अन्ना का आन्दोलन एक आकार लेता जा रहा है

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वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों से विभिन्न सूचना माध्यमों और राजनीतिक व गैरराजनीतिक सम्वादों में अन्ना हजारे का आन्दोलन छाया रहा है। हमारा समाज अवतारवाद में विश्वास करने वाले लोगों का समाज है जो अपनी समस्याओं के हल किसी अतिमानवीय किस्म की शक्ति में देखते हैं और किसी विशिष्ट जन के अवतरण की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस प्रतीक्षा में हम कई बार भ्रम के शिकार भी हो जाते हैं और हर आहट को उद्धारक के आगमन से जोड़ लेते हैं, जिससे कई बार धोखे भी हो जाते हैं। पूरे देश में सत्तारूढ से लेकर विपक्षी दलों तक सब इस बात से सहमत हैं कि भ्रष्टाचार असहनीय स्थिति तक बढ और फैल गया है और इसने सभी हिस्सों को दुष्प्रभावित करना शुरू कर दिया है। इस विश्वास को पुष्ट करने के रूप में अभी हाल ही मैं इतने बड़े बड़े भ्रष्टाचार सामने आये हैं कि प्रमुख पदों पर बैठे लोगों के बारे में कहे गये किसी भी झूठ को भी अधिकांश लोग आसानी से सच मानने लगे हैं। एक हजार करोड़ से बड़े कुछ भ्रष्टाचार इस तरह से हैं-

स्विस बैंक में मौजूद काला धन 210000 करोड़

टूजी घोटाला 176000 करोड़

स्टाम्प घोटाला 20000 करोड़

हसन अली टैक्स व हवाला घोटाला 39120 करोड़

स्कार्पियन पनडुब्बी घोटाला 18978 करोड़

टीक प्लांटेशन घोताला 8000 करोड़

सुखराम टेलीकाम घोटाला 1500 करोड़

प्रीफेंशियल एलोटमेंट घोटाला 5000 करोड़

सत्यम घोटाला 8000 करोड़

उड़ीसा खदान घोटाला 7000 करोड़

झारखण्ड खदान घोटाला 4000 करोड़

उर्वरक आयात घोटाला 1300 करोड़

हर्षद मेहता [शेयर घोटाला] 5000 करोड़

काबलर घोटाला 1000 करोड़

इसी व्याधि का विरोध करने के लिए जब आवाज उठी और जिसका नेतृत्व एक ऐसे सहज सरल सादगी पसन्द, भूतपूर्व सैनिक व्यक्ति के हाथ में दे दिया गया, जिसके सामाजिक सेवाओं का निष्कलंक इतिहास जुड़ा है व इसके लिए उसने विवाह तक नहीं किया, तो लोगों ने उसे अवतार जैसा मान लिया। वे बिना किसी पूछ परख के उसमें वांछित बदलाव का हल देखने लगे।

अन्ना हजारे का आन्दोलन भावुकता से काम लेने वाले आम लोगों को बहुत भाया किन्तु दूरदर्शी बुद्धिजीवियों ने उसे सन्देह मिश्रित श्रद्धा की दृष्टि से ही देखा। इसका कारण यह था कि यह आन्दोलन केवल बीमारी के लक्षण दूर करने वाला तो नजर आता था पर बीमारी दूर करने वाला नहीं। अर्थात भ्रष्टाचार को दण्डित करने तक सीमित नजर आता था पर भ्रष्टाचार के लिए अनुकूलता पैदा करने वाली व्यवस्था, आर्थिक नीतियों, कमजोर न्यायिक प्रणाली, दोषपूर्ण चुनावी व्यवस्था व सामाजिक बुराइयों के बारे में मौन था। वे राजनीतिक दलों से दूरी बना कर चल रहे थे जो सामाजिक बदलाव की मुख्य संस्था हैं तथा कानून बनाने के लिए सक्षम संसद में बैठते हैं। किंतु फिर भी वे भ्रष्टाचार दूर करने के लिए इसी कानून और संविधान में ही आस्था प्रकट कर रहे थे। उनके द्वारा बनाये गये ड्राफ्ट पर संसद में बैठने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने सहमति नहीं दी थी पर फिर भी वे अपने लोकपाल बिल के ड्राफ्ट के अनुसार ही कानून बनाने की जिद ठाने आन्दोलन कर रहे थे एवं जिसके लिए आमरण अनशन का सहारा ले रहे थे।

प्रत्येक लोकप्रिय व्यक्ति, संस्था या घटना से अपने को जोड़ कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए उत्सुक रहने वाला संघ परिवार उनके आन्दोलन को मिले समर्थन का लाभ लेने हेतु आगे बढ कर उनका साथ दे रहा था, यही कारण था कि देश की दूसरी संस्थाएं अन्ना के आन्दोलन को भी शंका की दृष्टि से देखने लगी थीं। यह अच्छी बात है कि अन्ना के आन्दोलन से जुड़े नेतृत्वकारी साथियों में एक लोकतांत्रिक भावना जिन्दा है इसलिए उन्होंने बुद्धिजीवियों और आमजन से मिले सुझावों को ध्यान पूर्वक सुना और उस पर अमल किया। सबसे पहले तो उन्होंने अपने आन्दोलन का आर एस एस से सम्बन्ध होने का जोरदार और मुखर खण्डन करते हुए कहा कि जो हमारे आन्दोलन को आर एस एस से जोड़ते हैं उन्हें पागल खाने भेजना चाहिए। यह वक्तव्य बताता है के संघ परिवार के बारे में उनके विचार देश के व्यापक जनमानस की भावनाओं से अलग नहीं हैं। इससे पहले जेल में रहते हुए उन्होंने मिलने के लिए आये बाबा रामदेव से मिलने से इंकार करके स्पष्ट संकेत दिया था कि संघ के साथ रहने वालों से दूरी बना के रहना चाहते हैं। अन्ना हजारे की टीम द्वारा गत रविवार को यह भी कहा गया कि यह लड़ाई केवल लोकपाल पर ही खत्म नहीं होगी बल्कि चुनाव व्यवस्था में सुधार तक जायेगी। उन्होंने अपने समर्थन में उतरे जन समुदाय से कहा कि वे अपने सांसद के घरों के बाहर धरना दें और उन्हें जनलोकपाल बिल के पक्ष में समर्थन देने के लिए कहें। भविष्य़ में इस आन्दोलन को किसानों आदिवासियों की भूमि अधिग्रहण से जोड़ने की बात कह कर कृषकों और ग्रामीण क्षेत्रों तक आन्दोलन के विस्तार की भूमिका तैयार की। इसका परिणाम यह हुआ कि उज्जैन में चल रही संघ के कोर ग्रुप के बैठक को फैसला लेना पड़ा कि जनता के रुख को देखते हुए भाजपा अन्ना हजारे के आन्दोलन को समर्थन तो देगी पर उसमें शामिल नहीं होगी। दूसरी ओर अन्ना के आन्दोलन के समानांतर उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में एक ग्रुप का गठन किया हुआ है जिसका नाम अन्ना के आन्दोलन इंडिया अगैंस्ट करप्शन से मिलता जुलता यूथ अगेंस्ट करप्शन रखा गया है। यह ग्रुप अन्ना के आन्दोलन को समर्थन देगा। सदैव दुहरेपन में जीने वाले संघ परिवार का यह एक और वैसा ही कदम है जिसके अनुसार वे एक ओर तो साथ देते नजर आते हैं और दूसरी ओर अलग भी हैं। अन्ना टीम और सरकार के बीच कुछ समझौते के आसार भी बन रहे हैं जिसके अनुसार वे न्याय व्यवस्था को लोकपाल के नियंत्रण में लाने की मांग छोड़ सकते हैं, और सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के अंतर्गत लाने की बात पर स्वीकृत हो सकती है, जो विपक्ष भी चाहता है। यह एक शुभ लक्षण है। अभी तक अन्ना का आन्दोलन एक अमूर्तन में चल रहा था जो अब एक आकार लेता जा रहा है जिसके आधार पर उसके गुण दोषों का मूल्यांकन सम्भव हो सकता है। इस पारदर्शिता के युग में अन्ना के आन्दोलन को मिले आर्थिक सहयोग की सूची सामने आयी है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि देश का प्रत्येक आन्दोलन और गैर सरकारी संगठनों समेत सभी जन संगठन अपने धन प्राप्ति के श्रोतों की जानकारी दें। आर एस एस को भी स्पष्ट करना चाहिए कि जब वह अपने आप को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है तो सहयोग राशि को गुरु दक्षिणा का नाम देकर गुप्त तरीके से क्यों लेता है?

4 COMMENTS

  1. @ श्री अनिल गुप्ता जी, सबसे पहले तो लेख की पसन्दगी के लिए धन्यवाद। दूसरा धन्यवाद इसलिए भी कि आप संघ के प्रशंसक होते हुए भी एक शिष्ट भाषा का प्रयोग कर संवाद कर रहे हैं अन्यथा वेब साइटों पर लेख लिखने के बाद संघ के समर्थकों/ प्रशंसकों, और सदस्यों के जिस गाली गलौज भरी भाषा में तर्कविहीन पत्र मिलते हैं, वे संघ की संस्कृति के उत्पादों का परिचय देते रहे हैं[आप विस्फोट डाट काम पर मेरे लेखों पर प्राप्त टिप्पणियां देख सकते हैं]। संघ से जुड़े लोगों में लोकतांत्रिक भावना नहीं होती, वे असहमति तो दूर किसी को बात तक नहीं करने देना चाहते। यही फासिज्म का लक्षण होता है। आपने संवाद में रुचि ली इसके लिए में आपका आभारी हूं। आभारी में प्रवक्ता डाट काम का भी हूं जो पत्र के साथ आईपी एड्रेस तक देता है इससे छद्म नाम से गाली बकने वाले अपनी पूंछ दबा लेते हैं। आपके पत्र के सन्दर्भ में मेरा विनम्र निवेदन इस प्रकार है- 1- मेरे ऊपर जनवादी होने का कोई ठप्पा नहीं लगा अपितु यह हिन्दी उर्दू के लेखकों का एक संगठन है जिसकी सदस्यता मेंने पूरी तरह से सोच समझ कर ली है, और यदि कोई इसके गलत होने और दूसरा बेहतर विकल्प होने को समझा दे तो मैं कभी भी उसे छोड़ सकता हूं, कृप्या आप विचार करें कि ठप्पा लगा होने की आपकी भाषा क्या प्रकट कर रही है। 2-जनवादी विचारधारा से कौन कब किसका दामाद या समधी या साला स्खलित हो गया इससे उसका मूल्यांकन करना ठीक नहीं है। आज भी दुनिया भर में सबसे अधिक लोग इसी विचारधारा में आस्था रखने वाले हैं और इससे बेहतर वाद अभी सामने आना शेष है। सूची गिनाते समय पता नहीं आपका ध्यान इस तरफ क्यों नहीं गया। दुनिया में किसी एक विषय पर अगर सर्वाधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं तो वह मार्क्सवाद ही है। अगर कोई ड्राइवर ट्रेन का एक्सीडेंट कर दे तो उससे रेलवे प्रणाली को खत्म नहीं किया जा सकता। जहाँ सरकारें फेल हुयी हैं, वहाँ विचारधारा फेल नहीं हो जाती। फिर मार्क्सवाद तो एक वैज्ञानिक विचारधारा है दो को अगर सही तरीके से लिख कर दो से जोड़ा जाएगा तो चार ही होंगे, पर यदि दो को तीन जैसा लिख दोगे तो पाँच भी हो सकते हैं।
    3- एक सदियों पुरानी सामंती व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने में समय लगता है और इतिहास भूलों का पिटारा होता है। रूस या दूसरे देशों ने क्या भूलें की हैं इससे दुनिया के मनुष्यों को जीवन जीने के समान अवसर मिलने की भावना और उसे पाने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का महत्व कहाँ कम होता है, जनवाद उसी का नाम है। वैसे तो कम्युनिष्ट पार्टियां भी अनेक हैं जिनकी रणनीतियां भी भिन्न भिन्न हैं। उनमें से कई की गलत रणनीतियों की बजह से कोई दक्षिणपंथी विचारधारा सही नहीं मानी जा सकती। कृप्या नक्सलवाद या माओवाद को वाद की तरह याद कीजिए न कि एक गाली की तरह । उनमें भी खूब पढे लिखे लोग ही नेतृत्व कर रहे हैं। आपने संघ के जो दो लाख अस्सी हजार प्रकल्प बताये हैं यह संख्या संघ के कुल सदस्यों को देखते हुए मुझे अविश्वसनीय लग रही है, मैं पुष्टि के बाद ही कुछ कह पाउंगा, पर मुझे इतना पता है कि सर्वाधिक एनजीओ संघ परिवार के पास ही हैं और उनके अनुषंगी संगठनों के पास भरपूर विदेशी पैसा आता है। इससे देशवासियों का कितना भला हुआ यह देश में गरीबों की संख्या से प्रकट होता है।
    4- आपने जिस तरह राष्ट्रवाद का महत्व सिद्ध किया है वह तर्क बाद में प्रदेशवाद, क्षेत्रवाद, से चलकर मुहल्लावाद, जातिवाद, परिवारवाद तक के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। संकट के समय कोई भी अपने घर के अन्दर घुस कर दरवाजे बन्द कर लेगा किंतु विचार के स्तर पर विश्व बन्धुत्व की ही बात करनी होगी। आपद धर्म को मूल्य में नहीं गिना जा सकता। 5- लक्षणों को मिटा देने की जगह रोग की जड़ को ही मिटा देना मुझे अधिक उचित लगता है। लक्षण दूर कर देने पर रोग फिर फिर उभरेगा। वैसे त्वरित कार्यवाही में लक्षण दूर करने से भी कोई गुरेज नहीं किया जा सकता। 6- क्षमा करें उज्जैन की बैठक के बारे में आपकी जानकारी गलत हो सकती है। संघ के लोगों ने भाजपा के लोगों को इस बात पर लताड़ लगायी कि जो आन्दोलन अन्ना हजारे ने चलाया वह आप लोग क्यों नहीं चला सके। जबकि सच यह है कि वे चला ही नहीं सकते थे क्योंकि भाजपा सरकारों के नब्बे प्रतिशत से ज्यादा नेता अवसर मिलने पर कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा भ्रष्ट होते हैं। मध्य प्रदेश में पिछली कांग्रेस सरकार के ऊपर चालीस हजार करोड़ का भ्रष्टाचार का चुनावी आरोप लगाने वाले नेताओं ने सरकार में आने के बाद एक पैसे का भी भ्रष्टाचार सिद्ध नहीं किया। भाजपा नेताओं की जीवन शैली में और उसमें संघ से आये पदाधिकारियों की जीवन शैली में सत्ता के बाद जो बदलाव आये हैं, जमीनों और सम्पत्तियों की लूट की गयी है तो वे कैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन कर सकते थे। स्वयं संघ और उसके अनुषंगी संगठनों के नाम पर कितनी जमीनें बांटी गयी हैं उसकी पूरी सूची नेट पर उपलब्ध है। इसके विपरीत बामपंथियों की राजनीतिक शुचिता और सादगी भरी जीवन शैली व बेदाग सरकारों की तुलना करके देखिए। मौका आ जाने पर भ्रष्टाचार के विरोध का दिखावा तो संघ ही नहीं कांग्रेस भी कर लेती है, किंतु सत्ता के लिए संघ परिवार किस हद तक पतित नहीं होता उस पर पाँच सौ से ज्यादा लेख तो मैं खुद लिख चुका हूं।
    7- क्षमा करें इमरजैंसी में मार्क्सवादियों के भी लोग समान संख्या में जेल गये थे, और सरकारी हिंसा के शिकार सबसे अधिक हुए थे। पर वे संघ के लोगों की तरह माफी माँग कर जेल से नहीं छूटे थे। आज जब करोड़्पतियों समेत सभी संघी लोग उस माफी वाली जेल यात्रा के मुआवजे के रूप में पेशन ले रहे हैं वहाँ मार्क्सवादियों ने पेंशन लेने से साफ इंकार कर दिया जबकि उन्हें पेंशन मिलना कहीं अधिक सार्थक होती।
    8- संघ परिवार अदालती सच बोलता है जो सत्य, अर्धसत्य, और असत्य का मिला जुला रूप होता है, किसी भी तरह मुकदमा जीत लेने वाला। इन से कुछ लोगों को भटकाया तो जा सकता है, पर यथार्थ को नहीं पकड़ा जा सकता। यही कारण है कि उनसे बात करके ऐसा लगता है कि किसी माल के सेल्स एजेंट से बात हो रही है जो सही गलत किसी भी तरीके से अपना माल बेच लेने को उतारू है। संघ के भ्रष्टाचार विरोध का पूर्व से विचार और अन्ना से असम्पृकता की बात तकनीकी है और इस मंच पर हास्यास्पद है। संघ परिवार विजयाराजे, उमाभारती हेमामालिनी, वरुण गान्धी से लेकर जयप्रकाश नारायन और वीपी सिंह तक दूसरों के कंधों के सहारे इतनी दूर तक आ गया है। शायद यह उसका क्लाइमेक्स है, भले ही आप न मानें। आप स्वयं भी अपने संगठन पर इतने शर्मसार हैं कि उसके बहुत निकट होते हुए भी उससे अपनी निकटता को छुपाने की कोशिश करते हैं। उम्मीद है कि तीक्ष्ण आब्जर्वेशंस के लिए क्षमा करेंगे। मैं अपने ब्लाग से लेकर विभिन्न वेब साइटों के लिए लिखता रहता हूं, इसलिए भविष्य में लम्बे पत्र नहीं लिख पाउंगा आप मेरे उत्तर मेरे लेखों में पा लेंगे। सादर।
    वीरेन्द्र जैन

  2. अन्ना के आन्दोलन को बुद्धि की कौसौती पर परखने वालों को गांधी जी के नमक सत्याग्रह को ज़रूर याद कर लेना चाहिए. तब भी अनेकों ने कहा होगा कि नमक और आज़ादी का क्या सम्बन्ध ? पर दूर द्रष्टा गांधी भारत के समाज की नब्ज समझते थे. जन भावनाओं को कैसे जगाना है, इसकी उन्हें समझ थी. अन्ना ने भारत के जन मानस को समझ कर तो यह आन्दोलन शुरू नहीं किया पर हुआ कमाल है. किसी ने नहीं सोचा था कि भ्रष्टाचार का मुदा भारत को इतनी गहराई से आंदोलित करदेगा. इससे पहले भी तो अनेकों ने भ्रष्टाचार का मुदा काफी सशक्त ढंग से उठाया पर परिणाम इतने ज़बरदस्त नहीं आये, क्यूँ ? सीधे-सरल अन्ना में क्या चमत्कार है जो लोगों को भा गया ? अन्ना का चमत्कार है उनका निष्कलंक जीवन और समर्पण . एक बहुत बड़ा कारण है उनकी गहन साधना. कई-कई घंटों तक गहन साधना चार दशकों से भी अधिक समय से चल रही है. उसका मुकाबला ये स्वार्थी, नास्तिक, सेक्युलारिस्ट, आकंठ भोगों में डूबे बौने क्या करेंगे. उनकी ताकत है ब्रहमचर्य, गहन साधना और छल-कपट रहित, देश सेवा से भरा कोमल भावुक ह्रदय. इस ताकत का मुकाबला ये भ्रस्त, अनैतिक सरकार नहीं कर पाएगी. अन्ना को ख़तरा तोप-बन्दुक वाली सरकार से नहीं, उस जमावड़े से हो सकता है जो न तो समाज सेवी है और न देशभक्त है. इटली के नहीं तो अमेरिका या चीन के इशारों पर ‘भारत तोड़ो’ अभियान में जुटे लोग हैं और आज अन्ना का लाभ लेने के लिए उन्हें घेरे हुए है. पर आशा करनी चाहिए कि ये लोग भी समय आने पर ‘नग्न’ हो जायेंगे. ….कुल मिलाकर इतना निश्चित है कि अरविन्द, विवेकानंद की भविष्यवानियाँ आश्चर्यजनक रूप से सही साबित होती नज़र आ रहीं हैं. लक्षण कह रहे हैं कि सन २०१४ तक सचमुच भारत विश्व शक्ति होगा और भारत में शुद्ध राष्ट्रवादियों की सरकार होगी. अद्भुत, आल्हादित करदेने वाली परिस्थितियाँ प्रकट हो रही हैं. सारे के सरे आकलन धरे के धरे रह गए और भविष्य में भी ये पश्चिम प्रेरित मीडिया और विचारकों के आकलन धरे ही रह जायेंगे. अद्भुत, अविश्वसनीय घटता ही जाएगा. आईये हम भी इस अभूतपूर्व इतिहास के केवल द्रष्टा नहीं, सक्रीय अंग बन कर जीवन को ऊर्जा और उत्साह से भर लें, इस जन्म को सार्थक कर लें !

  3. श्री वीरेंदर जी का लेख अच्छा है लेकिन इससे संघ व उससे जुड़े संगठनों के प्रति उनका पूर्वाग्रह भी झलकता है.संभवतः उनके नाम के साथ जनवादी लेखक होने का जो ठप्पा लगा है ये उसकी मजबूरी है.एक महत्वपूर्ण तथ्य ये है की जिन लोगों की बदौलत भारत में जनवाद का बीजारोपण हुआ ऐसे सभी लोग देर सवेर उस विचारधारा से विमुख होकर मानवतावादी या राष्ट्रवादी हो गए.एम् एन राय रेडिकल ह्युमनिस्ट हो गए तो श्रीपाद अमृत डांगे के दामाद ने यूनिवर्स इन वेदांत लिखी.अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी ये प्रमाणित हो चूका है की जनवाद या साम्यवाद या कम्युनिस्म की विचारधारा नाटो लोगों को बुनियादी जरूरतें पूरी करने में मददगार साबित हुई और न ही लोगों को आजाद ढंग से सोचने और अभिव्यक्त करने में ही सहायक हुई. तियेन्मान स्क्वायर सबूत है. चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड हंगरी, जर्मनी और अंत में सोवियत संघ का बिखराव इसे साबित कर चुके हैं.जब सोवियत संघ पर दुसरे विश्व युद्ध में हिटलर ने हमला कर दिया और उसकी फौजें रूस में घुस गयी तो स्टालिन के व कम्युनिस्म के अंतर्राष्ट्रीयवाद ने कोई मदद नहीं की और ये रूसी फ़ौज को प्रेरणा देने में असफल रहा. तब स्टालिन को पुराने रूस के महान दिग्गजों की याद आई और उनका वास्ता देकर र्प्प्स की फौजों को प्रेरित किया गया जिससे रूसी राष्ट्रवाद को बल मिला और सोवियत सेनाओं ने हिटलर की फ़ौज को परास्त किया. उस समय हेराल्ड ट्रिब्यून के विशेष प्रतिनिधि मोरिस हिन्दस ने पूरे रूस का युद्ध कालीन दौरा करके अपने रिपोर्ट लिखी जो “मदर रशिया ” के नाम से प्रकाशित हुई. उसमे श्री हिन्दस ने स्पष्ट लिखा की रूस में इस समय न तो साम्यवाद लड़ रहा था और न ही अंतर्राष्ट्रीयवाद. बल्कि वहां रूसी राष्ट्रवाद लड़ रहा था जो अपने प्रेरणा मार्क्स या लेनिन से नहीं बल्कि पीटर द ग्रेट से प्रेरणा ले रहे थे. !९६४ के बाद सोवियत संघ व चीन के बीच अलगाव का कारन भी परमाणु परीक्षण के बाद जन्मा चीनी राष्ट्रवाद ही मुख्य था.भारत में आज भी वामपंथी विचारक घिसीपिटी काल वाह्य हो चुकी विचारधारा से चिपकी है जबकि यदि वो भी बदलते हुए दुनिया के साथ राष्ट्रवादी ढंग से सोचने की आदत डालें तो शायद देश व समाज के लिए अधिक उपयोगी होगा.समाज के कमजोर तबकों के लिए उनका दर्द रचनात्मक दिशा की और न ले जाकर नक्सलवाद या माओवाद की और क्यों ले जाता है?क्या किसी जनवादी विचारक ने वनवासियों, गिरिवासियों या शहरों की मलिन बस्तियों के लोगों के लिए कोई सेवा प्रकल्प क्यों नहीं खड़ा किया? क्या केवल उनके अभावों पर घडियाली आंसू बहाकर उनका भला हो सकता है?हेलेन किलर ने कहा था की अँधेरे को कोसने से अच्छा है की एक मोमबत्ती जला दो अँधेरा खुद दूर हो जायेगा. श्री जैन की जानकारी के लिए बता दूं की आज पूरे देश में संघ की प्रेरणा से दो लाख बयासी हजार सेवा प्रकल्प दीन दुखियों ‘सर्वहारा’ की दिक्कतों व अभावों को दूर करने में लगे हैं जिनमे संघ के हजारों कार्यकर्ता पूर्णकालिक रूप से कार्य कर रहे है. ये सभी कार्यकर्ता(प्रचारक) उच्च शिक्षित हैं और अच्छे करियर में जा सकते थे लेकिन उन्होंने संघ की प्रेरणा से समाज सेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया.मैं न तो संघ का प्रवक्ता हूँ न प्रचारक. लेकिन बिना किसी पूर्वाग्रह के सभी को निष्पक्ष भाव से जानने का प्रयास अवश्य करता हूँ. मई मेनस्ट्रीम भी पढता हूँ और ओर्गेनायिजर व पाञ्चजन्य भी. काफी लम्बा विशायांतरण हो गया.संघ ने केवल जनभावनाओं से प्रभावित होकर उज्जैन बैठक में अन्ना हजारे के समर्थन का एलन अनहि किया बल्कि संघ सदैव से भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में सबसे आगे रहा है.१९७३-७४ में जेपी के आन्दोलन में, जो मूल रूप से गुजरात के चिमनभाई पटेल शासन के भ्रष्टाचार के विरोध में विद्यार्थी परिषद् ने शुरू किया था, संघ के कार्यकर्ताओं ने पूरी ताकत से भाग लिया. और जब आपातकाल घोषित हो गया तो जनवादियों पर नहीं बल्कि संघ पर प्रतिबन्ध लगा. लेकिन संघ ने केवल प्रत्बंध समाप्त करने के इंदिराजी के प्रस्ताव को ठुकरा कर लोकतंत्र की बहाली के लिए आन्दोलन चलाया. दो अक्टूबर १९८७ को नागपुर में विजयादशमी के अपने वार्षिक संबोधन में तत्कालीन सरसंघचालक जी श्री बालासाहब देवरस जी ने स्पष्ट आह्वान किया की गरीबी, भुखमरी अन्याय,शोषण व भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में संघ के स्वयं सेवकों को हिन्दू समाज की अगुवाई करनी होगी. अभी मार्च २०११ के द्वितीय सप्ताह में कर्णाटक के पुत्तूर में संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में पारित प्रस्ताव में भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में संघ के स्वयंसेवकों को पूरी तरह से भाग लेने का आह्वान किया गया था जबकि उस समय तक अन्नाजी के आन्दोलन का कहीं नामोनिशान भी नहीं था. और उनका पहला अनशन अप्रेल के प्रथम सप्ताह में हुआ था. विद्यार्थी परिषद् द्वारा यूथ अगेंस्ट करप्शन का अभियान भी तीन महीने से ज्यादा पुराना है और ९ अगस्त को रैली का निश्चय काफी पहले से किया जा चूका था. भाई वीरेंद्र जी से आग्रह है की कृपया जनवादी चश्मे को उतर कर स्वंतत्र रूप से पूरी जानकारी के पश्चात् यदि लिखेंगे तो शायद ज्यादा प्रभावकारी हो सकेगी.

  4. सदा की तरह ही बेहद सकारात्मक सूझ लिए आपका यह आलेख रहा.
    अन्ना एक मानव है ओर मानवीय पीडाओं को भुगतते हुए वे आज हमारे बीच हैं…अन्ना को हमारे बुद्धिजिवियों ओर मानवीय सरोकार रखने वालों की बातों को, उनके चिंतन-मनन ओर चिंताओं को नज़रअंदाज़ नहीं करना है… ओर यहाँ से भी बल प्राप्त करना है…

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