अन्ना-केजरीवाल मतभेद: बात दरअसल ये है…

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निर्मल रानी

जिस प्रकार गुज़रा एक वर्ष टीम अन्ना द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा जनलोकपाल विधेयक के समर्थन में छेड़े गए आंदोलन को लेकर सुर्खियों में रहा तथा इस आंदोलन ने न केवल सत्ताधारी पक्ष बल्कि अन्य सभी राजनैतिक दलों की नींदें भी हराम कर दीं। ठीक इसके विपरीत इन दिनों इसी टीम अन्ना के मध्य आई कथित दरार को लेकर न केवल मीडिया बल्कि राजनैतिक दल भी खूब चुटकियां ले रहे हैं। राजनैतिक पार्टी का गठन करने या न करने को लेकर अन्ना हज़ारे व अरविंद केजरीवाल के बीच पैदा हुए मतभेद को लेकर जहां राजनैतिक हल्क़ों में जश्र का सा माहौल है वहीं टीम अन्ना के इन दो प्रमुख नेताओं के मध्य मतभेद पैदा करने का श्रेय लेने का भी विभिन्न नेताओं द्वारा प्रयास किया जा रहा है। एक ख़बर के अनुसार जिस दिन रालेगंज सिद्धिमें अन्ना हज़ारे व केजरीवाल ने अपने संघर्ष के अलग-अलग रास्ते चुने उसी दिन सोनिया गांधी के निवास 10 जनपथ पर सोनिया गांधी को यह जताने वाले नेताओं की क़तार लग गई कि दरअसल वही तो हैं फूट डलवाने के असली सूत्रधार। यदि इसी प्रकार के एक और दूसरे समाचार पर यक़ीन किया जाए तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी अरविंद केजरीवाल को टीम अन्ना से अलग करने में कथित रूप से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

बहरहाल भले ही अन्ना हज़ारे व केजरीवाल राजनैतिक पार्टी बनाए जाने के मुद्दे को लेकर अपने अलग-अलग मत क्यों न रखते हों परंतु भ्रष्टाचार के विरुद्ध इन दोनों नेताओं के संघर्ष करने को लेकर कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही ने संघर्ष करने के रास्ते भले ही अलग-अलग क्यों न चुन लिए हों परंतु इन दोनों का मक़सद एक ही प्रतीत होता है और वह है देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने का प्रयास करना। और इनके इसी पाक मकसद के चलते पूरे देश की जनता लाखों की संख्या में टीम अन्ना द्वारा छेड़े गए इन आंदोलनों के साथ खड़ी दिखाई दी। तो क्या इन दोनों नेताओं के मतभेद के पश्चात इन दोनों के समर्थक भी दो भागों में विभाजित हो गए हैं? शायद ऐसा नहीं है। बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि भ्रष्टाचार से पीडि़त देश की जनता भ्रष्टाचार के विरुद्ध गंभीर रूप से संघर्ष करते हुए देश में जब,जहां और जिस विश्वसनीय नेता या सामाजिक कार्यकर्ता को पाएगी वह जनता वहीं उसी के साथ हो लेगी। परंतु इन सब वास्तविकताओं के बीच यह सवाल अपनी जगह पर क़ायम है कि राजनैतिक पार्टी के गठन को लेकर अन्ना हज़ारे व केजरीवाल ने अपनी अलग-अलग राह आखिर क्यों अख्तियार की? जबकि अपने आंदोलन के दौरान इसी वर्ष अगस्त माह में नई दिल्ली में जब पहली बार राजनैतिक पार्टी बनाने की घोषणी टीम अन्ना द्वारा की गई थी उस समय अन्ना हज़ारे भी इस घोषणा से सहमत नज़र आ रहे थे। परंतु इस घोषणा के मात्र 24 घंटे के भीतर ही अन्ना हज़ारे ने अपना सुर बदल दिया और उन्होंने अपनी टीम द्वारा राजनैतिक पार्टी गठन किए जाने के $फैसले से $खुद को अलग कर लिया।

जनलोकपाल विधेयक संसद में लाए जाने को लेकर टीम अन्ना द्वारा जब जन आंदोलन छेड़ा गया, जुलूस, प्रदर्शन, धरना व अनशन जैसे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के द्वारा सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया गया, उस समय सत्तारूढ़ यूपीए सरकार के अतिरिक्त अन्य राजनैतिक दलों के नेता भी टीम अन्ना से मुख़ातिब होकर अक्सर यह कहते दिखाई देते थे कि यदि टीम अन्ना को इतना ही भरोसा है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर या जनलोकपाल के विषय पर जनता उनके साथ है तो वे स्वयं चुनाव लडक़र या अपनी पार्टी का गठन कर देश की राजनैतिक व्यवस्था में स्वयं शामिल होकर अपनी इच्छा अनुरूप व्यवस्था परिवर्तन करने की प्रक्रिया में सवैधानिक रूप से क्यों नहीं शामिल होते? इस प्रकार की बातें ख़ास तौर पर उस समय की जाती थीं जबकि टीम अन्ना के सदस्य विशेषकर अरविंद केजरीवाल कभी-कभी अत्यंत मुखरित होकर सभी राजनैतिक दलों, सभी पार्टियों के भ्रष्ट, आपराधिक छवि वाले तथा सत्ता को देश को लूटकर बेच खाने का साधन समझने वाले सांसदों को आईना दिखाने की कोशिश करते थे। गत् अगस्त में जब अन्ना हज़ारे का अनशन सरकार द्वारा किसी प्रकार का नोटिस लिए बिना समाप्त किया जा रहा था उस समय देश की लगभग दो दर्जन जानी-मानी हस्तियों ने यह सोचने की कोशिश की कि चूंकि इतने बड़े आंदोलन के बावजूद तथा टीम अन्ना के कई प्रमुख सदस्यों के आमरण अनशन पर बैठने के बावजूद यहां तक कि अरविंद केजरीवाल तथा कुछ अन्य सदस्यों की तबीयत बिगड़ जाने के बाद भी इन आंदोलनकारियों की कोई $खैर-$खबर नहीं ली जा रही थी लिहाज़ा ऐसे में उपाए ही क्या बचते हैं? या तो आंदोलन को और लंबा खींच कर केजरीवाल सहित टीम अन्ना के और कई प्रमुख सदस्यों की जानों को ख़तरे में डाला जाए या उस समय आंदोलन को बिना किसी भविष्य या अगली घोषणा के शून्य में लटका छोड़ दिया जाए? परंतु ऐसा इसलिए संभव नहीं क्योंकि टीम अन्ना से काफी उम्मीद लगाए बैठी जनता स्वयं को ठगा सा महसूस कर सकती थी। ऐसे में तीसरा विकल्प यही था कि राजनैतिक पार्टी बनाए जाने की घोषणा के साथ आंदोलन को फ़िलहाल समाप्त कर दिया जाए। और टीम अन्ना के ही सदस्यों द्वारा अनशनकारियों के अनशन स्वयं तुड़वाकर देश की वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में संवैधानिक रूप से शामिल होने हेतु राजनैतिक पार्टी के गठन की घोषणा के साथ आंदोलन को राजनैतिक मोड़ दिया जाए।

इस फ़ैसले पर राजनैतिक दलों द्वारा अलग-अलग ढंग से प्रतिक्रियाएं दी गईं। किसी ने इसका स्वागत किया तथा इसे देश के प्रत्येक नागरिक के अधिकार के रूप में परिभाषित किया तो किसी दल ने यह कहकर इस फ़ैसले की आलोचना की कि – टीम अन्ना सत्ता के लिए ही आंदोलन चला रही थी। उधर टीम अन्ना के उत्साहित सदस्यों व समर्थकों द्वारा भी इस फ़ैसले का आमतौर पर स्वागत किया गया। परंतु देश के तमाम आलोचक, राजनीतिक विश्लेषक व समीक्षक तथा वरिष्ठ चिंतकों ने टीम अन्ना के इस $फैसले पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया देनी शुरु कर दी। इन आलोचकों का मत था कि क्या टीम अन्ना द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक दल का गठन करना व इसे धरातल पर खड़ा कर पाना संभव हो सकेगा? क्या टीम अन्ना वर्तमान राजनैतिक पार्टियों का मुक़ाबला करने जैसे सामथ्र्य अपने-आप में राष्ट्रीय स्तर पर पैदा कर सकेगी? राजनीति में अपनाई जाने वाली साम-दाम दंड-भेद की नीतियों पर क्या टीम अन्ना समर्थक चल सकेंगे? धनबल, बाहुबल तथा संप्रदाय,जातिवाद व क्षेत्रवाद जैसे ‘शस्त्र’ जोकि प्राय: पूरे देश में राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव के समय प्रयोग में लाए जाते हैं, क्या टीम अन्ना अपने आप को इन ‘शस्त्रों’ से सुसज्जित कर पाएगी? ज़ाहिर है टीम अन्ना का कोई भी सदस्य ऐसा नहीं प्रतीत होता जो पारंपरिक राजनीति व राजनीतिज्ञों के वर्तमान चाल-चलन,रंग-ढंग व तौर-तरीक़ों का अनुसरण कर सके। और यदि टीम अन्ना द्वारा राजनीति के वर्तमान रंग में स्वयं को रंगने का प्रयास किया भी गया फिर सवाल यह है कि आख़िर भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था व टीम अन्ना की राजनैतिक शैली में अंतर ही क्या रह जाएगा? और यदि यह प्रयास नहीं किया गया तो ज़ाहिर है टीम अन्ना के लिए इस व्यवस्था का मुक़ाबला कर पाना शायद संभव न हो सके।

उपरोक्त परिस्थितियों में यदि टीम अन्ना द्वारा अगस्त में घोषित की गई अपनी तत्कालीन नीति के अनुसार राजनैतिक पार्टी गठित की जाती और 2014 के चुनाव तक वह अपने-आप को ठीक से प्रचारित,प्रसारित भी न कर पाती और चुनावी संघर्ष में बुरी तरह पराजित होकर रह जाती फिर आख़िर टीम अन्ना के आंदोलनकारी किस मुंह से संसद से या जनता से यह बात कहते कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन में देश मेरे साथ है। ज़ाहिर है इसी बदनामी से बचने के लिए तथा दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अन्ना हज़ारे ने फौरन ही अपने क़दम पीछे खींच लिए। और किसी भी राजनैतिक दल के गठन की प्रक्रिया से स्वयं को दूर रखा। यही नहीं बल्कि अन्ना ने अपनी टीम को भंग करने की घोषणा भी कर दी। दूसरी ओर युवा, उत्साही,जोशीले तथा भारतीय राजस्व सेवा को ठुकरा कर देश की सेवा का जज़्बा लेकर टीम अन्ना का साथ देने की ग़रज़ से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में कूदने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल अपने फ़ैसलों के भविष्य की चिंता किए बिना यह बात बखूबी समझ चुके हैं कि हक़ीक़त में यदि संसद से जनहित संबंधी या भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल जैसा कोई विधेयक पारित करवाना है या देश में फैली भ्रष्ट व्यवस्था के परिवर्तन की बात करनी है तो सडक़, आंदोलन, धरना या अनशन के माध्यम से शायद अब यह संभव नहीं है। लिहाज़ा स्वयं को भी उस व्यवस्था में बहरहाल शामिल करना ही पड़ेगा। संभव है कि अरविंद केजरीवाल अपने कुछ भरोसेमंद साथियों के साथ 2014 का लोकसभा चुनाव भी लड़ें। ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंचना कि अन्ना हज़ारे व केजरीवाल के बीच मतभेद पैदा हो गए हैं यह सोचना गलत होगा।

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  1. बहुत ही विवेचना पूर्ण आलेख.आपने अपने ढंग से इस तथाकथित मतभेद को बहुत सुलझी विचार धारा के साथ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है और इसमे सफल रही हैं. लगता है कि रविन्द केजरीवाल और उनके अन्य सहयोगी २ अक्टूबर को पार्टी की घोषणा करने के लिए कटिबद्ध हैं.२ अक्टूबर अब बहुत नजदीक है,अतः प्रतीक्षा करने में कोई हर्ज नहीं.अब बात आती है ,अन्ना को उनकी पार्टी को समर्थन देने की तो उन लोगों को विश्वास है कि अगर वे सच्चाई और त्याग का मार्ग नहीं छोड़ेंगे,तो अन्ना हजारे उनका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे.अन्ना हजारे ने १८ सितम्बर को कंस्तित्युसन क्लब में कहा भी था कि े पूरे देश में घूमेंगे और ईमानदार और कर्मठ उम्मीदवारों के लिए प्रचार करेंगे.अरविन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों का मानना है कि वे लोग उम्मीदवार चुनने में इस बात का अवश्य ख्याल रखेंगे कि प्रत्येक उम्मीदवार अन्ना हजारे की कसौटी पर खरा उतरेअरविन्द केजरीवाल ने तो कहा ही है कि अन्ना तो हमारे दिल में बसते हैं,वे हमलोगों से कैसे अलग हों सकते हैं?.
    अब तो आने वाला समय ही बतायगा कि ये अपने अभियान में कितना सफल होते हैं.एक बात अवश्य है कि इनकी असफलता भारत के पूर्ण अन्धकारमय भविष्य की सूचक होगी.रही बात मतभेद के लिए श्रेय लेने की तो विभिन्न दलों के चमचे अपने स्वामियों को इसे अपनी कारगुजारी बताने में क्यों बाज आयंगे?
    बहुत लोगों का यह ख्याल है कि इन लोगों को विभिन्न दलों के ईमानदार लोगों को अपने साथ लेकर चलना चाहिए था.मुझे उन लोगों से यह पूछना है कि भ्रष्टाचार में पूर्ण रूप से लिप्त इन दलों में ईमानदार की पहचान कैसे हो और इस बात की क्या गारंटी है कि ऐसे लोग खुल कर इस नयी पार्टी के समर्थन में आयेंगे ही.

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