अपनी योग्यताओं के बावजूद बहुत औसत राजनेता साबित हुए मनमोहन
-संजय द्विवेदी
मनमोहन सिंह की सफलताएं देखकर लगता है कि आखिर वे इतने बड़े कैसे हो पाए, तो फिलहाल दो ही कारण समझ में आते हैं एक उनका भाग्य और दूसरा श्रीमती सोनिया गांधी। किंतु इन दोनों कारणों से ही कुर्सी पाने के बावजूद भी वे इस अवसर को एक सौभाग्य में बदल सकते थे- इसका कारण यह है कि उनके पास ईमानदारी और विद्वता की एक ऐसी विरासत थी जिसका संयोग आज की राजनीति में दुर्लभ है। अब जबकि वे एक लंबा कार्यकाल पाने वाले देश के तीसरे प्रधानमंत्री बन चुके हैं तो भी उनके पास उपलब्धियों का खाता खाली है। पिछले चुनावों में उनकी जिस शुचिता, ईमानदारी और भद्रता पर मुग्ध देश ने भाजपा दिग्गज लालकृष्ण आडवानी के एक तर्क नहीं सुने और मनमोहन सिंह की वापसी पर मुहर लगाई, आज देश अपने प्रधानमंत्री से खासा निराश दिखता है। अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण अगर वे चाहते तो लालबहादुर शास्त्री की तरह एक बड़ी रेखा खींच सकते थे, जबकि शास्त्री जी को समय बहुत कम मिला था। किंतु मनमोहन सिंह पूरे साढ़े छः बाद भी एक बहुत औसत राजनेता के रूप में ही सामने आते हैं।
परमाणु करार बिल को पास कराने के समय और पिछले लोकसभा चुनावों में जिस तेवर का उन्होंने परिचय दिया था उससे लगता था कि मनमोहन सिंह बदल रहे हैं। पर अब यह लगने लगा है कि वे कांग्रेस के युवराज की ताजपोशी तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री ही हैं, जो राज नहीं कर रहा अपना समय काट रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनमोहन सिंह की अपार योग्यताओं के बावजूद उनकी क्षमताएं किसी मोर्चे पर प्रकट होती नहीं दिखतीं। वे दुनिया को मंदी से उबरने के मंत्र बता रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कह रहे हैं कि डा. मनमोहन सिंह जब बोलते हैं दुनिया उनकी बातों को ध्यान से सुनती है। तो क्या कारण है कि यह भारतीय प्रधानमंत्री अपने देश के सवालों पर खामोश है? क्या कारण है कि हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास देश में फैली महंगाई का कोई हल, कोई समाधान नहीं है ? आखिर क्या कारण है कि कश्मीर के संकट को विकराल होते जाने देने के लगभग दो महीने बाद वे नींद से जागते हैं और स्वायत्तता का झुनझुना लेकर सामने आते हैं? क्या कारण है कि नक्सलवाद के सवाल पर सरकार के बीच ही इतने किंतु-परंतु हैं जिसका लाभ हिंसक आंदोलन से जुड़ी ताकतें उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रही हैं? कांग्रेस के कुछ दिग्गज और एक केंद्रीय मंत्री नक्सल आंदोलन के प्रति सहानुभूति के बोल कह देते हैं पर हमारे प्रधानमंत्री कुछ नहीं कहते। जयराम रमेश और प्रफुल्ल पटेल की भिडंत से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। द्रुमुक के मंत्रियों के कदाचार उन्हें नहीं दिखते। क्या कारण है पूर्वांचल का एक राज्य मणिपुर महीने पर तक नाकेबंदी झेलता है पर हमारी दिल्ली की सरकार को फर्क नहीं पड़ता। क्या कारण है कि कश्मीर में सिखों को यह धमकी जा रही है कि वे इस्लाम स्वीकारें अथवा घाटी छोड़ें पर हमारी सरकार के पास इस मामले में सिर्फ आश्वासन हैं। परमाणु जवाबदेही कानून के मामले में लगता है कि राजनीतिक विमर्श के बजाए सरकार सौदेबाजी कर रही है। नहीं तो क्या कारण है कि कुछ समय पहले जब केंद्र सरकार इस विधेयक को लाई थी तो उसका कड़ा विरोध हुआ था। अब कांग्रेस-भाजपा दोनों इस विषय पर एक हो गए हैं। सबसे गंभीर एतराज संयंत्र के लिए मशीनों और कलपुर्जों की सप्लाई करने वाली विदेशी कंपनियों को जवाबदेही से मुक्त करने पर है।ऐसी ही कुछ राहत भोपाल गैस त्रासदी की आरोपी कंपनी को दी गयी है। ऐसा लगता है कि हमारी सरकारों के फैसले संसद में नहीं वाशिंगटन से होते हैं। ऐसी सरकार किस मुंह से एक लोककल्याणकारी सरकार होने का दावा करती है। एक तरफ तो यह सरकार गांधी से अपना रिश्ता जोड़ते नहीं थकती वहीं गांधी जयंती के मौके पर खादी पर मिलने वाली 20 प्रतिशत सब्सिडी वापस ले लेती है। उसे खादी ग्रामोद्योग को दी जा रही सब्सिडी भारी लगती है, किंतु विदेशी कंपनियों के लिए सरकार सब तरह की छूट देने के लिए आतुर है। लगता ही नहीं कि देश में हम भारत के लोगों की सरकार चल रही है।
प्रधानमंत्री अगले माह 78 साल के हो रहे हैं, क्या ये माना जाए कि उन पर आयु हावी हो रही है या वे अब अपने आपको इस तंत्र में मिसफिट पा रहे हैं और मानने लगे हैं कि राहुल गांधी का प्रधानमंत्री के रूप में अवतार ही देश के सारे संकट हल करेगा। देश की जनता ने उन्हें लगातार ‘कमजोर प्रधानमंत्री’ कहे जाने के बजाए उन पर भरोसा जताते हुए, न सिर्फ जिताया वरन वरन पिछले दो दशकों में यह कांग्रेस का बेहतरीन प्रदर्शन था। प्रधानमंत्री अपनी पहली पारी में तमाम वामपंथी दलों और नासमझ दोस्तों से घिरे थे, इस बार वह संकट भी नहीं है। आखिर फिर क्यों उन्हें फैसले लेने में दिक्कतें आ रही हैं। वे आखिर क्यों अपने आपको एक अनिर्णय से घिरे रहने वाले नेता के रूप में खुद को स्थापित कर रहे हैं। अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी के बावजूद उनकी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है। जिन राष्ट्रमंडल खेलों में प्रकट भ्रष्टाचार हुआ उनको वे अपने भाषण में देश का गौरव बता आए। भोपाल गैस त्रासदी से लेकर जातिगण जनगणना हर सवाल पर सरकार का नेतृत्व कहीं नेतृत्वकारी भूमिका में नजर नहीं आया। यह जानते हुए भी कि यह उनके राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण पारी है, डा. मनमोहन सिंह ऐसा क्यों कर रहे हैं, यह एक आश्चर्य की बात है। यूं लगने लगा है जैसे वास्तव में उनका नौकरशाह अतीत उनपर हावी हो और अनिर्णय को ही निर्णय मानने की कुशल अफसरशाही के मंत्र को ही उन्होंने अपना आर्दश बना रखा है। यह भी संभव है कि हमारे प्रधानमंत्री क्योंकि जनता के बीच से नहीं आते और उनके सामने जनसमर्थन जुटाने की वैसी चुनौती नहीं है जो आम तौर पर नेताओं के पास होती है, तो वे जनता के प्रश्नों को बहुत महत्व का न मानते हों। क्योंकि संयोग से कांग्रेस के पास जनसमर्थन जुटाने की जिम्मेदारी वर्तमान प्रधानमंत्री की नहीं है , गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों पर है। पिछले कार्यकाल में परमाणु करार को पास कराने के प्रधानमंत्री की जो ताकत, बेताबी और उत्साह नजर आया था तो ऐसा लगा था कि डा. मनमोहन सिंह ने अपने पद की ताकत को पहचान लिया है। किंतु वह सारा कुछ करार पास होने के बाद हवा हो गया। शायद अमरीका से किए वायदे चुकाने का जोश उनमें ज्यादा था किंतु जनता से किए वायदे हमारे नेताओं को याद कहां रहते हैं। शायद यही कारण है कि आज की राजनीति में जनता का एजेंडा हाशिए पर है। मनमोहन सिंह की सरकार इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ही निराश करती नजर आ रही है। कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री का चयन किया है उसे जनता की भावनाएं भी समझनी होंगी। यदि वर्तमान शासन एवं प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय कर, कांग्रेस के युवराज को कमान संभालने और उनके जादुई नेतृत्व की आभा से सारे संकट हल करने की योजना बन रही हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु ऐसा थकाहारा, दिशाहारा नेतृत्व आखिर हमारे सामने मौजूद चुनौतियों और संकटों से कैसे जूझेगा। देश को फिलहाल प्रतीक्षा ऐसे नेतृत्व की है जो उसके सामने मौजूद प्रश्नों के ठोस और वाजिब हल तलाश सके। गंभीर मसलों पर हमारा मौन देश की जनता में निराशा और अवसाद भर रहा है। क्या श्रीमती सोनिया गांधी भी इसे महसूस कर रही हैं ?
हमेशा की तरह इस बार भी श्री द्विवेदी ने बहुत सटीक लेख लिखा है. वाकई श्री मनमोहन जी को बिलकुल सही चित्रित किया है.
ऐसी इमानदारी, भोली छवि किस काम की की करोडो जनता भूखी हो और लाखो टन अनाज सड़ता हो. दुसरे का कचरा हमारे घर की शोभा बने. चापलूस, चाटुकार मलाई खाए और मजदूर भूखे रहे, महंगाई का दानव बढ़ता जाए, भ्रष्टाचार की जड़ फैलती रहे.
दुर्भाग्य है इस देश का की इस देश के नियम ऐसे लोग बनाते है जिन्हें यह पता नहीं होता है की गुड बोतल में आता है की तेल थैली में.
माननीय मनमोहन सिंह जी एक अच्छे व्यक्ति या अर्थशास्त्री हो सकते हैं, किन्तु देश के सर्वोच्च पद प्रधानमंत्री के रूप में आप अपनी छाप जनता पर नहीं छोड़ पाए हालाकि आपने लम्बे कार्यकाल को निभाया है वो भी सोनिया जी के एक विश्वसनीय सिपहसलार के रूप में, एक व्यक्ति या एक परिवार के बीच आप जैसी योग्य शख्शियत भी दबी रह जायेगी ये सोचकर दुःख होता है,आप जैसे योग्य अर्थशास्त्री के प्रधानमंत्री होते हुवे भी देश की जनता महंगाई की अभूतपूर्व मार झेल-झेल कर घायल हो चुकी है किन्तु आप केवल सरकार वो भी कांग्रेस और सोनिया जी को बचाने में लगे हुवें हैं -विजय सोनी अधिवक्ता दुर्ग
बहुत अच्छा लेख।
संजय जी बहुत अच्छा लेख l
मनमोहन सिंह अब वो मनमोहन सिंह नहीं रहे जिन्होंने नरसिम्हाराव की सरकार को चमत्कृत किया था. शायद राहुल गाँधी के लिए रास्ता बना रहे हैं. यदि अच्छा काम करते हैं तो कोई राहुल का नाम नहीं लेगा, इसलिए शायद उनकी मजबूरी है की वो अलोकप्रिय हो जाएँ, जिससे जनता खुद बा खुद नेतृत्वा बदलने की मांग करे और राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर दिया जायेगा.
यूं ही गुज़रे साल,
यूं ही जिंदगी गुज़र जायगी।
जब अवसर की, चिडिया चुगके
कहीं ओर, फुर्र हो जायगी।
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हो सके सारे– सारे भारत का भला
कितनोंको मिलती है, ऐसी अवसर बेला ?
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आप सरदार हैं, सिंह है,
केवल मन मोहन बन कर ना रहिए।
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निकालिए तलवार कठपुतली
डोर काटके दिखलाइए।
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इतिहास में कुछ ऐसा, नाम छोडके जाइए।
ज़माना याद करे ऐसे, काम छोडके जाइए।
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समयकी चिडीया चुग जाएगी
– जब अवसरका खेत,
फिर पछताये क्या होगा?
– यह बात याद आएगी।
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यूं ही गुज़रे साल —–
यूं ही ज़िंदगी —-
गुज़र जाएगी ?
जब अवसर की, चिडिया चुगके
कहीं ओर, फुर्र हो जायगी।
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अब भी देर नहीं सरदारजी,
शास्त्री जी याद कीजिए।
सरदारोंको, पंडितोंको
कश्मिर दिला दीजिए।
संजय भाई के इस आलेख में पूरी सच्चाई है .डॉ मनमोहन सिंह देश की जनता के प्रति जबाबदेह नहीं लग रहे; .अमरीका को संतुष्ट करने में ज्यादा जोर लगारहें हैं ;जनता ने उन्हें चुना ही नहीं .देश के इलेक्टोरल सिस्टम की महिमा है की बहुमात्प्राप्त दल चाहे तो किसी फटीचर को भी प्रधान मंत्री बना दे ;जनता यदि महंगाई वेरोजगारी ;भृष्टाचार .या कर्ज से पीड़ित है तो क्या ?अगले चुनाव में किसी और को शायद राहुल को ही प्रत्यासी घोषित कर देंगे ;तब नए जोश नई उमंग से देश की यही शोषित पीड़ित जनता फिर से इसी व्य्वश्था के अलाम्वार्दारों को राज्य सिंहासन पर बिठा देगी .प्रश्न यह है की व्यक्ति महत्व पूर्ण है या की व्य्वश्था परिवर्तन ?
वाकई अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद भी डॉ. मनमोहन सिंह जी भारत की जनता के सामने अपनी छाप छोड़ने में असफल रहे है अब तक.
बहुत अच्छा लेख है धन्यवाद.