और अब भारत में भी ‘तालिबानी फरमान

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तनवीर जाफ़री

ऐसा लगता है कि आजकल इस्लाम को बदनाम करने का ठेका सिर्फ मुसलमानों ने ही ले रखा है। न सिर्फ दुनिया के तमाम मुल्कों से बल्कि भारत से भी अक्सर ऐसे समाचार प्राप्त होते रहते हैं, जिनसे इस्लाम बदनाम होता है और मुसलमानों का सिर नीचा होता है। कभी बेतुके फतवे इस्लामी तौहीन का कारण बनते हैं तो कभी तालिबानी पंचायती फरमान। पिछले दिनों ऐसी ही एक शर्मनाक खबर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जि़ले से प्राप्त हुई। समाचारों के अनुसार जि़ले के सलेमपुर गांव की एक मुस्लिम पंचायत ने गांव के ही एक बुज़ुर्ग मुस्लिम परिवार का सामाजिक बहिष्कार करने की घोषणा की। बताया जाता है कि लगभग 1000 की मुस्लिम आबादी वाले इस गांव में मोइनुद्दीन एवं मरियम नामक एक मुस्लिम समुदाय के ही गरीब बुज़ुर्ग दम्पति अपने झोपड़ीनुमा कच्चे मकान में रहते हैं। यह परिवार गांव में ही गोली, टॉफी, नमक, बिस्कुट जैसी सस्ती चीज़ें बेचकर अपना पालन पोषण करता है। इस परिवार की गरीबी का आलम यह है कि यह अपने चंद मवेशियों के लिए घास व चारा आदि दूर दराज़ के खेतों से इकठ्ठा करता है तथा ईंधन के लिए लकड़ी भी इधर-उधर से मुहैया करता है। इनके रहन-सहन से ही इनकी आर्थिक हैसियत का आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

उधर दूसरी ओर इसी गांव के मुसलमानों ने अपनी एक मुस्लिम पंचायत अर्थात् अंजुमन बनाई हुई है। इसी गांव में एक मदरसा भी निर्माणाधीन है। इसके निर्माण के लिए तमाम स्थानीय व बाहरी लोगों से चंदा इकठ्ठा किया जा रहा है। इसी अंजुमन द्वारा मोइनुद्दीन व मरियम से भी मदरसे के चंदे के रूप में 500 रुपए की मांग की गई। इस गरीब दंपत्ति ने अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र 500 रुपए चंदा देने में असमर्थता व्यक्त की। बस फिर क्या था। मोइनुद्दीन तो इन जाहिलों की पंचायत की नज़र में गोया इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया। इस अंजुमन ने मोइनुद्दीन के सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार की घोषण कर दी। उसी खस्ताहाल झोंपड़ी के बाहर एक बोर्ड लिखकर लगा दिया गया जिसमें इस तालीबानी पंचायत ने गांव वालों को यह आदेश दिया था कि कोई भी व्यक्ति मोइनुद्दीन की दुकान से कोई भी वस्तु नहीं खरीदेगा, कोई इनसे किसी प्रकार का बर्ताव, व्यवहार तथा वास्ता नहीं रखेगा। यदि किसी ने अंजुमन के आदेश का उल्लंघन किया तो उसे 500 रुपए बतौर जुर्माना अंजुमन को अदा करने होंगे। तालिबानी फरमान का अंत यहीं नहीं हुआ बल्कि इन तथाकथित इस्लामी ठेकेदारों ने इनके परिवार के लोगों को अपने खेतों में शौच के लिए जाने पर भी पाबंदी लगा दी। यही नहीं बल्कि यह आदेश भी जारी कर दिया गया कि मरणोपरांत इनके परिवार के किसी व्यक्ति को मुसलमानों के स्थानीय कब्रिस्तान में भी दफन नहीं किया जाएगा। इस फरमान के बाद यह परिवार इतने आर्थिक व मानसिक उत्पीडऩ के दौर से गुज़र रहा है कि इसे अपनी दो वक़्त की रोटी जुटा पाने में भी दिक्क़त पेश आ रही है। नतीजतन एक ओर तो गांव की मुस्लिम पंचायत तो इनकी बदहाली और भुखमरी पर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही है, तो दूसरी तरफ इसी गांव के पड़ोस के एक गांव का सिख परिवार इनकी बदहाली पर तरस खाकर तथा मानवता का प्रदर्शन करते हुए इन्हें दो वक़्त की रोटी मुहैया करा रहा है।

यह तो था इन तथाकथित इस्लाम परस्तों का तालिबानी फरमान जो इन्होंने यह सोचकर जारी किया कि शायद यह तुगलकी सोच के जाहिल मुसलमान इस्लाम पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हैं। परन्तु आईए देखें कि इस्लाम दरअसल इन हालात में क्या सीख देता है। मैं अपने बचपन से कुछ इस्लामी शिक्षाएं वास्तविक इस्लामी दानिश्वरों से सुनता आया हूं। ऐसी ही एक इस्लामी तालीम थी कि पहले घर में चिरा$ग जलाओ फिर मस्जिद में। इस कहावत का अर्थ आ$िखर क्या है? यही न कि अपनी पारिवारिक ज़रूरतों से अगर पैसे बचें फिर अपने खुदा की राह में खर्च करें। यह तो कतई नहीं कि आप खुद या आपके पड़ोसी भूखे रहें और आप मस्जिद या मदरसे के निर्माण कार्य के लिए चंदा देते फिरें। जो लोग इस्लाम में वाजिब कहे जाने वाले हज के नियम से वाकिफ हैं, वो यह भलि-भांति जानते हैं कि अगर आप कर्ज़दार हैं और हज कर रहे हैं, तो वो भी जायज़ नहीं है। यहां तक कि अगर आप पर अपने बेटों व बेटियों की शादी का जिम्मा बाकी है तो पहले इन पारिवारिक ज़रूरतों को पूरा करने के बाद ही हज किया जा सकता है। हां, अगर आप आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं, फिर आप कभी भी हज कर सकते हैं। इसी तरह लगभग सभी इस्लामी कार्यकलापों के लिए यह बताया गया है कि हमेशा चादर के भीतर ही पैर फैलाना है। यहां तक कि $फुज़ूल$खर्ची को भी इस्लाम में गुनाह $करार दिया गया है। अपने को आर्थिक परेशानी में डालकर धर्म पर पैसे खर्च करना इस्लाम हरगिज़ नहीं सिखाता। मगर इन ‘तालिबानीÓ सोच रखने वाले मुसलमानों ने अपने गढ़े हुए इस्लाम के अंतर्गत फरमान जारी कर इन गरीब मुसलमानों को रोज़ी-रोटी तक से मोहताज कर दिया। जबकि एक गैर मुस्लिम सिख परिवार वास्तविक मानवीय इस्लामी तथा सिख धर्म की शिक्षाओं का पालन करते हुए इन्हें दो वक्त़ की रोटी मुहैय्या कराता रहा। क्या यही है इन तालिबानों का इस्लाम? क्या ऐसे फरमान इस्लाम धर्म की वास्तविक शिक्षाओं के अंतर्गत जारी किए जाने वाले फरमान कहे जा सकते हैं?

इस $गैर इस्लामी $फरमान को जारी करने के बाद पंचायत के प्रमुख एक अज्ञानी कठ्मुल्ला का कहना था कि यह परिवार नमाज़ नहीं पढ़ता, हमारे चंदे में, $खुशी और $गम में, हमारे धार्मिक कामों में शरीक नहीं होता। लिहाज़ा गांव के लोग इससे अपना वास्ता क्यों रखें? सवाल यह है कि मान लिया जाए कि वह परिवार यदि किसी धार्मिक आयोजन में या नमाज़-रोज़े में भी उनके साथ शरीक नहीं होता तो भी उन्हें इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वे इस पर ज़ोर ज़बरदस्ती या जब्र कर उसके विरुद्ध कोई ऐसा $फरमान जारी करें। किसी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों में शिरकत करना या न करना किसी भी व्यक्ति का अति व्यक्तिगत् मामला है। यदि कोई व्यक्ति धार्मिक करागुज़ारी अंजाम देता है तो उसके सवाब अथवा पुण्य का वह व्यक्ति स्वयं भागीदार होगा। इसी प्रकार धार्मिक कामकाज में शरीक न होने अथवा नमाज़ आदि को अदा न करने पर पाप या पुण्य का भागीदार भी वही व्यक्ति स्वयं है। ज़्यादा से ज़्यादा धर्म प्रचारक लोग या मौलवी, मुल्ला उसे अपनी बात प्यार-मोहब्बत से समझा सकते हैं। परंतु उसका सामाजिक बहिष्कार करना या उसे आर्थिक संकट में डालना या उसके विरुद्ध कोई तालिबानी फरमान जारी करना पूरी तरह से गैर इस्लामी, गैर इन्सानी व अधार्मिक है।

दरअसल आज तमाम ऐसे ही तालिबानी सोच रखने वाले मुसलमानों व नीम हकीमों तथा कठ्मुल्लाओं ने इस्लाम धर्म को बदनाम कर दिया है। चाहे वह अफगा़निस्तान के बामियान प्रांत में महात्मा बुद्ध जैसे विश्व शांति के दूत समझे जाने वाले महापुरुष की मुर्तियों को तोप के गोलों से ध्वस्त करने जैसी कायरतापूर्ण कार्रवाई हो या पाकिस्तान में मस्जिदों, दरगाहों तथा धार्मिक जुलूसों में शिरकत करने वाले शांतिप्रिय लोगों की बड़ी सं या में जान लेना या फिर भारत में कभी बेतुके फतवे जारी करना या सलेमपुर गांव में इस प्रकार के फरमान सुनाए जाना, यह सभी कृत्य अत्यंत शर्मनाक, इस्लाम विरोधी तथा मानवता विरोधी ही नहीं बल्कि इस्लाम धर्म की प्रतिष्ठा पर धब्बा लगाने वाले भी हैं।

यह कैसी विडंबना है कि उस गांव के तथाकथित मुसलमान एक मुस्लिम परिवार को भूखा व परेशान देखकर खुश नज़र आ रहे हैं जबकि एक सिख परिवार उसी परेशानहाल मुस्लिम परिवार की भूख व परेशानियों को सहन न कर पाते हुए उनकी मदद कर रहा है। क्या संदेश देती हैं हमें ऐसी घटनाएं? क्या ऐसे फरमानों से इस्लाम का नाम रौशन हो रहा है? यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जिस मदरसे की बुनियाद में ऐसे तालिबानी फरमान शामिल हों, उन मदरसों से भविष्य में निकलने वाले बच्चों की मज़हबी तालीम क्या हो सकती है और आगे चलकर वही तालीम क्या गुल खिलाएगी। इस बात का भी बड़ी ही सहजता से अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इन कट्टरपंथी तालिबानी सोच के मुसलमानों को उस सिख परिवार से प्रेरणा लेनी चाहिए जो मुसलमानों द्वार भूख की कगार पर पहुंचाए गए मुस्लिम परिवार को रोटी मुहैया करा रहा है। आज भारतवर्ष में हज़ारों ऐसी मिसालें मिलेंगी जिनमें हिन्दू व सिख समुदाय के लोग इस कद्र मिलजुल कर रहते हैं कि कहीं हिन्दू नमाज़ पढ़ते हैं, कहीं रोज़ा रखते हैं। कहीं मोहर्रम में ताजि़यादारी करते हैं तो कहीं पीरों फकीरों की दरगाहों की मुहा$िफज़त करते हैं। परन्तु इन गैर मुस्लिमों का इस्लामी गतिविधियों की और झुकाव का कारण उदारवादी इस्लामी शिक्षाएं हैं न कि इस प्रकार की कट्टरपंथी शिक्षाएं या तालिबानी फरमान।

लखीमपुर जि़ले के सलेमपुर गांव की घटना से एक बात और साफ ज़ाहिर होती है कि जब इन मुसलमानों का रवैया अपने ही समुदाय के एक परिवार के साथ ऐसा है फिर आिखर दूसरे समुदाय के प्रति प्रेम व सद्भाव से पेश आने की उम्मीद इनसे कैसे रखी जा सकती है। प्रभावित परिवार आज इस स्थिति में पहुंच गया है कि उस परिवार की बुज़ुर्ग महिला यहां तक कह रही है कि हम अब इनके (तालिबानी मुसलमानों) आगे न झुक सकते हैं, न कुछ मांग सकते हैं बल्कि हमें गैर मुस्लिमों के आगे झुकने व उनसे मांगने में कोई हर्ज नहीं है। कल्पना की जा सकती है कि धर्म के इन ठेकेदारों ने बुढ़ापे में इस बुज़ुर्ग द पत्ति को अपने तालिबानी फरमान से कितना दुखी व प्रताडि़त किया है। कितना बेहतर होता यदि यही पंचायत अथवा अंजुमन गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने, उनकी रोज़ी-रोटी व शिक्षा आदि को सुनिश्चित करने में अपनी तवज्जोह देती। बजाए इसके यही पंचायत लोगों से ज़ोर-ज़बरदस्ती कर पैसे वसूलने तथा चंदा न देने पर उसका सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने जैसा अधार्मिक कृत्य अंजाम दे रही है।

लिहाजा़ ज़रूरत इस बात की है ऐसे अज्ञानी, अर्धज्ञानी, नीम हकीम कठमुल्लाओं से इस्लाम धर्म को बदनाम व रुसवा होने से बचाया जाए। ऐसे तुगलकी व तालिबानी फरमान गैर मुस्लिमों को अपनी ओर क्या आकर्षित कर सकेंगे जिनसे कि मुस्लिम समुदाय का ही कोई परिवार रुसवा व बेज़ार हो जाए। जो इस्लाम सभी धर्मों व समुदायों के साथ, यहां तक कि सभी प्राणियों के साथ, और तो और पेड़-पौधों तक के साथ मानवता व सद्भाव से पेश आने की बात करता हो, वह इस्लाम किसी को भूखा रहने पर मजबूर होने की तालीम कैसे दे सकता है। इस्लाम में सूदखोरी हराम क्यों करार दी गई है? इसीलिए कि किसी व्यक्ति पर नाजायज़ आर्थिक बोझ न पडऩे पाए। न कि चंदा न देने पर किसी का हुक्क़ा-पानी बंद कर देना। यह कौन सा इस्लाम है और इस्लाम में या हदीस में या कुरानी शिक्षाओं में इसका कहां उल्लेख किया गया है। इस्लाम में दिनो-दिन बढ़ती जा रही ऐसे लोगों की घुसपैठ को रोकना होगा। ऐसे फरमान जारी करने वालों के िखलाफ भी सख्त कार्रवाई किए जाने की ज़रूरत है। ज़ुल्म-ओ -ज़ब्र का नाम इस्लाम नहीं है बल्कि उदारवाद, मानवता व खुद को भूखा रखकर दूसरों को खाना खिलाने का नाम इस्लाम है। जो कुछ सलेमपुर गांव के गरीब दंपत्ति के साथ वहां कि स्थानीय अंजुमन ने किया है, पूरी तरह से न सिर्फ गैर इस्लामी व अमानवीय है बल्कि साफतौर पर राक्षसीय कृत्य है जिसकी जितनी घोर निंदा व भत्र्सना की जाए, उतना ही कम है।

2 COMMENTS

  1. घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
    किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
    न मालूम क्यों जहाँ भी मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाते हैं वहीँ ‘शरियत’ का निजाम laagoo कर dete हैं .
    अब कश्मीर और पाक व् बंगला देश को ही देख लो – sabhi alpsankhyak ‘काफिर’ kahin nazar nahin आते ?

  2. आदरणीय तनवीर जाफरी जी आपने बहुत ही अच्छा लेख लिखा साथ ही एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है| आपने सही कहा है की इस प्रकार के तालिबानी विचारधारा के लोगों के कारण ही इस्लाम बदनाम हो रहा है| इन्ही के कारण मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जा रहा है| दरअसल ये लोग इस्लाम के मूल से भटक गए हैं जिसे हज़रात मोहम्मद ने बनाया था| इन्ही के कारण एक विद्रोह की भावना हिन्दू मुस्लिम में बढ़ रही है| मै राजस्थान का रहने वाला हूँ अत: कई बार अजमेर शरीफ के दर्शन कर चूका हूँ| ऐसा बहुत बार मेरे साथ हुआ है जब कई लोग मुझे कहते हैं कि जब कोई मुसलमान किसी मंदिर में नहीं जाता तो हम क्यों उनके मस्जिद में जाएं| अब उन्हें कौन समझाए कि वे मंदिर मस्जिद को अलग समझ कर कैसी मुर्खता कर रहे हैं| मेरा एक मुस्लिम मित्र पता नहीं कितनी ही बार मेरे साथ पता नहीं कितने ही मंदिरों में आ चूका है| और ऐसा वह मेरे कारण नहीं करता अपितु अकेला भी मंदिर जाता रहता है| इसी प्रकार के मुसलमान सच्चे मुसलमान होते हैं|
    आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाकर इस्लाम को गौरवान्वित किया है| अच्छे लेख के लिए आपका बहुत बहुत धयवाद|

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