईसाई-विस्तारवादी षड्यंत्र की परिणति है । वेटिकन चर्च से संचालित इन
मिशनरी संस्थाओं ने अमेरिकी राष्ट्रपति- बिल क्लिंटन पर दबाव दे कर
वर्ष- 1998 में अमेरिकी संसद से इस अधिनियम को पारित करवाया था, जो घोषित
रुप से तो विश्व के तमाम देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के
बावत प्रयुक्त होता है ; किन्तु छद्म रुप से यह ‘धर्म’ (वैदिक-सनातन) के
विरुद्ध ‘रिलीजन’ (क्रिस्चियनिटी) और ‘मजहब’ (इस्लाम) की वकालत करता है ।
अमेरिकी सरकार दुनिया के विभिन्न देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की
निगरानी के नाम पर इसी अधिनियम के तहत राजदूत नियुक्त कर रखा है और
मंत्रिमण्डल व ह्वाइट हाउस को सलाह देने हेतु विशेष सलाहकार भी नियुक्त
करता रहा है । इसी अधिनियम के तहत उसने धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक मामलों
की सुनवाई के लिए ‘युएस कमिशन फॉर रिलीजियस फ्रीडम’ नामक आयोग स्थापित कर
रखा है, जिसका कार्य-क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है ; किन्तु पैगम्बरवाद से
मुक्त मूर्तिपूजक हिन्दू-समाज व सनातनधर्मी भारत राष्ट्र इसके मुख्य
निशाने पर है , जिसके लिए मूर्तिभंजक इस्लाम को वह सहयोगी उपकरण के तौर
पर संरक्षित करता है । अमेरिकी शासन के इस कानून की आड में ऑल इण्डिया
क्रिश्चियन कॉउंसिल , फ्रीडम हाउस व दलित फ्रीडम नेटवर्क आदि
चर्च-मिशनरी-संगठन व एन०जी०ओ० अपने भारतीय अभिकर्ताओं-कार्यकर्ताओं एवं
भाडे के बुद्धिजीवियों-मीडियाकर्मियों के माध्यम से हिन्दुओं को
आक्रामक-हिंसक प्रचारित करते हुए उनकी तथाकथित आक्रामकता व हिंसा के कारण
मुसलमानों-ईसाइयों की कथित प्रताडना-सम्बन्धी मामले रच-गढ कर उक्त
अमेरिकी आयोग में दर्ज कराते रहते हैं, जो विभिन्न गवाहों, साक्ष्यों व
सूचनाओं के आधार पर उन मामलों की सुनवाई कर अमेरिकी राष्टपति को
हस्तक्षेप करने एवं तदनुसार वैदेशिक नीतियों के निर्धारण-क्रियान्वयन की
सिफारिसें पेश करता है ।
उल्लेखनीय है कि ‘य०एस०कमिशन फॉर आई०आर०एफ०’ द्वारा वर्ष- 2000
में ह्वाइट हाउस को ऐसी ही रिपोर्ट पेश की गई थी , जिसमें धर्मान्तरित
बंगाली हिन्दुओं के प्रत्यावर्तन (धर्मवापसी) को नहीं रोक पाने पर पश्चिम
बंगाल की माकपाई सरकार के विरुद्ध शिकायतें दर्ज की गई थीं और उन ईसाइयों
की धर्मवापसी को ‘अंधकार में पुनः-प्रवेश’ कहते हुए उस पर चिन्ता जाहिर
की गई थी । इसी तरह से वर्ष 2001 की रिपोर्ट में इसने भारत के त्रिपुरा
आदि पूर्वांचलीय राज्यों में जहां हिंसक ईसाई-संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रण्ट
ऑफ त्रिपुरा के आतंक से हिन्दुओं का सुनियोजित सफाया होता जा रहा है,
वहां ‘हिन्दुओं के प्रभुत्व सम्पन्न होने’ और ‘ईसाइयों के निर्धन व
उपेक्षित होने’ को उक्त ईसाई-हिंसा का कारण बताते हुए उसे न्यायोचित भी
ठहरा दिया था । गौरतलब है कि सन 2004 में धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक इसी
तरह की रिपोर्ट के परिणामस्वरुप अमेरिकी कांग्रेस के चार-सदस्यीय
प्रतिनिधिमण्डल ने भारत का दौरा किया था, जिसके अध्यक्ष जोजेफ पिट्स ने
तब धर्मान्तरण रोकने सम्बन्धी भारतीय कानूनों की आलोचना करते हुए यह कहा
था कि “ इन कानूनों से मानवाधिकारों व धार्मिक स्वतंत्रताओं का हनन होता
है ।” इतना ही नहीं , सन 2009 में भी इस अमेरिकी आयोग ने भारत को
धार्मिक स्वतंत्रता-सम्बन्धी विशेष चिन्ताजनक देशों की सूची में
अफगानिस्तान के साथ शामिल कर रखा था । अमेरिकी शासन का अंतर्राष्ट्रीय
धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम दरअसल सनातन धर्म से हिन्दुओं के जुडे रहने
को ‘गुलामी’ व धर्मान्तरित हो कर ईसाई या मुस्लिम बन जाने को ‘मुक्ति’
मानता है और अपनी इसी मान्यता के तहत धर्मान्तरण की सुविधाओं-बाधाओं के
आधार पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय हर वर्ष धार्मिक आजादी-विषयक रिपोर्ट पेश
करता, जो इस बार किसी कूटनीति के तहत ‘यूएससीआईआरएफ’ की सिफारिश के
बावजूद भारत को (कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न- ‘सीपीसी’) में शामिल नहीं
किया है ।

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