अन्ना आन्दोलन को असफल कहना एक सफ़ेद झूठ

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डॉ. राजेश कपूर, पारंपरिक चिकित्सक

अन्ना आन्दोलन की सबसे बड़ी विजय जनमत को जगाने की है. ९६% जनमत का समर्थन एक अभूतपूर्व सफलता है जिसे नकारने के षड्यंत्र मीडिया पूरी ताकत से कर रहा है. देश की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जनता सोई हुई है और सबसे बड़ी सफलता है इस सोये जनमत को जगाना. इसमें अन्ना शत प्रतिशत सफल रहे हैं.

जहां तक बात है लोकपाल बिल की तो अन्ना के आन्दोलन के प्रभाव में अपराधी नेता और उनकी सरकार अपनी ही कब्र खोदने वाले कानून बनाएंगे, अपने भ्रष्ट सहयोगी, साथियों, सांझेदारों के विरुद्ध कार्यवाही करेगे; इसकी आशा यदि किसी ने की तो वह बहुत भोला है और या फिर इन लोगों की फितरत और देश के हालात को ठीक से समझता नहीं. इन लोगों को सुधरना या बदलना तो है ही नहीं. रावन, दुर्योधन और कंस कभी नहीं सुधरते, बदलते.

समझने की बात है कि इस आन्दोलन के अनेक पड़ाव हैं जिनमें से कुछ पडाव पार हो चुके. अगले पडाव बुद्धिमत्ता और धैर्य के साथ पार करने हैं. सदा सबसे बड़ा काम तो जनमत को जगाने का होता है. वह ठीक से हो रहा है.

दुष्ट सत्ता का काम होता है जन मत को सुलाए रखना, भ्रमित रखना. और सुधारकों व क्रांतिकारियों का काम होता है जनमत को जागृत करना. इस उद्देश्य में अन्ना का आन्दोलन आशा से बहुत अधिक सफल रहा है.

९६% समर्थन आश्चर्यजनक और उत्साह को बढाने वाला है. जनमत के उत्साह को तोड़ने के कुटिल उद्देश्य से यह सफ़ेद झूठ कहा जा रहा है कि अन्ना आन्दोलन भटक गया, असफल हो गया.

सारा मीडिया और नेता अन्ना आन्दोलन के असफल होने की घोषणा एक स्वर से, जितनी जोर से और चिल्ला-चिल्ला कर रहे हैं, उससे उनकी घबराहट और बौखलाहट स्पष्ट उजागर हो जाती है.

क्या ये सब इस बात से घबराए हुए नहीं हैं कि सोनिया सरकार और भ्रष्ट नेताओं से अति की सीमा तक दुखी जनता अन्ना के साथ न होजाए ओर एक नया विकल्प न खडा हो जाए ? ऐसा हुआ तो इन दुष्टों का अंत तो सुनिश्चित हो जाएगा. इसी लिए ये पूरी ताकत लगा कर यह साबित करने में लगे हुए हैं कि अन्ना का आन्दोलन असफल हो गया है.

यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना और उनके साथियों ने देश की जनता के साथ धोखा किया है; क्यूंकि वे तो आमरण अनशन पर बैठे थे पर सरकार द्वारा मांगे पूरी करवाए बिना ही अनशन तोड़ दिया. अर्थात उन्हें अनशन पर रहते हुए मर जाना चाहिए था. ऐसा न करके उन्होंने सोनिया सरकार के नेताओं की आशाओं पर पानी फेर दिया.

हम सबने इस सरकार की संवेदन हीनता देखी है, नौं दिन के अनशन के बीच एक भी प्रयास सरकार की ओर से संपर्क करने का नहीं हुआ. कोई विपक्षी दल वाले भी नहीं आये. सभी अपनी राजनीति में अन्ना की सेंध लगने की आशंका के चलते दूरी बनाए रहे, उपेक्षा करते रहे. राजनैतिक दलों और बाबा रामदेव के प्रति पिछली बार का अन्ना का उपेक्षा पूर्ण व्यवहार भी इसमें एक कारण रहा जिसके कुछ लाभ और हानि दोनों हुए.

केंद्र सरकार का व्यवहार तो क्रूर अंग्रेजी सरकार से भी बुरा रहा. अनशनकारी मरें तो मरें, सरकार की बला से. इतनी ढिठाई और क्रूरता ? आखिर सत्याग्रह व अनशन का उद्देश्य तो इतना ही होता है कि सोई सरकार को जगाना, अपने पक्ष में जनमत बनाना, जनमत का जायज़ा लेना. विषय विशेष के ऊपर बहस शुरू करवानी. पर ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोकमत की परवाह ही नहीं की जाती ?

चुनाव क्या जीत गए देश की जनता को जैसे मर्जी, जितना मर्जी लूटने का अधिकार पा गए.

कोई जवाबदेही नहीं, कोई जिम्मेदारी नहीं ?

ये वही सरकार और नेता हैं जो पिछले आन्दोलन के समय अन्ना को चुनौती देते रहे कि दम है तो चुनाव लड़ो और अपनी बात संसद में आकर कहो. आज साबित करने में लगे हुए हैं कि अन्ना ने भारी भूल करदी, अपराध कर दिया है राजनैतिक  दल के गठन की घोषणा करके. क्या यह गैर कानूनी है, अनैतिक कार्य है? क्या देश की राजनीति चलाने का एकाधिकार, लाइसेंस केवल चोर व दुष्टों के पास है ?

संसद के निर्णयों के विरोध और जनमत जगाने के प्रयासों को एक अपराध सिद्ध करने, जनमत को भ्रमित करने के कुटिल प्रयास पिछली बार भी इस मीडिया और इस सरकार के कुटिल नेताओं द्वारा कम नहीं हुए थे . पर जनता इनके झांसे में नहीं आयी. उलटे लोगों का असंतोष और अधिक बढ़ता गया जिसकी अभिव्यक्ती ९६% ने अन्ना के पक्ष में अपना मत देकर कर दी है.

अब ये सोनिया सरकार के घाघ नेता ( विपक्षी दल भी ) कह रहे हैं कि राजनैतिक दल चलाना और चुनाव लड़ना कोई आसान बात नहीं है. उनके कहने का अर्थ यही है न कि चुनाव व राजनीति में चलने वाले दुष्टतापूर्ण षड्यंत्र और हथकंडे अन्ना जैसे सीधे लोगों के बस की बात नहीं. वे शायद यह भी कह रहे हैं कि राजनीति की गन्दगी में भले लोगों का क्या काम ? इसका पट्टा तो केवल इन पतित नेताओं के पास है न ?

तो क्या इस गन्दगी को साफ़ करने का काम कभी नहीं होगा, कोई नहीं करेगा, इस पर सदा दुष्टों का वर्चस्व बना रहने देना है ? जी हाँ वे तो ऐसा ही कहेंगे. इसी में उनका हित है. पर देश और जनता का हित इसमें है कि सज्जन लोग इस क्षेत्र में जाकर इसकी सफाई करें. क्या हम दुष्टों के कहने के अनुसार सोचेंगे और काम करेंगे ? या फिर सज्जनों के नेतृत्व में चलेंगे और देश को दुष्ट ताकतों से मुक्त करेंगे ?

आवश्यक नहीं की हम केवल अन्ना या बाबा रामदेव के नेतृत्व में चलें पर इतना तो निश्चित है कि अब इस देश की जनता पतित राजनेताओं पर भरोसा नहीं करने वाली और इनके विकल्प को तलाशने के लिए बेचैन और गंभीर है. निश्चित रूप से पहले की तुलना में भारत का जनमत अधिक समझदार और परिपक्व हुआ है.

अन्ना द्वारा नए दल के गठन का सबसे अधि लाभ कांग्रेस को और सबसे अधिक हानी भाजपा को होनी है. तभी तो घाघ कांग्रेसी नेता बड़ी तृप्ति के साथ कह रहे हैं कि वे अन्ना द्वारा राजनैतिक दल के गठन का स्वागत करते हैं.

कांग्रेस विरोधी मत भाजपा, अन्ना में बंट जाने के कारण कांग्रेसी प्रत्याशियों की जीत की सम्भावनाएं बढ़ जायेंगी.

भाजपा से न उगलते बन रहा है और न निगलते. आगत खतरे को वे भलीभांती समझ रहे हैं. पर आलोचना चाह कर भी कर नहीं सकते (गलत संदेश जाएगा) और प्रशंसा या समर्थन संभव नहीं. अपार जनसमर्थन के चलते यदि अन्ना एक सशक्त दल का गठन करते हैं और बाबा रामदेव के साथ तालमेल ठीक से बन जाती है तो परिस्थितियों से बाध्य भाजपा और अन्ना, रामदेव में सीटों पर समझौते की संभावनाएं हो सकती हैं. देश के लिए यह स्थिति लाभदायक सिद्ध होगी.

कुल मिलाकर सन 2014 के चुनावों में देशभक्त और देश को को लूटने वाली शक्तियों का बड़ा स्पष्ट ध्रुवीकरण होने की संभावनाएं हैं. सूडो सेक्युलरिज्म जैसे सभी पुराने और घिसे-पिटे समाज तोड़क हथियार भी भोथरे पड़ने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.

एक शुभ और उत्साहवर्धक सूचना यह है कि एक शक्तीशाली अध्यात्मिक संत के अनुसार दिसंबर तक दुष्ट शक्तियां उभर कर सामने आजएँगी. उनका वर्चस्व बढ़ता हुआ नज़र आयेगा. उनका असली चेहरा जनता के सामने आजायेगा. दिसंबर के बाद उन दुष्टों का पराभव और सज्जनों की सफलता शुरू हो जायेगी. वैसे तो गत मार्च से इस प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है. किन्तु अभी सशक्त बुरे ग्रहों का प्रभाव भी चल रहा है जो कि दिसंबर के बाद घटने लगेगा. ऐसा कहने वाले ये संत कौन हैं, इसका अनुमान आप पर छोड़ा ? इन अध्यात्मिक संत के संसार में १०० करोड़ से भी अधिक अनुयायी हैं.केवल ४-५ मास की तो बात है.

अपने प्रयास अपनी समझ के अनुसार करते रहें, विश्वास रखें कि मंजिल अब बहुत पास है.

10 COMMENTS

  1. बहुत सुन्दर विश्लेषण डॉ. राजेश जी.
    कांग्रेस सारे सारे दाव अजमाएगी.धन बल से बहुत कुछ होता रहा है.

    भ्रष्टाचारी व्यावसायिक मिडिया भी जयचंदी कार्यवाही कर रहा है. पहले भी फूट डालने के लिए स्वामी छद्मवेश को भेज चुकी है. हर प्रकार से विरोधी मत को विभाजित करने का एडी चोटी का प्रयास होगा.

    आपका विश्लेषण मुझे दूरसे भी सही सही प्रतीत होता है. कांग्रेस के पास भाड़े के ख़रीदे हुए कूट निति कार होंगे ही, जिनके परामर्श पर उनकी पैंतरे बाजी चली ही होगी. सारा भ्रष्टाचार का धन कुछ समय तो नाटक लंबा खींचेगा.पर, अन्ना भी भोले प्रतीत होते हैं.

    चुनाव दो बुराइयों के बिच ही करना पडेगा.

    • आदरणीय प्रो. मधुसुदन जी आप का कहना सही है. समुद्र मंथन की तरह एक प्रक्रिया निरंतर चल रही है. यथा स्थिती बिलकुल नहीं है. भारत की जनता एक विचार मंथन की प्रक्रिया में से गुज़र रही है. विकल्प और समाधान निश्चित रूप होते हैं और आज भी होंगे. हम विश्व के इतिहास पर दृष्टी डालें. हर विकट स्थिति का समाधान होता आया है, आज भी होगा. जनमत जितनी जल्दी जागृत होगा, समाधान भी उतनी जल्द होगा. हम सब जाने या अनजाने में उसी सोये जनमत को जगाने व परिष्कृत करने का काम कर रहे हैं. इसमें ”प्रवक्ता” की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण सिद्ध हो रही है, यह हम अनेकों बार अनुभव कर चुके हैं.

    • इकबाल साहेब धन्यवाद. वास्तव में हमें आदत डाली गयी है कि हम आपने दिमाग से न सोचते हुए वही सोचें जो मीडिया कहे या दिखाए. अन्ना के आन्दोलन को असफल कहना या साबित करना इस देश के दुश्मनों की सुनियोजित चाल है. वे इस आन्दोलन को मिले जन समर्थन से बुरी तरह भयभीत हैं. इसी बौखलाहट में ज़रूरत से काफी अधिक शोर मचा रहे हैं कि आन्दोलन असफल हो गया, भटक गया, राजनैतिक दल बनाने की घोषणा करने का अपराध कर दिया. गांधी जी का आन्दोलन कितने पडाव पार करके आगे बढ़ा था? उसी प्रकार जनमत का विरोध एक आकार ले रहा है जिसकी अंतिम परिणति दुष्टों के दालन से होनी ही है. कोई रावण या कंस सत्ता पर सदा बना रहा नहीं, रह सकता नहीं. हाँ ! हर रावन को, हर राक्षस को यही भ्रम होता है कि उसकी सत्ता सदा बनी रहेगी. क्या ये कमाल की बात नहीं कि जिस आन्दोलन को मीडिया असफल और गलत कहता रहा, उसे इतना भारी जनमत मिला ? स्पष्ट है कि मीडिया और ये नेता अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. अभाव है तो बस एक सही विकल्प और एक सही नेतृत्व का. आशा करनी चाहिए कि इस आलोडन में से वह अमृत भी जल्द ही सामने आयेगा. पर इतना तो है ही ही विकल्प बनने या देने की योग्यता अन्ना जी या बाबा जी में नहीं है. ये तो इस प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण अंग मात्र हैं. प्रकृति अपना काम कर रही है, विश्वास रखें. परिणाम भी सामने आने वाले हैं.

  2. उम्मीद से भरपूर लेख के लिए आपको धन्यवाद राजेश जी, लेकिन भारतीय वोटरों मानसिकता पर भरोसा नहीं है, पैसे और शराब पे बहुत सारे वोट बिक जाते हैं, उत्तर से लेकर दक्षिण तक. बहुत की देश के प्रति द्रोह से भरी हुई मानसिकता. ऐसा मैं इसलिए बोल रहा हूँ की एक बोतल शराब के आगे देश हित गौण हो जाता है.

    • नहीं शिवेंद्र मोहन जी,अगर जनता के सामने सही विकल्प हो तो बोतल का मोह हटते देर नहीं लगेगी.ऐसा पहले भी हो चूका है.यह दूसरी बात है कि पहले वाले विकल्प भी मृग मरीचिका और जनता का मोह भंग करने वाले सिद्ध हुए.खास करके १९७७ का जबकि गांधी के समाधि पर शपथ लेकर उन्होंने ऐसे कुकर्म किये,जो आधुनिक भारत के इतिहास के काले पृष्ठ हैं.

      • मूल्यवान और एकदम सही निषकर्ष है आपका. मैं आपसे पूर्ण सहमत हूँ. वास्तव में सबसे बड़ी समस्या ये भ्रष्ट नेता और सरकार नहीं, समस्या है एक सही विकल्प का अभाव. यह भी है कि विकल्प न बनने देने के लिए विपक्ष और ये सरकार एक साथ खड़े हैं. पर प्रकृति तो अपना कम कर रही हैं. विकल्प आना है तो वह तो आकार ही रहेगा.

      • सिंह साहब जी, तब आपके पास जे पी नारायण थे, पूरब से पश्चिम तक उनकी धूम थी. उनकी आंधी में इंदिरा जी उड़ गई थीं, आज आपके पास उनके कद का कोई विकल्प नहीं है. आज का सिनारियो बहुत ही चिंताजनक है, अब भ्रष्टाचार नेताओं के साथ साथ लोगों में भी आ चूका है, वो खुद ही नहीं चाहते हैं कि व्यवस्था में बदलाव आए. खैर आशावादिता के लिए आपका शुक्रिया, भगवान करे आपकी ही बात ही सिद्ध हो. इति शुभम

  3. अनिल गुप्ता जी आप सही कह रहे हैं. अन्ना पर संदेह नहीं पर उनके कुछ साथियों की नीयत संदेहों से परे नहीं. जहा तक गांधी जी से इस आन्दोलन की तुलना है तो कहा जा सकता है कि : १) इस आन्दोलन को गांधी जी से कहीं अधिक समर्थन मिला है. इसका कारण मीडिया है. गांधी जी के समय में प्रचारतंत्र इतना सबल नहीं था. २) वैचारिक दृष्टी से गांधी जी एक मज़बूत धरातल पर खड़े थे. कृषी प्रधान भारत के लिए ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की एक स्पष्ट रूप-रेखा उनके पास थी. वैचारिक दृष्टी से इतनी दूर दृष्टी वाले अन्ना नहीं हैं. ३) पर अन्ना के पास सची-पक्की नीयत और ग्रामीण विकास का एक लंबा अनुभव और रालेगन सिन्दी के रूप में मॉडल है. # सबसे विशेष बात यह है की देश की जनता का वर्तमान शासन व दलों पर विश्वास पुरी तरह समाप्त हो चुका है. विकल्प के लिए भारी व्याकुलता, बेचैनी है. ऐसे में कोई कम अछा विकल्प भी जनता स्वीकार करने को तैयार है. ठीक भी है कि बड़ी बुराई से छुटकारा पाने के लिए छोटी बुराई स्वीकार की जाय. विकल्प बहुत अछा न मिले तो न सही, वर्तमान से अछा विकल्प तो मिले. जनता का विश्वास जगे, बड़ी सोच बने, एक बार परिवर्तन की लहर चल पड़े, फिर ज़रूरत पडी तो पुनः परिवर्तन करने में क्या बाधा है. यदि बिगाड़ साठ साल में हुआ है तो सुधार में क्रमशः ५,१०, १५ साल लगें तो लगें. बस ज़रूरत यह है कि परिवर्तन शुरू हो और यह ‘यथा स्थिती’ की विडंबना समाप्त हो.

  4. भ्रष्टाचार से त्रस्त भारत की जनता के लिए अन्ना का आन्दोलन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह आया और उनके दिलों की भ्रष्टाचार विरोधी आग को और बढाकर एक तरफ हो गया. इस आन्दोलन ने देश में जबरदस्त जनजागरण का काम किया है. और इस अर्थ में उनको गांधीजी के सामान जनजागरणकरता के रूप में माना जा सकता है. हालाँकि यही बात अन्नाजी की टीम के मेम्बरों पर लागू नहीं होती है.और अन्नाजी का जनसमर्थन कम करने में उनके समर्थकोंटीम मेम्बरों द्वारा भी कोई कोर कसार नहीं छोड़ी गयी. बेतुके बयां, अनावश्यक हठधर्मिता वांछनीय नहीं थी लेकिन अन्नाजी के प्रति लोगों का स्नेह पूर्ववत ही है.

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