और तब पप्पू यादव के लिए कोई ‘ठौर’ नहीं बचेगा

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pappu yadav१९९० के दशक में लालू राज के शुरुआती दिनों (जिसे कालान्तर में जंगल- राज के विशेषण से नवाजा गया )  में बिहार में जब सत्ता की शह पर आपराधिक चरित्र के लोगों व बाहुबलियों के तांडव की शुरुआत हुई थी तो सर्वप्रथम जो चेहरा , अपने कारनामों के कारण , सबसे चर्चित हुआ था वो पप्पू यादव का ही था l पप्पू सत्ता – शीर्ष की शह पर आतंक का पर्याय बन चुके थे और इसका फायदा भी इन्होंने जम कर उठाया l सत्ता -शीर्ष से अपनी नज़दीकियों के दम पर अपने समर्थकों के बीच अपनी छवि ‘रॉबिन हुड ‘ की तरह बनाने में काफी हद तक सफल भी हुए l इन्होंने खुल कर ‘गुंडई व लंपटई’ के नए कीर्तिमान स्थापित किए और धीरे-धीरे इस मुगालते में जीने लगे कि बिहार में इनसे बड़ा ‘लंपट’ कोई नहीं है और इन्हें ‘छत्र-छाया ‘ देना लालू की मजबूरी है , यहाँ पप्पू भूल कर बैठे उनके जेहन में ये बात शायद आई ही नहीं कि ‘सत्ता से बड़ा लंपट कोई नहीं होता और सत्ता तो लंपट बनाने की फैक्ट्री है l”

पप्पू की हावी होने की प्रवृति और अपने को यादवों का नेता साबित करने के प्रयासों को देखकर धीरे -धीरे लालू ने पप्पू से किनारा करना शुरू  किया l वैसे भी इस दरम्यान लालू के साथ लंपटों की एक बड़ी फौज खड़ी हो चुकी थी और जिसके कुछ ‘सूरमाओं’ का कद पप्पू से काफी बड़ा था (भले ही इसमें से कुछ आगे चलकर लालू पर ही अपनी धौंस दिखाने लगे और ‘एमवाई समीकरण’ की मजबूरियों के चलते लालू को भी समझौता व अनदेखा करना पड़ा ) l

लालू के दरबार में जैसे – जैसे पप्पू का कद छोटा होता गया वैसे – वैसे पप्पू के विरोधियों की संख्या में भी इजाफा होता गया , उनका दबदबा भी घटने लगा l यहाँ एक घटना का जिक्र काफी अहमियत रखता है “ लालू द्वारा पटना में प्रायोजित एक रैली में शामिल होने पप्पू अपने काफिले के साथ पूर्णिया से पटना पूरे रास्ते उत्पात मचाते आ रहे थे, रास्ते में मोकामा में इनके काफिले को स्थानीय दबंग लोगों ने रोककर पप्पू की ऐसी ‘आव-भगत’ की कि फटे कपड़ों (लगभग नग्न) में भागते हुए थाने में शरण ले कर पप्पू ने किसी तरह अपनी जान बचाई l ऐसा नहीं था कि वहाँ रैली में शामिल होने जा रहे लोगों की सुविधा व सुरक्षा के लिए पुलिस-प्रशासन मौजूद नहीं था लेकिन किन कारणों और किस के निर्देशों पर प्रशासन ने पप्पू की भद्द उड़ने दी इसे समझना बहुत जटिल नहीं है l” लालू का इशारा व रुख भाँपकर  स्नैह – स्नैह इनके अपने इलाके में भी इन्हें चुनौती देनेवालों की तादाद काफी बढ़ गई , शासन व प्रशासन ने भी इनकी तरफ नजर टेढ़ी कर ली जिसकी परिणति लालू से पप्पू के अलग होने में हुई और पप्पू अपने ऊपर दर्ज मामलों के तहत जेल की सलाखों के पीछे पहुँच गए l जेल जाने के बाद भी पप्पू की ‘बड़बोली’ में कोई कमी नहीं आई , पप्पू इस बात को शायद अच्छी तरह से समझ नहीं पाए थे कि उनके रसूख के पीछे सत्ता की शह के बड़ी भूमिका थी l जेल के पीछे रहते हुए भी पप्पू ‘खबरों’ में बने रहने के लिए ‘प्रयासरत’ रहे लेकिन सर्वोच्च – न्यायालय के कड़े रूख और तदुपरान्त सजा पाने के बाद पप्पू का ‘सूरज लगभग डूब सा गया’ l

इसी बीच बिहार का निजाम भी बदला , परिस्थितियाँ बदलीं और जेल में बंद पप्पू और बाहर मौजूद उनके समर्थकों का मनोबल टूट सा गया l बिहार में लोगों के मुँह से सुना जाने लगा “अब पप्पू कभी पास नहीं होगा l” लेकिन सच ही कहा गया है कि “पुरुष का भाग्य कब करवट ले ले कोई नहीं जानता और राजनीति में कौन कब किसका हमराही बन जाए कोई नहीं जानता है l” राजनीतिक रूप से लालू कमजोर होते गए , उनके अनेकों ‘खंभों’ को उनके विरोधी अपनी ‘इमारत’ मजबूत करने वास्ते ले उड़े l इसी बीच पप्पू भी जेल से बाहर आ गए ( किन परिस्थितियों में , कानून की किन ‘लूप-होल्स का फायदा उठाकर पप्पू जेल से बाहर आए ये समझ से परे है ) और इन्होंने अपनी राजनीतिक जमीन फिर से तलाशनी शुरू की l इसी बीच पप्पू ने एक किताब भी लिख डाली जिसे देखकर कुछ लोगों को लगने लगा कि अब शायद एक बदला हुआ और एक नए अवतार का पप्पू देखने को मिलेगा , लेकिन एक बहुत प्रचलित कहावत है ना “इंसान का नेचर और सिग्नेचर कभी नहीं बदलता l”

पप्पू ने अनेकों ‘दरवाजे खटखटाए’ लेकिन ‘किसी’ के समीकरणों में पप्पू ‘फिट’ नहीं बैठे l लोकसभा चुनाव भी नजदीक थे लालू को बिहार के पूर्वाञ्चल में एक ऐसे सहारे की जरूरत थी जिसकी अपनी ‘लट्ठमार’ वाली छवि और हैसियत हो और ऐसे में लालू को पप्पू ही सबसे पहले नजर आए और पप्पू को भी चुनावी राजनीत में लालू की अहमियत का अंदाजा था l चुनावों में अनेकों महारथियों की ‘भद्द’ पिटने के बावजूद पप्पू संसद के दरवाजे तक पहुँचने में सफल रहे और यहीं से फिर से शुरू हुआ पप्पू का ‘पुराना रवैया’ l चुनाव जीतते ही पप्पू ने ऐसे संकेत देने शुरू किए कि उनकी जीत के पीछे किसी ‘और’ की कोई भूमिका नहीं है और उन्होंने अपने दम-खम की बदौलत ये सफलता हासिल की है l पप्पू ने कई बार खुले तौर पर लालू की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठाए , लालू के द्वारा अपने परिवार के हितों को बढ़ाए जाने पर तल्ख बयानबाजी भी की l आज के हालात को देखते हुए पप्पू ये भली – भाँति जानते – समझते हैं कि बदली हुई परिस्थितियों में उनके ऐसे तेवर और नखरे सहना लालू की मजबूरी है l

इसी दरम्यान लालू और सत्ताधारी दल के बीच गठबंधन की नई राजनीतिक बिसात बिछी ( इसकी विस्तृत चर्चा मैं नहीं करना चाहूँगा क्योंकि इस के बारे में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है ) और पप्पू के लिए फिर से ‘ सत्ता (लेकिन मजबूर) व इसके पुरोधाओं’ का साथ ‘शक्ति-वर्धक टॉनिक’ का काम करने लगा l पप्पू फिर से अपनी पूरी ‘रौ’ में आने की कोशिश करते दिखने लगे हैं , जिसकी झलक पप्पू के हालिया ‘टेंठ लट्ठमार और उनके गुंडई-लंपटई तेवर वाले ’ बयानों में देखने को मिलती है l आज एक बार फिर से पप्पू दोनों हाथों से ‘सुर्खियाँ’ बटोरने में लगे हैं l पप्पू अपने पुराने ‘रंग’ का मुजाहिरा करने की हड़बड़ी में हैं क्योंकि पप्पू को ये पता है कि आगामी विधानसभा चुनावों तक तो कोई ‘रुकावट’ बनने या डालने की ‘हिमाकत’ करने की ‘जुर्रत’ नहीं करने वाला l पप्पू का ये नया रूप और रूख बिहार के लिए कुछ अच्छे संकेत नहीं हैं क्योंकि पप्पू की देखा-देखी अनेकों ‘पप्पूओं’ का अवतरण होगा और बिहार फिर से एक ऐसे दौर में जाने को विवश होगा जिसे याद करते ही बिहार के लोग सिहर उठते हैं l

अंत में मैं पप्पू को एक नसीहत देने की धृष्टता भी करना चाहूँगा “ पप्पू को अपने ‘बुरे और फजीहत भरे दिनों’ को नहीं भूलना चाहिए क्योंकि अगर विधानसभा चुनावों के बाद बिहार की सत्ता या सत्ता की चाबी लालू के हाथों में या किसी ‘और’ के पाले में गई और यहाँ का निजाम बदला तो पप्पू को अपनी बड़बोली व हेकड़ीबाजी का खामियाजा भुगतते हुए अपने पुराने दिनों से भी बुरे दिन देखने पड़ सकते हैं और तब पप्पू यादव के लिए कोई ‘ठौर’ नहीं बचेगा  l”

 

आलोक कुमार

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