क्या स्वतंत्र भारत में कभी ऐसा हुआ है कि किसी राष्ट्रपति को दो हफ्तों में तीन बार अपील करनी पड़े? राष्ट्रपति को बार−बार क्यों कहना पड़ रहा है कि लोग सद्भाव और सहनशीलता का वातावरण बनाए रखें? प्रधानमंत्री ने दबी जुबान से वही बात दोहराई, जो राष्ट्रपति ने कही। दोनों की अपीलों का जनता पर कोई असर दिखाई नहीं पड़ रहा है। शिवसेना ने पहले गुलाम अली का गायन नहीं होने दिया, फिर खुर्शीद कसूरी की किताब को लेकर सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर स्याही पोत दी और अब उसने पाकिस्तान से आए क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शहरयार खान की बैठक पर हमला बोल दिया। मान लिया कि यह हताश शिवसेना की भड़ास थी, जो उसने भाजपा के विरुद्ध निकाली। यह भी मान लें कि आतंकग्रस्त मुंबईवासियों की भावना का फायदा उठाने की कोशिश शिवसेना कर रही थी ताकि वह महाराष्ट्र में भाजपा का दुमछल्ला बनी हुई न दिखे। ऐसे पैंतरे सभी राजनीतिक दल अपनाते हैं। आम जनता इन नौटंकियों का मज़ा लेती है और इनकी असलियत को समझती भी है लेकिन गोहत्या के शक में दादरी में हुई अखलाक की हत्या, और कश्मीरी युवक जाहिद अहमद की हत्या, गोमांस पार्टी को लेकर एक कश्मीरी विधायक का मुंह काला करना और कुछ सवर्णों द्वारा फरीदाबाद में दो दलित बच्चों की हत्या ऐसी घटनाएं हैं, जिनका एक साथ होना देश में चिंता का वातावरण पैदा करता है। ऐसी घटनाएं और इनसे भी अधिक दर्दनाक घटनाएं पहले भी हुई हैं लेकिन एक तो इनका पटाखों की लडि़यों की तरह फट पड़ना और दूसरा सरकार का उदासीन−सा रवैया हैरत पैदा कर रहा है। ये घटनाएं प्रायोजित नहीं हैं। शिव सेना की नौटंकियों की तरह नहीं हैं। ये स्वत: स्फूर्त हैं। ये हमारे समाज का केंसर है, जो अंदर ही अंदर फैला हुआ है। सर्वत्र सांप्रदायिकता, जातिवाद और असंयम की बारुद बिछी हुई है। उसे विस्फोट बनने के लिए बस एक मामूली−सी तीली की जरुरत होती है। बारुद के ढेर पर बैठे हुए इस देश की रक्षा की चिंता हमारे नेताओं को उतनी नहीं है, जितनी कि अपनी कुर्सी की!
ऐसा नहीं है कि ये घटनाएं सरकार या भाजपा या संघ के इशारों पर हो रही हैं। दूर−दूर तक इसके कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन इन घटनाओं की निंदा जितनी देरी से होती है और लड़खड़ाती जुबान से होती है, उसका फायदा विरोधी दल अपने आप उठा रहे हैं। वे तो सख्त आलोचना कर ही रहे हैं, इस बहती गंगा में हमारे लेखकगण भी गोता लगाने से नहीं चूक रहे हैं। इतने बड़े देश में अपना सम्मान लौटाने की नौटंकी के लिए लेखकों को मुश्किल से 40 पात्र ही मिले। इस सम्मान वापसी का आम आदमी पर कोई ठोस असर नहीं है, क्योंकि एक तो उसके लिए ये लेखक अजनबी हैं और दूसरा उसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि ये लेखक यह भेड़चाल क्यों चल रहे हैं? साहित्य अकादमी ने इनकी शान में कौनसी गुस्ताखी कर दी है? इन लेखकों में इतना नैतिक बल भी नहीं है कि इन हत्याओं के लिए यदि वे किंही नेताओं और दलों को जिम्मेदार समझते हैं तो वे खुलकर उनका नाम लें? नाम वे कैसे ले सकते हैं? दांभोलकर की हत्या हुई तो महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी, कालबुर्गी की हत्या कर्नाटक में हुई तो वहां भी कांग्रेस की सरकार थी, अखलाक और जाहिद की हत्याएं भी जिन राज्यों में हुईं, वहां क्रमश: सपा और कांग्रेस की सरकारें हैं। इन गैर−भाजपाई सरकारों की भर्त्सना करना भी निरर्थक है। यह उतना ही निरर्थक है, जितना की अपना ठीकरा भाजपा के माथे पर फोड़ना है। भाजपा के नेताओं ने मुंह पर कालिख पोतने की घटनाओं की निंदा भी की है और महाराष्ट्र में भाजपा के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने कसूरी की किताब का विमोचन करवाकर ही छोड़ा।
आज देश की जरुरत यह है कि इस तरह की दुर्घटनाओं को अपनी राजनीतिक शतरंज का मोहरा बनाने की बजाय हम उनकी जड़ों तक पहुंचने की कोशिश करें। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने कोई बयान दिया या नहीं दिया, इससे क्या फर्क पड़ना है? ये बड़ी राजनीतिक हस्तियां जरुर हैं लेकिन समाज में इनका नैतिक प्रभाव कितना है? क्या इनके कहने से कोई गोमांस खाना छोड़ देगा? या किसी गोहत्यारे को लोग पापी या अपराधी मानना बंद कर देंगे? हां, नेताओं के बयान नेताओं का मुंह जरुर बंद कर सकते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की उटपटांग बयानबाजी पर भाजपा नेताओं को कड़ा प्रतिबंध लगाना चाहिए। वरना आम जनता का भी यह शक गहरा होता जाएगा कि इन हत्याओं से भाजपा और संघ अंदर ही अंदर बहुत प्रसन्न हैं। सरकार में बैठे लोगों का कर्तव्य है कि वे देश के सारे नागरिकों के साथ समान और निष्पक्ष बर्ताव करें, चाहे उनमें से कुछ ने उन्हें वोट दिए हों या न दिए हों। विपक्ष में रहकर आप कैसी भी ‘राजनीति’ करते रहे हों, सत्तारुढ़ होने पर आपको ‘राजनीति’ कम और राष्ट्रनीति ज्यादा चलानी होगी। वरना, यह मानकर चलिए कि आप अभी से विपक्ष में फिर से बैठने की तैयारी में जुट गए हैं