अम्मा का मंगलसूत्र

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अन्नाद्रमुक पार्टी की नेत्री और तमिलनाडु में चौथी बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनी जयललिता ने शपथग्रहण के तुरंत बाद ही अपने कई चुनावी वादे पूरे किए। जयललिता ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि वे चुनाव जीतीं तो शादी करनेवाली लड़कियों को चार ग्राम का मंगलसूत्र देंगी। अब जयललिता चुनाव जीत चुकी हैं और उन्होंने अपना यह वायदा भी पूरा कर दिया है। शादी करनेवाली लड़कियों को चार ग्राम सोने का मंगलसूत्र सरकार की ओर से दिया जाएगा।

वायदे उन्होंने और भी किए थे पर पहले पूरा होनेवाले वायदों में से एक वायदा यह भी है। इससे समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री अपने इस वायदे को लेकर गंभीर थीं। जिन सात वायदों को तुरंत पूरा किया गया है उनमें स्त्रयों से जुड़े दो वायदे हैं – एक तो यह कि शादी करनेवाली लड़कियों को जयललिता सरकार चार ग्राम सोना देगी और महिला सरकारी कर्मचारियों का मातृत्व अवकाश तीन महिने के बजाए छः महीने मिला करेगा। दोनों वायदों में दो तरह के तबके की महिलाओं की जरूरतों का ध्यान रखा गया है- घरेलू और कामकाजी। महिलाओं को मातृत्व अवकाश ज़्यादा समय का मिले- ये तमाम भारतीय और विश्व महिला संगठनों की पुरानी मांग है। निश्चित ही इस दिशा में सुधारमूलक क़दम उठाकर जयललिता सरकार ने प्रशंसनीय कार्य किया है। लेकिन इस दिशा में अभी और बहुत कुछ किया जाना बाकि है। मातृत्व के दौरान स्त्री तमाम भावनात्मक और शारीरिक बदलावों से गुजरती है। मातृत्व तो एक पूरा प्रकल्प है पर गर्भधारण की अवधि भी काफी लंबी होती है। इस लिहाज से छः महीने का अवकाश बहुत नहीं है। शिशु के थोड़ा बड़े होने और स्त्री को अपना स्वास्थ्य पुनः प्राप्त करने के लिए यह समय कम शहरों के एकल परिवार की नौकरीपेशा स्त्री के पास अबोध शिशु को ‘क्रेच’ जैसी जगहों पर जो आज भी हिंदुस्तान में ज़्यादातर अकुशल और गैर-पेशेवराना लोगों द्वारा चलाया जा रहा है , छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। है। साथ ही अपने पेशे में कुशलता को बनाए रखने के लिए स्त्री को अतिरिक्त परिश्रम करना होता है। इस समय की भरपाई भी किसी न किसी रूप में ‘इंसेंटिव’ देकर किया जाना चाहिए। यह अपनेआप में शोध का दिलचस्प विषय हो सकता है कि भारत के विभिन्न राज्यों में मातृत्व अवकाश का प्रावधान क्या है ?

जयललिता की दूसरी घोषणा है कि उनकी सरकार विवाह करनेवाली लड़कियों को चार ग्राम सोने का मंगलसूत्र देगी। यह बड़ी लुभावनी घोषणा है। हिंदुस्तान में गहने और उसमें भी सोने के गहने के प्रति स्त्री ही नहीं पुरुषों की भी आसक्ति है। गहना एक अच्छा निवेश भी है इससे इंकार नहीं। पर किसी सरकार द्वारा विवाह करनेवाली कन्याओं के लिए चार ग्राम के मंगलसूत्र की घोषणा अत्यंत लुभावनी है। सरकारें कई तरह के जनकल्याण और सामाजिक कार्य करती रहीं हैं। कई राजनीतिक पार्टियां और सामाजिक संस्थाएं सामूहिक विवाह का आयोजन करती हैं और उनमें वर-वधू को कुछ उपहार भी देती हैं। एक समय में अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए कुछ धन या वस्तु देने की घोषणा कुछ सरकारों ने की थी। पर जयललिता की यह घोषणा उन घोषणाओं से भिन्न है। इसके साथ कोई सुधारवादी या प्रगतिशील नजरिया नहीं दिखता बल्कि विवाह संस्था की पुरानी तस्वीर को ही वैधता मिलती है। चार ग्राम के मंगलसूत्र की जरूरत उन लड़कियों को होगी जो ग़रीब परिवारों से हैं। ये लड़कियां मंगलसूत्र का क्या करेंगी- परंपरित चलन के अनुसार गले में पहनेंगी और यदि आर्थिक मदद का नुक़्ता शामिल कर लें तो यह भी सोच सकते हैं कि वक्त-जरूरत यह एक संपत्ति के रूप में उनकी मदद करेगा। लेकिन हिंदू परंपरा के अनुसार यह सुहाग की निशानी है और सुहागिन स्त्री इसे अपने से अलग नहीं करती। ऐसे में जयललिता सरकार ने संपत्ति के रूप में मंगलसूत्र दी होगी, यह बात औचित्यपूर्ण नहीं लगती। यह निर्विवाद रूप से एक गहना है और सुहाग की निशानी होने का सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य भी इससे जुड़ा है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जयललिता सरकार गहने का यह तोहफा सन् 2011 में भारत की स्त्रियों को दे रही है।

हमारे देश में एक जननायक गांधीजी हुए थे। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विभिन्न कामों के लिए धन इकट्ठा करने का अद्भुत तरीका निकाला था। वे जहां भी भाषण या सभा-सम्मेलन के लिए जाते, चंदा मांगते थे। स्त्रियों से वे विशेष तौर पर उनके गहनों का दान मांगा करते थे। यहां तक कि उन्होंने अपने हस्ताक्षर का मूल्य संपन्न परिवार की स्त्रियों के लिए एक हाथ की सोने की चूड़ी रखी थी। गांधीजी जानते थे कि स्त्रियों को अपने गहनों से बहुत मोह होता है। यह आम स्त्री मनोविज्ञान है। ध्यान रखना चाहिए कि इसी आम स्त्री मनोविज्ञान को ही भुनाते हुए जयललिता ने मंगलसूत्र देने की घोषणा की है और इसी आम स्त्री मनोविज्ञान का संज्ञान लेते हुए गांधीजी ने स्त्रियों के गहना प्रेम को लक्ष्य बनाया था और चाहा था कि स्त्रियां अपने गहनों का मोह त्याग दें। एक कुशल जननेता की तरह गांधीजी ने एक समयसीमा रखी थी कि जब तक भारत परतंत्र है भारत की स्त्रियां गहना न पहनें। पर ये प्रतीकात्मक था। इस गहना दान को ग्रहण करने की गांधीजी ने जो शर्त रखी थी वो ध्यान देने लायक और सीखने लायक है। गांधीजी स्त्रियों को विशेषकर बालिकाओं और किशोरियों को उकसाते थे कि वे अपने गहनों का दान करें। भावी पीढ़ी पर उनकी नज़र थी। लेकिन इस दान को स्वीकार करने के पहले कुछ नियम थे उनमें से पहला नियम यह था कि जो स्त्री अविवाहित है वो अपने पिता और विशेषकर माता से गहना दान करने की अनुमति लेगी, वो दोबारा उसी तरह का गहना बनवा देने का आग्रह नहीं करेगी, संभव हो तो आजीवन गहना न पहनने का व्रत लेगी। गांधीजी जानते थे हिंदुस्तानी समाज में गहना एक रोग है और यह न केवल स्त्री को बल्कि पुरुष को भी ग्रसे हुए है। इस कारण गहना दान करनेवाली और आजीवन गहना न पहनने का व्रत लेने वाली लड़की के लिए लड़का मिलना कठिन होगा। इसलिए लड़की को यह भी वचन देना पड़ता था कि वो ऐसे ही लड़के से विवाह करेगी जो उसे फिर से गहना पहनने के लिए बाध्य नहीं करेगा। स्वयं गांधीजी ऐसी व्रती लड़कियों के लिए लड़का ढूंढ़ने का आश्वासन माता-पिता को देते थे। गाधीजी के द्वारा इस काम में सहयोग के कई उदाहरण हैं।

गाधीजी ने स्त्रियों में आभूषण विमुखता की प्रक्रिया को एक नाम दिया था-‘आभूषण-सन्यास’। इस आभूषण–सन्यास के लिए स्त्रियों को उत्प्रेरित करने के पीछे गांधीजी के तर्क बहुत ठोस थे। उनका मानना था कि गहना मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट करता है। उसके व्यक्तित्व को कृत्रिम बनाता है। गांधीजी का कहना था- ‘मैं जानता हूं कि लड़कियों के लिए यह त्याग कितना कठिन है। हमारे समाज में आज अनेक प्रकार के फैशन देखने में आते हैं, पर मैं तो उसी को सुंदर कहता हूं, जो सुंदर काम करते हैं।’ गांधीजी स्त्री का गहना उसके संस्कार और कर्म को मानते थे। गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित होकर प्रसिद्ध उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने ‘गबन’ नाम का एक महत्वपूर्ण उपन्यास ही लिख डाला था। इस उपन्यास में नायिका जालपा का आभूषण प्रेम और नायक रमानाथ का गहनों के लिए गबन और अंत में नायिका का कर्ममय व्यक्तित्वान्तरण होता है। इस उपन्यास की उपलब्ध आलोचनाओं में स्त्री के आभूषण प्रेम का समस्यावादी पाठ बनाया गया है पर मेरी जानकारी में अब तक इसकी आलोचना गांधीवादी विचारधारा के इस पक्ष से नहीं की गई है।

ऐसे में सन् 2011 की भारतीय स्त्रियां चाहे वे गांव की हों या शहर की , के लिए अगर ‘अम्मा’ के नाम से मशहूर महिला नेत्री जयललिता उनके व्यक्तित्व के विकास और आर्थिक मदद के लिए कोई और लुभावना तोहफा देती तो क्या ज़्यादा मुफीद नहीं होता ! पर तोहफा तो तोहफा होता है, लेनेवाले से ज़्यादा इसमें देनेवाले की मरजी होती है। लेकिन भारत की स्त्रियों जिसका एक हिस्सा तमिलनाडु की स्त्रियां हैं को ये तोहफा क़बूल करते हुए इसके अन्य पक्षों का भी ध्यान रखना चाहिए। यह जनता के पैसे का ही जनता को तोहफा है जिसमें घरेलू से लेकर काम-काजी स्त्री का भी श्रम लगा हुआ है। क्या जनता को हक़ नहीं कि पूछे कि इससे बेहतर भी कुछ हो सकता था या नहीं ! क्यों स्त्री के मामले में लुभावनी लेकिन ख़तरनाक परंपराओं को ही पोषणा चाहते हैं, शायद स्त्रियां नहीं बोलतीं, उनके प्रतिनिधि संगठन नक्कू बनने का ख़तरा नहीं उठाते इसीलिए न!

-सुधा सिंह

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