और भी ग़म है जमाने में क्रिकेट के सिवा

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ए एन शिबली

वैसे तो क्रिकेट के दसवें विश्व कप का आग़ाज़ 19 फरवरी को भारत और बांग्लादेश के बीच खेले गए मैच से 19 फरवरी को हुआ मगर इस के कुछ दिन पहले से ही भारत पूरी तरह से इस के रंग में रंग गया है। विश्व कप शुरू होने के लगभग एक सप्ताह पहले से ही क्रिकेट की खबरें तो खूब आ ही रही थीं अब जबसे विश्व कप शुरू हुआ है ऐसा लगता है क्रिकेट के अलावा इस देश में कुछ हो ही नहीं रहा है। समझ में नहीं आता यह क्रिकेट का बुखार है या फिर जनता की बेहिसि जो कई बड़े मुद्दों को छोडकर पूरी तरह से क्रिकेट के पीछे लगी हुई है। जिसे देखो वो सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट की बात कर रहा है। जब से विश्व कप की गहमा गहमी शुरू हुई है तब से भारत समेत विश्व के दूसरे देशों में भी कई बड़ी खबरें सामने आयीं हैं मगर उन खबरों को वैसा महत्व नहीं दिया जा रहा है जैसा क्रिकेट को दिया जा रहा है।

टू जी स्पेक्टरम घोटाले में प्रधानमंत्री ने खुद को हर ओर से घिरता देख एलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकारों के साथ प्रैस कानफेरेंस का आयोजन। किया। संसद का काम काज ठीक से चले इसके लिए कोशिशें होती रहीं। कई मुस्लिम देशों में बड़ा संघर्ष देखने को मिला। मगर यह सब खबरें क्रिकेट से पीछे दब गईं । हद तो यह हो गयी की पत्रकारों ने प्रधान मंत्री के साथ एक संजीदा इशू पर हुई कनफेरेंस में क्रिकेट से संबंधित सवाल पूछ लिया। समाचारपत्रों में और टेलीविज़न पर इन दिनों घट रही बड़ी खबरों को उतनी जगह नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए। कारण यह की अब हर किसी को क्रिकेट पसंद है, क्रिकेट पसंद नहीं भी है तो जबरदस्ती आपको क्रिकेट को पसंद करना पड़ेगा। कियुंकी यदि आप टेलीविज़न देखने के शौकीन हैं तो आपको तो क्रिकेट के अतिरिक्त वहाँ कोई खबर मिलेगी ही नहीं तो फिर देखेंगे किया। मज्बूरी में आपको भी क्रिकेट को पसंद करना पड़ेगा। मार्केट के बड़े बड़े खिलाड़ियों की एक साजिश के तहत अब क्रिकेट ने हर किसी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर विश्व कप के दौरान झारखंड में राष्ट्रिए गाने भी हो रहे थे उसके बारे में तो किसी को पता ही नहीं चला। इस गेम के दौरान कई नए रिकार्ड बन गए मगर आम पाठक को इसका अंजदाजा हुआ भी नहीं। होता भी कैसे अखबार में तो हर तरफ क्रिकेट की ही धूम थी और है। पहले कहा जा रहा था की क्रिकेट को इतना महत्व दिया जा रहा है की दूसरे खेल बिल्कुल दब गए हैं। मगर अब सिर्फ खेल नहीं दब गए हैं बल्कि कई बड़े समाचार भी दब गए हैं। दूसरे खेलों में बड़ा बड़ा कमाल करने वाला खिलाड़ी अपनी पहचान नहीं बना पाता मगर क्रिकेट में बारहवाँ खिलाड़ी भी हर किसी की नज़र में आ जाता है। अब सवाल यह है की यह कमाल क्रिकेट का है या फिर उन लोगों का जो अपने अपने लाभ के लिए क्रिकेट को इतना महत्व दे रहे हैं। क्रिकेट दिन भर का खेल है जबकि फूटबाल का फैसला सिर्फ 90 मिनट में हो जाता है। फूटबाल में आप ने एक पल के लिए आँख फेरि तो पता नहीं कौन सा शानदार पल आपने मिस कर दिया जबकि क्रिकेट में दिन भर फंसे रहना पड़ता है, बल्लेबाज़ी और गेंदबाजी करने एयाले खिलाड़ी के अलावा बाक़ी खिलाड़ी उल्लू की तरह मुंह ताकते रहते हैं उसके बावजूद भारत जैसे देश में क्रिकेट ने अब एक बहुत बड़े तेवहार का रूप धरण कर लिया है। यही कारण है की विश कप आते ही सरकारी अफसरों ने छुट्टियाँ ले ली हैं, विददारथियों ने बहाने बना कर स्कूल जाना छोड़ दिया है, बड़े बड़े होटलों ने खिलाड़ियों के नाम पर डिश तैयार कर ली है। कुछ लड़कियां अपने चेहरों पर विश्व कप का लोगो बनवा रही है तो किसी ने लोगो के लिए अपनी पूरी पीठ ही दे दी है। अखबारों ने पृष्ठों की संख्या बढ़ा ही दी है चैनल वालों ने तो एक अजब सा ड्रामा ही शुरू कर दिया है। टॉस जीतने से लेकर वो अब हर गेंद और हर विकेट को ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर पेश कर रहें हैं। किसी किसी चैनल पर पूर्व खिलाड़ी अपनी राय दे रहें हैं तो कहीं कहीं बाबा रामदेव के हमशक्ल से नौटंकी कराई जा रही है।

क्रिकेट कोई नया खेल नहीं है। इस की शुरूआत 1876 में हुई थी। फिर 1971 में पहली बार एकदिवसीए अंतराष्ट्रीए मुकाबला हुआ। धीरे धीरे वन डे मैचो में रंगीन कपड़ों का इस्तमल हुआ। एक दिन ऐसा आया जब क्रिकेट 20-20 ओवरों की होने लगी और आई पी एल जैसे मुकाबले भी होने लगे जिन में खेल तो हुआ ही पैसों की बरसात भी हुई और जाम कर अय्याशी भी हुई। अय्याशी का यह आलम था की स्टेडियम में शराब भी परोसी गयी। सच्चाई यह है की अब क्रिकेट को पूरी तरह से मार्केट से जोड़ दिया गया है। पहले खिलाड़ी शायद देश के लिए खेलते थे उनमें यह जज़्बा होता था की देश के खेलूँगा तो खुद का और माँ बाप का नाम रोशन होगा मगर अब ऐसा नहीं है खिलाड़ी पैसे के लिए खेल रहें हैं। क्रिकेट में अब दौलत भी मिल रही है और शोहरत भी मिल रही है। खिलाड़ी की बस अब एक ही इच्छा है किसी तरह देश के लिए दो चार महीने खेल लो। किसी तरह से 6 महीना भी खेलने में सफल रहे तो मैच फीस के तौर पर मोटी रकम तो मिलेगी ही बड़ी बड़ी कंपनियों के विज्ञापन भी मिल जाएँगे और फिर टी वी पर बकवास कर के कमाई हो ही जाएगी। कीकेट को अब पूरी तरह से गलेमर से जोड़ दिया गया है। एक तरफ जहां क्रिकेट में भी नाच गाने होने लगे हैं वहीं अब क्रिकेटर भी नाचने गाने लगा है। क्रिकेट में आने के बाद आदमी कितना बहक सकता है इसका अंदाज़ा आप इरफान पठान और युसुफ पठान जैसे मौलाना के बेटे को देख कर लगा सकते हैं जो क्रिकेट में आने से पहले बड़े भोले थे मगर अब फिल्मी हीरोइनों के साथ नाचते हुये नज़र आ जाते हैं। असल में यह सारी चीज़ें मार्केटिंग अजेंसियाँ तय करती हैं। कुल मिलाकर देखें तो यह सही है की जनता का कीमती समय तो बर्बाद हो रहा है मगर इसके अलावा क्रिकेट से हर किसी का फायेदा ही हो रहा है। खिलाड़ी भी कमा रहें हैं, क्रिकेट बोर्ड भी कमा रहा है, कंपनियां भी कमा रही है, चैनल भी कमा रहें हैं , जो विज्ञापन दे रहा है वो भी कमा रहा है और जिन खिलाड़ियों ने अपने कैरियर के दौरान नहीं कमाया वो अब चैनलों पर मेहमान बन कर कमा रहें हैं। हर न्यूज़ चैनल अपनी अपनी हैसीयत के हिसाब से मेहमान बुला रहा है।

क्रिकेट ने अगर बड़ी तरक़्क़ी कर ली है औए इस से किसी को लाभ हो रहा है तो अच्छी बात है मगर किया इस समय देश में क्रिकेट के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है या फिर यह की इन दिनों किया क्रिकेट ही सबसे बड़ी खबर है। लीबिया से 40 साल बाद गद्दाफ़ी की कुर्सी हिलती हुई नज़र आ रही है, यमन, बहरीन और दूसरे मुस्लिम देशों में इन दिनों आग लगी हुई है। खुद अपने देश भारत में इन दिनों कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको सुर्खियों में होना चाहिए मगर अफसोस की ऐसा नहीं हो रहा है। समाचारपत्र या फिर चैनल जनता की सोच तय करते हैं। वो जैसा प्रकाशित करेंगे या दिखाएँगे वही जनता देखेगी और समझेगी इसलिए समाचार पत्र और चैनल को भी चाहिए की वो क्रिकेट की खबरें ज़रूर दें मगर क्रिकेट से दीवानगी के चक्कर में बड़ी खबरों को न छोड़ें। उन्हें समझना चाहिए की और भी ग़म हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा.

 

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ए.एन. शिबली
उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों पर निरंतर कलम चलाने वाले शिबली जी गत दस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, कुबेर टाइम्स, उर्दू में राष्ट्रीय सहारा, क़ौमी आवाज़, क़ौमी तंजीम आलमी सहारा, हिन्दी और उर्दू चौथी दुनिया सहित अनेक वेबसाइट्स पर लेख प्रकाशित। फिलहाल उर्दू दैनिक हिंदुस्तान एक्सप्रेस में ब्‍यूरो चीफ के पद पर कार्यरत हैं।

2 COMMENTS

  1. धन्यवाद शिबली जी. आपने बहुत अच्छा प्रशन उठाया है.
    वाकई अंग्रेजो ने इस देश में १९४७ में जाते समय कुछ VYRUS छोड़ गए जिनमे अंग्रेजी, क्रिकेट और चाय कुछ ख़ास है.
    क्रिकेट को खेलो का भगवन बना दिया, क्रिकेट के आगे कुछ भी बेकार है. आजकल तो दूरदर्शन देखते नहीं है इसलिए पता नहीं है. कुछ सालो पहले तो जिस दिन क्रिकेट मैच होता था उस दिन सारे प्रायोजित कार्यक्रम (समाचार भी) गोल हो जाते थे. ऐसा लगता था की दूरदर्शन को सर्कार की उपलब्धि और क्रिकेट के सिवा कुछ दीखता ही नहीं है.
    १० से १२ पेज के अख़बार में एक से दो पेज तो क्रिकेट में ही भरे होते थे / है.
    टीवी / न्यूस चेनल ऐसे बढ़ा चढ़ा कर दिखाते है जैसे क्रिकेट खिलाडी भगवन हो.
    आखिर है क्या क्रिकेट. इंग्लैंड का थोपा गया खेल जिसे दुनिया के ३०० देशो में से २०-२५ देश ही खेलते है. अंग्रेज चरवाहों का खेल जिसे वोह पूरा दिन पास करने के लिए खेलते थे.
    क्रिकेट खेल तो अच्छा है किन्तु इस खेल ने तालाब को जलकुम्भी की तरह घेर लिया है जिसमे दुसरे खेल दम तोड़ रहे है. ९०% युवा शक्ति (जो खेलती है उसमे) क्रिकेट खेलती है, बाकी बचे १०% ही अन्य खेल खेलते है. ऐसे में कैसे अंतराष्ट्रीय स्टार पर स्वर्ण पदक आयेंगे.
    क्रिकेट प्रेमी माफ़ करे.

  2. आज भारत में क्रिकेट ने फिरंगियो की गुलामी के अवशेष के रुप मे कोई 25% लोगो के दिलो दिमाग मे अपना घर बना लिया है. लेकिन आज भी 75% लोग ऐसे है जिन्हे फिरंगियो के इस खेल क्रिकेट मे कोई रुचि नही है. उन लोगो को टीवी चैनलो के क्रिकेट-प्रेम की वजह से बेवजह जबरन क्रिकेट सुनना-देखना पडता है. अच्छा हो की आम चैनलो से “क्रिकेट और ज्योतिषी” को दुर रखा जाए.

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