अन्ना का अनशन और सरकार की कुटिलता

अन्ना के अनशन का आज दसवां दिन है पर सरकार अब तानाशाही रवैया अपनाती हुई दिख रही है , लाखों करोड़ो लोग सड़कों पर है, हर गली मोहल्ले में प्रदर्शन हो रहे हैं पर हमारे नेतागण इतने बड़े आन्दोलन में आन्दोलनकारियों की जाति और उनका धर्म तलाशने में जुटे है, कहीं ये बताया जा रहा है की यह दलितों का आन्दोलन नहीं है, तो कहीं बताया जा रहा है की इसमें मुस्लिम शामिल नहीं है। पहले तो सरकार इस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का आन्दोलन बता कर लोगों को बाँटना चाह रही थी पर जब उसमें असफल रही तो इमाम बुखारी का सहारा लेकर आन्दोलनकारियों को बांटने की कोशिश कर रही है, नहीं तो बुखारी को इस समय यह कहने की क्या आवश्यकता थी की “वन्दे मातरम” और “भारत माता की जय” इस्लाम विरोधी हैं, आखिर अन्ना जी के आन्दोलन की यह कोई बाध्यता तो है नहीं कि जो इसमें शामिल होगा उसको ये नारे लगाने ही पड़ेगें, ये तो आन्दोलनकारियों कि स्वेच्छा पर है कि वो कौन से नारे लगाएगा, फिर भी शायद पहली बार मुसलमानो ने इन कुटिल नेतावों और इस्लाम के पहरेदारों को कोई अहमियत नहीं दी और आन्दोलन में उसी तरह शामिल हुए जैसे अन्य धर्मं के लोग जो शायद भारतीय समाज और इसके भविष्य के लिए एक सुखद अहसास है। अब रही बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थन की तो ये संगठन तो राष्ट्रहित के अलावा और कोई बात सोचता ही नहीं और उसका मूल उद्देश्य ही इसी तरह मुसलमानों को हिन्दुवों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर राष्ट्रनिर्माण के लिए खड़ा करना है, और अगर ये मान भी लिया जाय की ये आन्दोलन संघ का है तो क्या संघ को राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर बोलने का अधिकार नहीं है? क्या हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेतागण संघ से यही उम्मीद करते हैं की उसे सिर्फ मंदिर के समर्थन में और मुसलमानों के खिलाफ ही बोलना चाहिए? जिससे उनको संघ का भय दिखाकर मुस्लिम वोटबैंक तैयार करने में मदद मिल सके? असल बात यही है की ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ और नेता ही हिन्दुवों और मुसलमानों में दूरियां बढ़ा रहे हैं उन्हें एक साथ एक मंच पर आने ही नहीं देते क्योंकि अगर ये दोनों एक साथ आ गए तो इनको अपनी राजनीति की दुकान समेटनी पड़ेगी। तभी तो संघ अगर पाकिस्तान के खिलाफ या अफजल गुरु और कसाब जैसे देश के दुश्मनों के खिलाफ भी कुछ बोलता है तो उसे इस तरह प्रदर्शित किया जाता है जैसे वो सारे मुसलमानों के विरोध में बोल रहा हो, पर अन्ना जी के आन्दोलन से ये बात अब सामने  आ गयी है हमारे देश का मुस्लिम वर्ग इतना नादान नहीं है, की वो इन कुटिल नेतावों पर आँख बंद करके भरोसा करे। जो सरकार भ्रष्टाचार जैसे जनहित से जुड़े हुए मुद्दे पर इतनी निष्ठुर बनी हुई है की एक 74 साल के वृद्ध व्यक्ति के 11-12 दिन के उपवास के बाद भी अभी तक किसी फैसले पर नहीं पहुँच सकी और अहिंसक गाँधीवादी आन्दोलन पर ध्यान नहीं दे रही है जिस  गाँधी की नीतियों के आधार पर सरकार चलाने का दावा करती है और उनपर अपना सर्वोच्च अधिकार समझती है,  वो आम आदमी या आम मुसलमानों का कैसे भला करेगी ये समझ से परे है।
अगर सरकार शांतिपूर्ण और अहिंसक आन्दोलन की इस तरह उपेक्षा कर रही है तो आखिर वो किस मुंह से कश्मीरी चरमपंथियों, नक्सलियों और पूर्वोत्तर के अलगाववादियों को हथियार छोड़ने और वार्ता की मेज पर आने को कह रही है, इस तरह के व्यवहार से तो उनमे भी यही सन्देश जा रहा है की उनका हिंसक रास्ता ही सही है, और भारत सरकार से वार्ता करने से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला, जो ना तो भारत के लिए शुभसंकेत है ना भारत सरकार और लोकतंत्र के लिए ही, अतः हम सब को सरकार से  अनुरोध करना चाहिए की वो अब देर ना करके तुरंत “जन लोकपाल बिल” पारित करे जिससे दुनिया में एक अच्छा सन्देश जाये की भारत एक परिपक्व लोकतंत्र है और यहाँ पर अहिंसा के बल पर ही अपनी मांग रखी और मनवाई जा सकती है, इस प्रकार वो हिंसक आन्दोलन चलाने वालों को एक सन्देश भी दे सकती है।

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