सहगल के संबंध में एक रोचक संस्मरण।

2
322

रामकृष्ण

मुहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोरकुमार सभी भारतीय फ़िल्मों के मूर्द्धन्य गायक रहे हैं, लेकिन सहगल की ऐतिहासिक

लोकप्रियता के सम्मुख उनका स्थान भी सदा गौण रहा है। प्रस्तुत हैं उन्हीं सहगल के संबंध में एक रोचक संस्मरण। (निधन: 18 जनवरी 1948)

 

स्वर सम्राट सहगल के इस स्मरण-पर्व पर उनके साथ हुई अपनी पहली और आख़री मुलाकात आज भी मुझे बखूबी याद है। चौथे दशक के मध्य लखनऊ में सम्पन्न अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में उनसे मेरी वह भेंट हुई थी। तब मेरे बीस बसन्त भी पूरे नहीं हो पाये थे, लेकिन तब भी मैं उनका दीवाना बन चुका था। उन्हीं दिनों भारतीय फ़िल्मों के मूर्द्धन्य छायाकार कृष्णगोपाल का भी लखनऊ आना हुआ। हम लोगों के साथ उनके पारिवारिक संबंध थे। अचानक एक शाम घर पर आकर उन्होंने बताया कि अपने मित्र कुंदनलाल सहगल के आमंत्रण पर वह उस संगीत सम्मेलन में एक श्रोता की हैसियत से शिरकत करने जा रहे हैं और अगर मैं चाहूं तो उनके साथ वहां चल सकता हूं, मेरे लिये उनका यह कहना किसी मुंहमांगी मुराद से कम नहीं था। सहगल मेरे लिये किसी देवपुरुष से कम नहीं थे, बालम आय बसो मोरे मन में, तड़पत बीते दिन रैन और प्रेम का है इस जग में पंथ निराला जैसे उनके गीत हम नवयुवकों के लिये तब तक अमृतवाणी के पर्याय बन चुके थे और उनको गुनगुनाते हुए हमारे मन को्र तृप्ति नहीं मिलती थी। इसी से के।जी। चाचू (फ़िल्म जगत में कृष्णगोपाल इसी लघु नाम से जाने-पहचाने जाते थे) के उस आमंत्रण को अपने लिये मैंने एक वरदान माना, और आनन-फ़ानन में तैयार होकर उनके पीछे हो लिया।

सच कहूं तो नवाब वाजिद अली शाह द्वारा निर्मित लखनऊ की एतिहासिक सफेद बारादरी के प्रांगण में पहुंच कर जब मैंने पहली बार सहगल को देखा तो मुझे विश्वास ही नहीं हो पाया कि रुपहले परदे पर अपने लाखों प्रशंसकों का मन मोहने वाले स्वर सम्राट वहीं हैं। उन पर नज़र पड़ते ही के।जी। चाचू ने उनको कुन्दनभाई के नाम से जब संबोधित किया और फिर सहगल ने जिस गर्मजोशी के साथ उन्हें अपने आलिंगन में आबद्ध कर डाला, उसे देख कर मेरे सम्मुख सन्देह का कोई प्रश्न नहीं बच रहा था। और तब मुझे इस बात पर यकीन करना ही पड़ा कि भारतीय सिनमा के जगमगाते सितारे सहगल के अलावा वह कोई दूसरा आदमी नहीं हो सकता।

मुझे याद है, सहगल की तबीयत उस दिन कुछ खराब थी। इसी से सम्मेलन के उस सत्र मे भाग लेने से उन्होंने पहले ही इंकार कर दिया था — इस आश्वासन के साथ कि अगले दिन वह मन भर कर अपने श्रोताओं का मनोरंजन करेंगे। बाद में संयोजकों के अत्यधिक अनुनय-विनय पर अपने एक-दो गीत सुनाने के लिये वह तैयार हुए और मंच पर आकर शायद कोई पक्का राग अलापना भी उन्होंने शुरू कर दिया। लेकिन जब श्रोतागण फ़िल्मी तर्ज़ पर हलके गानों की फ़र्माइश करने लगे तो सहगल अचानक यह कहते हुए मंचस्थल से बाहर निकल आये कि वह पेशेवर गायक नहीं हैं और उन लोगों की फ़र्माइशों को पूरा करना उनके लिये सहज संभव नहीं है। किंचित अस्वस्थ होते हुए भी सहगल उस समय गुस्से से कांप रहे थे और उनके लाल चेहरे को देख कर इस बात का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता था कि दर्शक-श्रोताओं के व्यवहार से उनके मन को कड़ी ठेस पहुंचीहै।

मुझे याद है, उर्दू के मशहूर अफ़साना-निगार सआदत हसन मन्टो भी उन दिनों लखनऊ आये हुए थे और सम्मेलन-स्थल में हम लोगों के बराबर वाली कुरसी पर आसीन थे। सहगल को जब बाहर जाते हुए देखा तो हम भी उनके पीछे-पीछे हो लिये। दर्शकों की भीड़ को हटाने की कोशिश करते हुए मन्टो जब सहगल के पास पहुंचे उस समय भी सहगल का गुस्सा शांत नहीं हो पाया था। — मैं यहां पर एक गाना भी नहीं सुना सकता — अपने आसपास जमा हुए लोगों से वह कह रहे थे — यह संगीत सम्मेलन है, या भाड़ों का तमाशा? और फ़ौरन ही मन्टो और के।जी। चाचू के हाथों को थामते हुए उन्होने कहा था — चलो जी कहीं बाहर घूमें चल कर, यहां एक मिनट भी मैं नहीं ठहर सकता।

के।जी। चाचू ने फ़ौरन ही एक तांगे को आवाज़ दी थी, और हम चारों उस पर बैठ कर गोमती की तरफ़ निकल पड़े थे। मंकी-ब्रिज तक पहुंचते पहुंचते सहगल का गुस्सा शांत हो चुका था और वह हम लोगों से कह रहे थे — मैने बुरा किया जो वहां से चला आया। आखिर उन बेचारों की क्या गलती थी? नहीं, मुझे वापस लौटना चाहिए ।।।। और यह कहते कहते वह तांगे को बारादरी की ओर मुड़ने का आदेश दे ही बैठे थे।

लेकिन बारादरी पहुंचने पर पता चला कि सहगल के निकलने के बाद वहां उपस्थित जनता अचानक ही इतनी आक्रामक हो उठी थी कि संयोजकों के सम्मुख उस सत्र का समापन करने के अतिरिक्त कोई अन्य पर्याय ही शेष नही बच पाया था।

वहां से किसी दूसरी जगह जाने के लिये हम लोग तांगे पर चढ़े ही थे कि सहगल मुझसे पूंछ बैठे थे — बरखुरदार, यहां मालीखां के नाम से कोई सराय है?

— हां, है तो। — मैंने जवाब दिया, लेकिन मुझे समझ में नहीं आ पा रहा था कि उस मुहल्ले से आखिर उनका क्या सरोकार है? मालीखां की सराय पुराने लखनऊ, चौक और रानी कटरे से भी आगे एक बहुत ही निम्नवर्गीय मुहल्ला माना जाता था उन दिनों, और सहगल का उससे क्या संबंध हो सकता है यह सचमुच समझ में आने वाली बात नहीं थी।

— वहां आपको किसी से मिलना है क्या? — मैंने फिर पूंछा था।

— हां, वहां जालन्धर का मेरा एक दोस्त रहता है। गरमी में कुल्फ़ियां और सर्दी में माल मक्खन बनाता है। पिछली बार जब उससे मुलाकात हुई थी तो बोला था कि लखनऊ आने पर मेरे डेरे पर ज़रूर आइयो। सो उसी से मिलने वहां जाना चाहता हूं।

फिर कुछ देर बाद हंसते हुए बोले थे — तुम लोगों को मेरे साथ वहां चलने में अगर कोई ऐतराज़ हो तो मुझे वहां पहुंचा कर वापस चले आना। मैं तुम लोगों को अपने साथ नत्थी कर बेकार की ज़हमत नहीं दूंगा।

और हमारा तांगा खरामे-खरामे मालीखां की सराय के लिये चल निकला। कैसरबाग़ उसने पार किया, रोशनुद्दौला की कचहरी को पीछे छोड़ा, गोलागंज के चौराहे पर क्षण भर के लिये घोड़े को पानी पिलाने के लिये रुका, और फिर ड्योढ़ी आग़ामीर, शाहमीना, गोल दरवाज़े, कोनेश्वर महादेव और कालीचरन स्कूल होते हुए आखिर सराय मालीखंा पहुंच ही गया। वहीं सहगल के उस अनोखे दोस्त का डेरा था। इस बीच सहगल बिना किसी हिचक या तकल्लुफ़ हमारे तांगेवाले से बातें करते रहे थे, कुछ इस तरह जैसे वह खुद भी उसी के तबके के हों — अठन्नी महीने की खोली में रह कर चवन्नी रोज़ पर अपना और अपने बीवी-बच्चों का पेट पालने वाले, गरीबी ही जिसका पेशा हो और भगवान पर विश्वास ही जिसका अकेला धर्म और ईमान।

घन्टा भर तो लगा होगा हम लोगों को सहगल के उस साथी की कोठरी को ढूंढने में, और जब उससे भेंट हुई तो उसके चतुर्थांश स्रे कम सहगल ने उसे अपने गले नहीं लगाया होगा। अजीब दृश्य था और अजीब समां। सिर्फ़ हम लोग ही नहीं, आसपास के सब मजदूर, इक्के-तांगे वाले और कुंजड़े-कबाड़ी उन दोनों के इस अद्भुद् मिलन को द्रेख कर आश्चर्यचकित थे — राम भी क्या भरत से इस तरह मिले होंगे !

और फिर तो जब हम लोग वहां जमे तो सारी रात बीत गयी और हम लोगों को उसका पता भी नहीं लग पाया। कुलफ़ी-निमिष वाले की पत्नी ने रोटी-साग बनाया और हम सब ने गपशप करते हुए उससे अपने उदर भरे — रुकरुक कर, मज़ा लेते हुए, सहगल और उनके उस दोस्त की धमाचौकड़ी के बीच। सहगल की मस्ती देखने का मेरा वह पहला मौका था — एक ऐसी मस्ती जो शायद देवलोक के वासियों के लिये भी कल्पनातीत वस्तु हो।

खाने-पीने के बाद सहगल ने अपनी तान छेड़ी, और उनकी सारी बीमारी अचानक हवा में काफ़ूर हो गयी। चार घन्टे तक वह लगातार अपने गाने सुनाते रहे, और उनके श्रोता थे आसपास के वही संगीसाथी जिन्हें हम लोग समाज के निचले तबके में शुमार करते हैं । जो गला हज़ारों रूपयों से आयोजित संगीत सम्मेलन में नहीं खुल सका था वह वहां अयाचित रूप से चल निकला, और हम लोग उसे देखते ही रह गये।

सुबह साढ़े पांच बजे तक सहगल का गायन चलता रहा था, और वहां से जब हम लोग सहगल को उनके होटल में छोड़ने के लिये सड़क पर निकले तो भंगियों ने वहां झाड़ू फेरना शुरू कर दिया था और मशकिये अपनी मशकों को लेकर उसे तर करने के लिये तैयार खड़े थे।

2 COMMENTS

  1. सहगल शराब बहुत पीते थे। बिना पीये गा नहीं सकते थे। इसके लिए उन्होंने एक कोड रखा-पैग काली पांच। ये शराब ही सहगल का काल बनी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here