अंग्रेजी वर्चस्व के चलते संकट में आईं मातृभाषाएं

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संदर्भः 21 फरवरी अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विषेश-

प्रमोद भार्गव

यह एक दुखद समाचार है कि अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएं अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। जबकि राष्ट्र संघ द्वारा अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा का प्रमुख उद्देश्य था कि विश्व में लुप्त हो रहीं भाषाएं सरंक्षित हों, विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले। किंतु ऐसा होने के बजाय, दुनिया में 2500 भाषाएं इस बद्हाल स्थिति में पहुंच गई हैं कि वे विलुप्ति के कगार पर हैं। दुनिया की 25 प्रतिशत ऐसी भाषाएं हैं, जिनके बोलने वाले एक हजार से भी कम लोग रह गए हैं। हालांकि मातृभाषाओं की व्यावसायिक उपयोगिता का ख्याल रखते हुए इस साल इस दिवस की परिकल्पना (थीम) ‘बहुभाषाई‘ शिक्षा के माध्यम से टिकाऊ भविष्य पर जोर दिया गया है। लेकिन अंग्रेजी वर्चस्व की एकरूपता में बहुभाषाई शिक्षा कितनी सेंध लगा पाती है, यह कहना मुश्किल है ? हालांकि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस हमारे पड़ोसी बांग्लादेश के भाषाई आंदोलन से प्रभावित होकर शुरू हुआ था। बांग्लादेश में ‘भाषा आंदोलोन दिवाॅस‘ 1952 से मनाया जाता रहा है। यहां इस दिन राष्ट्रीय अवकाश भी होता है। 17 नवंबर 1999 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिन को प्रति वर्ष 21 फरवरी को मनाए जाने की स्वीकृति दी।

मातृभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है। यहां की कुल 1365 मातृभाषाओं में से 196 भाषाएं विलुिप्त के कगार पर हैं। भारत के बाद अमेरिका की स्थिति चिंताजनक है, जहां की 192 भाषाएं दम तोड़ रही हैं। दुनियां में कुल 6900 भाषाएं बोली जाती हैं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर भाषाओं की विश्व इकाई द्वारा दी गई जानकारी में बताया है कि बेलगाम अंग्रेजी इसी तरह से पैर पसारती रही तो एक दशक के भीतर करीब ढाई हजार भाषाएं पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी। भारत और अमेरिका के बाद इंडोनेशिया की 147 भाषाओं को जानने वाले खत्म हो जाएंगे। दुनिया भर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है। इनमें ‘कैरेम‘ भी एक ऐसी भाषा है, जिसे यूक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं। इसी तरह ओकलाहामा में ‘विचिता‘ भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग बोल पाते हैं। इंडोनेशिया की ‘लेंगिलू‘ बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या 150 से भी कम है।

कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्यों में कमी आने लगती है। जिस अत्याधुनिक पाश्चात्य सभ्यता पर गौरवान्वित होते हुए हम व्यावसायिक शिक्षा और प्रौद्योगिक विकास के बहाने अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ाते जा रहे हैं, दरअसल यह छद्म भाषाई अंहकार है। क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरंे हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने, इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं। कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में, भले कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारंपरिक ज्ञान का असीम भंडार होता है। ऐसी भाषाओं का उपयोग जब मातृभाषा के रुप में नहीं रह जाता है, तो वे विलुप्त होने लगती हैं। सन् 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली ऐसी पांच हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो विलुप्त हो सकती हैं।

जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने अपने शोध से भारत के भाषा और संस्कृति संबंधी तथ्यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था, उसी तर्ज पर अब नए सिरे से गंभीर प्रयास किए जाने की जरुरत है, क्योंकि हर पखवाड़े भारत समेत दुनिया में एक भाषा मर रही है। इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं हैं, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और ये पारंपरिक ज्ञान की कोष हैं। भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे हैं कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो गया है। स्वाधीनता दिवस 26 जनवरी 2010 के दिन अंडमान द्वीप समूह की 85 वर्षीया बोआ के निधन के साथ एक ग्रेट अंडमानी भाषा ‘बो’ भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थीं। इसके पूर्व नवंबर 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ ‘खोरा’ भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया था। किसी भी भाषा की मौत सिर्फ एक भाषा की ही मौत नहीं होती, बल्कि उसके साथ ही उस भाषा का ज्ञान भण्डार, इतिहास, संस्कृति, लोक गीत, लोक कथाएं और उस क्षेत्र का भूगोल एवं उससे जुड़े तमाम तथ्य और मनुष्य भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। इन भाषाओं और इन लोगों का अस्तित्व खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है। ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं।

भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम है उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया। यहां चिंता का विषय यह भी है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रहीं की ‘बो’ और ’खोरा’ भाषाओं की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाईं। ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाईं। दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिश थीं। अंग्रेजों ने जब भारत में फिरंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया। अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरु किया गया। इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब 10 जनजातियों के पांच हजार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे। बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरंतर रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे। नतीजतन गिनती के केवल 52 लोग जीवित बच पाए। ये लोग ‘जेरु’ तथा अन्य भाषाएं बोलते थे। बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा ‘बो’ के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थी। लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण तजिंदगी उसने ‘गूंगी’ बने रहने का अभिशाप झेला। भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग 65 हजार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे। ईसाई मिशनरियों द्वारा इन्हें जबरन ईसाई बनाए जाने की कोशिशों और अंग्रेजी सीख लेने के दबाव भी इनकी घटती आबादी के कारण बने।

‘नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फाॅर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज’ के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है। सन् 2100 तक भू-मण्डल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषा और बोलियों का लोप हो सकता है। इनमें से पूरी दुनिया में 2700 भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं में असम की 17 भाषाएं शामिल हैं। यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं। इसके बावजूद 28 हजार लोग देवरी भाषी, मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब 19 हजार लोग अभी भी हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं। घरों में ,बाजार में व रोजगार में इन भाषाओं का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन भाषाओं को सीख-पढ़ नहीं रही है।

वे ही भाषाएं बोलियों और लिपियों के रूप में जिवित रह सकती हैं जो उपयोग में बनी रहें। पूरी दुनिया में 15 हजार से अधिक भाषाएं दर्ज है लेकिन आज उनमे ंसे आधी से ज्यादा मर गईं हैं तो इसका कारण इन्हें उपयोग से वंचित कर देना है। कई लोग भाषाओं की विलुप्ती का कारण आक्रांताओं के हमलों को मानते हैं। भारत में भी इस स्थति को भाषाओं की विलुप्ती का कारण माना गया। लेकिन यह तथ्य थोथा है। फ्रांस में भी यह भ्रम फैला हुआ है। फ्रेंच भाषियों को यह आशंका सता रही है कि वहां कि युवा पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति आकर्षित है। इसलिए वहां अंग्रेजी से मुक्ति के उपाय सुझाए जा रहे हैं। जरूरत भाषा को उपयोगी बनाए रखने की है। यदि भाषाएं बोल-चाल के साथ रोजगार और तकनीक की भाषा बनी रहती हैं तो जीवित बनी रहेंगी। नाइजीरिया और केमरून की ‘बिक्या‘ भाषा इस तरह लुप्त हुई। इस भाषा को प्रचलन में बनाए रखने वाले एक-एक कर जब मरते चले गए तो उनके साथ भाषा भी मरती चली गई। वर्तमान में विश्व की 90 प्रतिशत भाषाओं और बोलियों पर विलुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। वैसे भाषाओं का मरना हर युग और हर देश में एक सिलसिला बना रहा है। भारत की सबसे प्राचीन ब्राह्मीलिपी को आज बांचने वाला कोई नहीं है। इसी तरह एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया क्षेत्रों की अनेक भाषा और बोलियां तिल-तिल मरती जा रही हैं।

प्रकृति की विलक्षणता और सामाजिक विविधता की युगों से चली आ रही पहचानों को हम भाषाओं के माध्यम से ही पृथक-पृथक रूपों में चिन्हित कर पाते हैं। भाषा से ही हम विकास का ढांचा खड़ा कर पाते हैं। इस विकास के साथ जो भाषा जुड़ी होती है, उसकी जीवंतता बनी रहती है। आज अंग्रेजी जहां भाषाओं की विलुप्तता की से जहां खलनायिका साबित हो रही है, वहीं इसके महत्व को एकाएक इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है ? क्योंकि यह आधुनिक तकनीक के व्यावहारिक और व्यावसायिक उपयोग का विश्वव्यापी आधार बन गई है। दुनिया की युवा पीढ़ी विश्व समाज से जुड़ने के लिए अंग्रेजी की ओर आकर्षित है। लेकिन यदि अंग्रेजी इसी तरह पैर पसारती रही तो दुनिया में भाषाई एकरूपता छा जाएगी, जिसकी वटवृक्षी छाया में अनेक भाषाएं मर जाएंगी।

भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं। व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीन भावना भी पनप रही हैं। इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाओं की विलुप्ति पर अंकुश लगाना मुश्किल है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेषों में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफतरों में रोजगार दिए जाएं। इससे अंग्रेजी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं व बोलियों का सरंक्षण तो करेंगे ही उन्हें रोजगार का आधार बनाकर गरिमा भी प्रदान करेंगे। ऐसी सकारात्मक नीतियों से ही युवा पीढ़ी मातृभाषा के प्रति अनायास पनपने वाली हीन भावना से भी मुक्त होगी। गोया, जरूरी है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा और आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को नए सिरे से अहमियत दी जाए।

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