श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
पूरे देश में अभी अन्ना के आंदोलन की गूंज है। जिसे देखो वो अन्ना के समर्थन में नारे लगाता दिखाई दे रहा है। जनाब ये लोकतंत्र है यहॉं जनता का राज है सो आंदोलन होना और उसमें लोगों का जुड़ना लोकशाही का एक तरीका है। तंत्र की कोई व्यवस्था अगर लोक को पसन्द ना आए तो लोक को अधिकार है कि वह अपने ही तंत्र की खिलाफत कर सकता है। वर्तमान में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अन्ना हजारे अपने ऐसे ही लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करके लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं।
वैसे कहने वाले लोकतंत्र को भीड़तंत्र भी कहते हैं और कभी-कभी लगता है कि वास्तव में यह भीड़तंत्र ही है। संगठन और भीड़ में फर्क होता है। भीड़ भेड़ की तरह होती है जैसे कोई एक व्यक्ति करता है वैसे ही लोग करने लगते हैं सो अभी कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है कि अन्ना हजारे के साथ यही भीड़ शामिल हो रही है। मेरे करने का मतलब यह कतई ना समझा जाए कि अन्ना का मुद्दा गलत है, मेरा कहना है कि अन्ना जो मुद्दा उठाया है भ्रष्टाचार का वास्तव में वह एक गंभीर और सही मुद्दा है जिससे वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र को काफी नुकसान हो रहा है परन्तु यहॉं यह भी समझाना होगा कि हमारे देश में संविधान सबसे बड़ा है और संविधान से ऊपर कोई नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान का प्रारूप कुछ ऐसा बनाया कि संविधान की सर्वोच्चता ही सबसे ऊपर रखी गई, न कोई व्यक्ति, न कोई पद और न ही कोई संस्था संविधान से बड़ी है और न हो सकती है। यहॉं तक कि संविधान बनाने वाली भारत की जनता भी संविधान से ऊपर नहीं है। भारत के संविधान का निर्माण भारत की महान् जनता ने ही किया है और संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग ही भारत के संविधान को अंगीकार और स्वीकार करते हैं।
विभिन्न न्यायिक निर्णयों में समय समय पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत के संविधान में परिवर्तन किया जा सकता है लेकिन किसी भी सूरत में इस संविधान की मूल भावना में परिवर्तन नहीं किया जा सकता और यहीं से शुरू होती है अन्ना हजारे की बात की अगर जनलोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट को ले लिया गया तो यह संविधान की मूल भावना के विपरीत होगा। हमारे संविधान में किसी भी पद या व्यक्ति को सुप्रीम नहीं रखा गया है। हमारे संविधान का मूल भाव यह है कि हमारे देश में लोकतंत्र हर हाल में कायम रहे। हम किसी भी समस्या का सामना करने को तैयार है लेकिन किसी भी सूरत में लोकतंत्र पर हमला हो ऐसी कोई व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। हमारे संविधान में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि लोकतंत्र की रक्षा हर हाल में हो। विश्व के सबसे बड़े लिखित भारतीय संविधान में सामान्य तौर पर यह व्यवस्था देखने को मिलती है कि जो व्यक्ति किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकता है वह व्यक्ति उसे अपने पद से हटा भी सकता है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने का अधिकार राष्ट्रपति को है तो वह उसे हटा भी सकता है लेकिन कुछ संवैधानिक पद ऐसे रखे गए हैं कि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है लेकिन हटाने का अधिकार राष्ट्रपति को नहीं दिया गया है जैसे सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीश, मुख्य चुनाव आयुक्त, संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष। क्योंकि अगर इनको हटाने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया जाता तो भारतीय लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता। राष्ट्रपति जिसे चाहे हटा देता और तानाशाह बन जाता और इससे न्यायपालिका की संप्रभुता खतरे में पड़ जाती। वर्तमान में जिस जन लोकपाल की बात की जा रही है उसमें यही बात लग रही है कि एक ऐसा व्यक्ति जो प्रधानमंत्री व न्यायपालिका की मॉनिटरिंग करेगा उसके पर निगरानी रखेगा मतलब ऐसा व्यक्ति न्यायापलिका व कार्यपालिका के ऊपर का होगा जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की बात है और ऐसा करना असंवैधानिक होगा।
हमारे संविधान में भारत को एक संप्रभु राष्ट्र बनाया गया है। राष्ट्र की संप्रभू शक्ति का प्रयोग न्यायपालिका में न्यायपालिका करती है और प्रधानमंत्री भी इसी संप्रभु शक्ति का प्रतीक है और किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता पर कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता यह एक महत्वपूर्ण बात है। जनलोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री और न्यायपालिका के आने से यह संप्रभुता खतरे में पड़ जाएगी जो कि किसी भी गणतंत्रात्मक राष्ट्र के लिए सही नहीं कही जा सकती।
एक बात ओर जो इस आंदोलन व अन्ना हजारे को लेकर गौर करने की है कि भारतीय लोकतंत्र में कानून बनाने की शक्ति संसद को दी गई है जिसमे राष्ट्रपति, लोकसभा, राज्यसभा शामिल है। इनके अलावा किसी भी संस्था या व्यक्ति को कानून बनाने का अधिकार नहीं है। अन्ना हजारे की यह जिद्द ही कही जाएगी कि वो जो कह रहे हैं वहीं कानून बने हॉं इतना जरूर है कि उनकी बात को संसद के सामने रखा जा सकता है और अगर इस देश की संसद को सही लगता है तो कानून बनाया जा सकता है। अतः किसी भी कानून को बनाने की जिद्द को संवैधानिक नहीं कहा जा सकता है। प्रत्येक कानून के बनने की एक प्रक्रिया है और उसी से कानून का निर्माण होता है बाकी सारी बाते जिद्द मानी जाएगी।
लोकतंत्र में आंदोलन, धरना, प्रदर्शन होना गलत नहीं है और यह तो मजबूत लोकशाही की निशानी है। अतः इस बात के लिए अन्ना हजारे धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने पिछले कईं दशकों से सोई इस देश की जनता की तंद्रा को भंग करने का काम किया। लोगों को आज जेपी याद आ रहे हैं और लोकशाही में लोगों का चिंतन मजबूत लोकतंत्र का निर्माण करता है। मगर अन्ना हजारे को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में लोगों की चुनी सरकार के नुमाइंदे ही कानून बनाते हैं और लोक के इस तंत्र को चलाने की जिम्मेदारी इनको ही जनता ने सौंपी है। अतः आम जन अपने ही बनाए तंत्र में विश्वास रखें और अगर तंत्र पर विश्वास न हो तो समय आने पर तंत्र बदल दें यह ताकत है लोक की।
रंगा जी , दवे साहब जो कह रहे हैं वह यह है की संविधान में जो लिखा है वह अंतिम सच नहीं हैं. समय के साथ चीजें बदलते हुए आपने देखी ही हैं . कई तरह के बल हैं तो शक्तियों के बंटवारे या प्राइवेट बिल लाने से वह भी एक एक नेक उद्देश्य के लिए जन लोकपाल जरूरी है. शुभ संकेत है. मैं भरोसा दिलाता हूं अनन्ना और उनके सब जी वह नहीं हो सकते जो हम इमरजेंसी देखने पर मजबूर हुए तब भी कहा गया था , यही लोक तंत्र है . तो व्यवस्था कितनी भी अच्छी क्यों न हो गेहूं की तरह लम्बे समय के बाद उसमें घुन लगना शुरू हो जाता है.जनता के वोट के निहित अर्थ एक प्रक्रिया द्वारा भ्रष्ट जनप्रतिनिधि की वापसी का अधिकार होना चाहिए . जनता ही सम्प्रभु है यह फ्रांसीसी क्रान्ति से साफ़ हो चुका है तभी समानता , भाईचारे आदि की हवा बही.
दवे साहब आपका बहुत धन्यवाद् की आपने मेरा लेख ध्यान से पढ़ा और अपने विचार भी बताये और सर जी जो मैंने पढ़ा है और जो अपने स्टुडेंट को पढ़ता हु कानून की पढाई के दौरान उससे ही कुछ लिखने का प्रयास किया है हो सकता है आप मेरे विचारो से सहमत न हो पर इसका मतलब ये नहीं की मई लिखना ही बंद कर दू ओउर ऐसे ही विचार लोक्तान्रा के खिलाफ है जैसे आपने व्यक्त किये है की किसी को छापो ही मत आदि आदि अगर आपको मेरे विचारो से दुःख हुआ है तो आपसे सार्वजनिक रू से छमा मांगता हु और उम्मीद है आप मेरी एस गलती के लिए मुझे जरुर माफ़ करेंगे पर आपसे ये विनती है की मेरे लिखने के अधिकार पर कुठाराघात न करे