भ्रष्टों को अन्ना के अनशन से होना चाहिए शर्मसार

0
191

लिमटी खरे

अमेरिकी मूल के गोरे लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब में महात्मा गांधी पर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं। कहा गया है कि बापू 1908 में चार बच्चों को जन्म देने के बाद कस्तूरबा गांधी से प्रथक होकर कालेनबाश के साथ रहने चले गए थे। इस किताब में अनेक पत्रों का हवाला देकर बापू के बारे में अश्लील और अमर्यादित टिप्पणियां की गई हैं कि वे समलेंगिक या गे थे। इस किताब में कहा गया है कि बापू समलैंगिक थे। आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे करने वाले बापू का सरेआम करने के बावजूद भी एक सप्ताह तक कांग्रेस ने इसकी सुध नहीं ली। बापू को समलेंगिक बताना वाकई कांग्रेस को छोड़कर समूचे भारत के लिए शर्म की बात है। अब कांग्रेसनीत केंद्र सरकार यह कह रही है कि इस किताब पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है।

अपनी शहादत के 63 साल बाद भी आज गांधी समूचे विश्व में प्रासंगिक बने हुए हैं। समूची दुनिया उस महात्मा की कायल है जिसने आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे कर दिए थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि उनका सूरज नहीं डूबता है। इसका अर्थ था कि उनका साम्राज्य इतना फैला हुआ था कि एक देश में सूरज डूबता था तो दूसरे देश में उग जाता था।

गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल को जबर्दस्त जनसमर्थन मिलने पर किसी को आश्चर्य नहीं है। धर्मगुरूओं का यह कहना ही अपने आप में पर्याप्त है कि कांग्रेस को शर्म आनी चाहिए कि आजाद और लोकतांत्रिक देश में उसके नेतृत्व वाली सरकार के रहते हुए एक बुजुर्ग गांधीवादी को भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अमरण अनशन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

बापू के आदर्शों को आज भी समूची दुनिया अंगीकार किए हुए है, विशेषकर उनके अंहिसा आंदोलन को। गांधीवादी तरीके से अन्ना हजारे ने भी सरकार को कटघरे में खड़ा कर ही दिया है। कुछ दिनों पहले अमेरिका के डाक्टूमेंट्री फिल्म निर्माता जेम्स ओटिस ने बापू की कुछ अनमोल चीजों की नीलामी करने की घोषणा की थी। इस घोषणा के बाद भारत सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आई और आनन फानन उसने इस चीजों को वापस लाने की पहल आरंभ की।

कितने आश्चर्य की बात है कि ओटिस ने बापू के चश्मे, जेब वाली घड़ी, चमड़े की चप्पलें, कटोरी, प्लेट आदि को भारत को सौंपने के एवज में एक मांग रखी थी। ओटिस का कहना था कि अगर भारत सरकार अपने बजट का पांच प्रतिशत हिस्सा गरीबी उन्नमूलन पर खर्च करे तो वे इन सामग्रीयों को भारत को लौटा सकते हैं।

ओटिस की इस मांग को दो नज़रियांे से देखा जा सकता है। अव्वल तो यह कि भारत सरकार क्या वाकई देश के गरीबों के प्रति फिकरमंद नहीं है? और क्या वह गरीबी उन्नमूलन की दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है। अगर एसा है तो भारत सरकार को चाहिए कि वह हर साल अपने बजट के उस हिस्से को सार्वजनिक कर ओटिस को बताए कि उनकी मांग के पहले ही भारत सरकार इस दिशा में कार्यरत है। वस्तुतः सरकार की ओर से इस तरह का जवाब न आना साफ दर्शाता है कि ओटिस की मांग में दम था।

वहीं दूसरी ओर ओटिस को इस तरह की मांग करने के पहले इस बात का जवाब अवश्य ही देना चाहिए था कि उनके द्वारा एकत्र की गईं महात्मा गांधी की इन सारी वस्तुओं को किसी उचित संग्रहालय में महफूज रखने के स्थान पर इनकी नीलामी करने की उन्हंे क्या ज़रूरत आन पड़ी।

ज्ञातव्य होगा कि 1996 में एक ब्रितानी फर्म द्वारा महात्मा गांधी की हस्तलिखित पुस्तकों की नीलामी पर मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाई गई थी। यह पहल भी 1929 में गठित किए गए नवजीवन ट्रस्ट द्वारा ही की गई थी। सवाल तो यह उठता है कि महात्मा गांधी द्वारा जब अपनी वसीयत में साफ तौर पर लिखा था कि उनकी हर चीज, प्रकाशित या अप्रकाशित आलेख रचनाएं उनके बाद नवजीवन ट्रस्ट की संपत्ति होंगे, के बाद उनसे जुड़ी वस्तुएं सात समुंदर पार कर अमेरिका और इंग्लेंड कैसे पहुंच गईं?

जिस चश्मे से उन्होंने आजाद भारत की कल्पना को साकार होते देखा, जिस चप्पल से उन्होंने दांडी जैसा मार्च किया। जिस प्लेट और कटोरी में उन्होंने दो वक्त भोजन पाया उनकी नीलामी होना निश्चित रूप से बापू के विचारों और उनकी भावनाओं का सरासर अपमान था।

समूचे विश्व के लोगों के दिलों पर राज करने वाले अघोषित राजा जिन्हें हिन्दुस्तान के लोग राष्ट्र का पिता मानते हैं, उनकी विरासत को संजोकर रखना भारत सरकार की जिम्मेवारी बनती है। इसके साथ ही साथ महात्मा गांधी के दिखाए पथ और उनके आचार विचार को अंगीकार करना हर भारतीय का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए।

महात्मा गांधी के नाम से प्रचलित गांधी टोपी को ही अगर लिया जाए तो अब उंगलियों में गिनने योग्य राजनेता भी नहीं बचे होंगे जो इस टोपी का नियमित प्रयोग करते होंगे। अपनी हेयर स्टाईल के माध्यम से आकर्षक दिखने की चाहत मंे राजनेताआंे ने भी इस टोपी को त्याग दिया है। यहां तक कि कांग्रेस की नजर में भविष्य के युवराज राहुल गांधी भी अवसर विशेष पर ही फोटो सेशन के लिए ही गांधी टोपी धारण किया करते हैं।

आधी सदी से अधिक देश पर राज करने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अनुषांगिक संगठन सेवादल की पारंपरिक वेशभूषा में गांधी टोपी का समावेश किया गया है। विडम्बना ही कही जाएगी कि सेवादल में सलामी लेने के दौरान ही कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस टोपी का प्रयोग किया जाता है। सलामी के बाद यह टोपी कहां चली जाती है इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं होता है।

इसके साथ ही गांधी वादी आज भी खादी का इस्तेमाल करते हैं, मगर असली गांधीवादी। आज हमारे देश के 99 फीसदी राजनेताओं द्वारा खादी का पूरी तरह परित्याग कर दिया गया है, जिसके चलते हाथकरघा उद्योग की कमर टूट चुकी है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि गांधी जी की विरासत को तो संजोकर रखा ही जाए, साथ ही उनके विचारों को संजोना बहुत जरूरी है। बापू की चीजें तो बेशक वापस आ जाएंगी, किन्तु उनके बताए मार्ग का क्या होगा?

दुनिया के चौधरी अमेरिका का रहवासी लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड द्वारा बापू को सरेआम समलेंगिक की श्रेणी में खड़ा किया जा रहा है और उनके नाम पर सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस द्वारा अपनी जुबान बंद रखी हुई है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस की कमान इटली मूल की सोनिया मानियो उर्फ सोनिया गांधी के हाथों में हैं जिन्हें गांधी के नाम का प्रयोग तो आता है पर गांधी के बलिदान और उनकी शहादत से कोई लेना देना नहीं है।

देश के वर्तमान हालातों को देखकर हम यह कह सकते हैं कि देश के राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के चलते राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आर्दशों को भी नीलाम कर दिया है। आज के परिवेश में राजनीति में बापू के सिद्धांत और आदर्शों का टोटा साफ तौर पर परिलक्षित हो रहा है। ओटिस की नीलामी करने की घोषणा हिन्दुस्तान के राजनेताओं के लिए एक कटाक्ष ही कही जा सकती है, कि भारत गांधी जी के सिद्धांतों पर चलना सीखे।

 

Previous articleअनगिनत टैक्स से जूझता आम भारतीय नागरिक
Next articleअन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू
लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here