आज़ादी की एक और लड़ाई

नरेश भारतीय

स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराने का दिन आया था. एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित किया. माननीय मनमोहन सिंह जी ने क्या कुछ कहा उस दिन इसका यदि कोई महत्व था भी तो वह उन उभरती आवाजों में डूब कर रह गया जो आज देश में सर्वत्र उभर रहीं हैं. विदेशवासी भारतीयों को भी हमेशा यह उत्सुक प्रतीक्षा रहती है कि विश्व की एक महाशक्ति बनने के निकट पहुँच चुके भारत का प्रधानमंत्री क्या कहता है. देश की प्रतिष्ठा को किसी भी तरह से कोई भी आंच न आने देने की आवश्यकता को कैसे रेखांकित करता है. लेकिन देश से हजारों मील दूर बैठे हाल के महीनों में जो कुछ देखने और समझने को मिल रहा है वह चिंता योग्य है. उसका आकलन करते हुए वर्ष १९७५ के उस माहौल की बरबस याद हो आई है जब देश में लोकतंत्र को स्वार्थ की तेज तलवार से तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने काट कर टुकड़े टुकड़े कर देने की धृष्ठता की थी. लाखों को जेलों में दूंस दिया गया था, उन पर घोर अत्याचार किए गए थे. इसके विरुद्ध संघर्ष हुआ था और देश और विदेश में प्रखर स्वर उभरे थे, आज भी कथित रूप से वैसे ही एक भ्रष्ट प्रशासन, उसके भ्रष्ट राजनेताओं की भ्रष्ट सोच और उनके भ्रष्ट तौर तरीकों से स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि भारत में लोकतंत्र की बलि चढाई जा रही है.

जब सरकार बहरी हो जाए और जनता की जायज़ मांगों पर भी ध्यान देने से इनकार कर दे, तो फिर लोकतंत्र में यदि कोई उपाय बचता है तो वह यही है कि जनता शांतिपूर्ण विरोध करने के अपने मूलभूत अधिकार का प्रयोग करे. लेकिन यदि उस पर भी प्रतिबंधों का यह हथौड़ा चलाया जाएगा कि धरना मत दो, अनशन मत करो, सभा गोष्ठी मत करो, अमुक स्थानों पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिलेगी, मिलेगी तो मात्र इतने या उतने समय के लिए मिलेगी. क्या है ये सब? कैसा लोकतंत्र है यह ? पहले रामदेव के आन्दोलन को भंग कर देने के बाद अब जिस प्रकार अन्ना के आन्दोलन को डरा धमका कर और उन पर तरह तरह के बेमानी आरोप लगा कर उन्हें विचलित करने की चेष्ठा की गई, ऐसे कृत्य इस सरकार के एक ऐसे चरित्र को सामने लाते हैं जिस पर ब्रिटिशकालीन दमन के प्रतीक बदनुमा दाग अंकित हैं. अन्ना यदि प्रधानमंत्री से विनयपूर्वक कुछ कहने की चेष्ठा करते हैं तो प्रधानमंत्री उन्हें पुलिस से बात करने को कहते हैं. इसलिए क्योंकि ‘पुलिस विभाग उनके कार्यालय के अंतर्गत’ नहीं है. फिर देश का गृहमंत्री पुलिस को मोहरा बना कर सुरक्षा की दुहाई देता है और प्रतिबंधों की नीति को जायज़ ठहराने की चेष्ठा करता है. उसके बाद सामने आ खड़े होते हैं कपिल सिब्बल जो सरकार द्वारा उठाए जाने वाले हर कदम को संविधान सम्मत ठहराने में जुट जाते हैं. वे प्रेस को भी यह सलाह दे डालते हैं कि ‘वह जहां अन्ना को इतना प्रचार दे रही है यह भी ध्यान दे कि उनके विरुद्द भी लोग हैं’. इसका अर्थ कोई कुछ भी निकाले पर इससे इतना तो स्पष्ट है कि अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध होते जन जागरण से सरकार बौखला गई है. अपना ओछापन दिखा रही है. एक स्वतंत्र देश में अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की कुटिल नीति अपनाने पर उतर आई है.

कैसी है यह स्वतंत्रता? कैसा है यह लोकतंत्र? जिन विदेशियों को देश से बाहर करके इन्हें प्राप्त किया उनसे भी बदतर सलूक लोगों के साथ करने की प्रवृति प्रदर्शित करने वाले ये कथित गांधीवादी ही क्या गांधीवाद का गला नहीं घोंट रहे? क्या स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार मात्र इनके लिए ही सुरक्षित है? वे किसी के विरुद्ध कुछ भी कह सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन जनसामान्य में से किसी को कोई अधिकार नहीं है कि उनके कारनामों के विरुद्ध कोई आवाज़ उठाये. उनके राज में देश भ्रष्टाचार के पंक में निरंतर धंसता चला गया है. शासकदल के सभी नेता यह अपेक्षा करते हैं कि वे लोग जो सबसे पहले राष्ट्रहितार्थ सोचते हैं वे अपनी जुबान पर लगाम दे कर रखें. उनके विरुद्ध न खड़े हों और शोर मचा कर उनका पर्दाफाश न करें. जो उन्हें चुनौती देता प्रतीत होता है उसे अपने सत्ताबल के सहारे मैदान से हट जाने के लिए दबाव डालने की व्यूहरचना में अपनी प्रवीणता दिखाने में व्यस्त हैं.

जन आक्रोश तभी उत्पन्न होता है जब असंतोष का कोई कारण हो. जब देश का शासकवर्ग या तो नपुंसकता का परिचय देता है या विशिष्ट स्वार्थ कारणों से कुछ करने से आनाकानी करता है. क्या कहा था बाबा रामदेव ने? ‘विदेशों में जमा काला धन वापस लाओ’ यही तो न. सरकार को नहीं भाया उनका यह नारा. जलियांवाला के दृश्य की पुनरावृत्ति स्वतंत्र भारत में हुई और सरकार को जरा भी शर्म महसूस नहीं हुई. उनकी शांतिपूर्ण सभा को वैसी ही निर्दयता के साथ भंग कर दिया गया जिस तरह अंग्रेजों के राज में हुआ करता था. अन्ना ने अनशन करने की घोषणा बहुत समय से करनी शुरू कर दी थी और मांग यह थी कि देश में भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए एक सशक्त लोकपाल विधेयक पारित होना चाहिए. सरकार का जवाब था वह लोकपाल विधेयक लाएगी लेकिन अपने ढंग और अपनी सोच के मुताबिक. उसके दायरे में प्रधानमंत्री नहीं होगा. यदि जैसा कि अधिकांश लोग मानते हैं कि यह इसलिए है क्योंकि देश का आगामी कांग्रेस प्रधानमंत्री युवराज राहुल गाँधी को बनाये जाने की योजना है तो इस सरकार को स्पष्टीकरण देना चाहिए.

किस दिशा में ले जाया जा रहा है देश को? क्या सचमुच जैसा कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नेता अन्ना हजारे का कहना है कि देश में एक बार फिर लोकतत्र की हत्या का प्रतीक १९७५ की तरह का आपातकाल लाए जाने की तैयारी चल रही है? तब नागरिकों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था, उन पर अनेक प्रतिबन्ध लागू कर दिए गए थे, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति पर रोक लगा दी गई थी, शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों और लोगों के सार्वजानिक स्थानों पर एकत्र होने पर पाबंदी लगा दी गई थी. उन सब घटनाओं की वर्तमान में हो रहीं घटनाओं के साथ यदि तुलना की जाए तो ऐसी आशंकाओं को जन्म मिलना अस्वाभाविक नहीं है कि वैसा ही आपातकाल पुन: आ सकता है. तब देश के जनसामान्य और लोकतंत्रवादी नेतृत्व ने परस्पर राजनीतिक मतभेदों की दीवारों को फांद कर स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण के निर्देशन में देशव्यापी आंदोलन खड़ा किया था. देश क्या विदेश क्या सभी जगह भारतीय रक्त गरमाया था. जे. पी. को खुला समर्थन मिला था. आज भी वैसा ही हो रहा है. भारत में राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन पुन: इस भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना अभियान को समर्थन देते हुए मैदान में आ खड़े हुए हैं. विदेश में १६ अगस्त को अन्ना के अनशन शुरू करते ही हजारों हज़ार प्रवासी भारतीयों ने उपवास रखा और उनके अभियान के प्रति एकात्मभाव प्रदर्शित किया.

आज देश में वन्देमातरम वैसे ही गूंज रहा है जैसे अंग्रेजों से आज़ादी के संघर्ष में गूंजता था. गांधीजी का अहिंसावाद और भगत सिंह का इन्कलाब जिंदाबाद के नारे एक साथ उभर रहे हैं क्योंकि दोनों ही अन्याय, शोषण और दमन के विरुद्ध भले अपनी अपनी मान्यताओं के अनुरूप लड़े थे और अपने किए नहीं अपितु देश के लिए लड़े थे. दोनों ने ही गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए एक ही भाव भूमि खड़े आजादी की लड़ाई में अनुपम उदाहरण कायम किए. इसीलिए, वे देश की जनता के लिए सतत ऐतिहासिक प्रेरणा बने हुए हैं. इस नए संघर्ष में एक जोशीले नौजवान को यह कहते हुए सुना कि “जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर ज़माना चलता है”, एक बूढ़े ने कहा “हम अन्ना के साथ हैं, लाठी गोली खाने को तैयार हैं”. देश के अनेक भागों से नारे लगते हुए जत्थे निकल पड़े हैं. अन्ना ओर उनके साथियों को तिहाड़ जेल में भेजा गया जो अपराधियों के लिए है. उन्होंने देश की भ्रष्टाचार संतप्त जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए साहस के साथ ‘आजादी की यह दूसरी लड़ाई” लड़ने का संकल्प दिखाया है. अन्ना आन्दोलन समर्थन पा रहा है और यदि वे इसी तरह से लड़ते रहे तो उसे वैसा ही वृहद स्वरूप और विस्तार मिलेगा जिसकी आज देश को आवश्यकता है. जैसा १९७५ में जे. पी. के आन्दोलन को मिला था और जो परिवर्तनकारी भी सिद्ध हुआ था. काश कि वह परिवर्तन चिरस्थायी बनता.

टेलीविजन पर अपने देशवासियों को जब ये नारे लगाते सुन रहा हूँ ‘भ्रष्टाचार सहन नहीं करेंगे” और देख रहा हूँ कि इसके लिए जैसा जोश उमड़ रहा है देश में वह एक नए संघर्ष के आगमन के संकेत मिलते हैं. कैसी विडम्बना है कि एक गांधीवादी के द्वारा एक ऐसी पार्टी की सरकार के विरोध में और एक ऐसे मुद्दे पर जन शक्ति का आह्वान किया गया है जिसने बरसों से गांधी के नाम पर अंधा सत्ता सुख भोगा है, लोकतंत्र को स्वार्थसुख के लिए तोडा और मरोड़ा है, अपने वंशवाद से देश को भरमाया है और भ्रष्टाचार को पनपाया है. इसके विरुद्ध अन्ना और उनके समर्थकों ने एक अह्म मुद्दे पर जनता का नेतृत्व करते हुए अपनी गिरफ्तारियां दीं. देश में शांति बनाए रखते हुए इस संघर्ष को गति देने का अपना आग्रह बनाए रखा. जैसे नारे लगाए जा रहे हैं और तिरंगा लिए लोग जगह जगह प्रदर्शन कर रहे हैं उसके दूरगामी परिणाम होंगे. परिवर्तन का प्रारंभ है यह और यदि इस जोश को होश के साथ देशवासियों ने बनाए रखा तो देश भ्रष्टाचार से मुक्ति की इस लड़ाई में निश्चय ही विजय पथ पर अग्रसर होगा. पर यह ध्यान में रखना होगा कि मात्र लोकपाल विधेयक के पारित करवाने की अपनी मांगों को मनवा लेना इस मुहिम का अंत न मान लिया जाय क्योंकि संघर्ष की यह डगर लंबी और कंटकाकीर्ण है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई एक लंबी लड़ाई है. उसके लिए एक मजबूत संघर्ष रणनीति के निर्धारण की आवश्यकता है. ऐसा संघर्ष जैसा चाणक्य ने अपने पांव में एक कांटे के घुस जाने से घायल हो जाने के बाद मार्ग के सभी काँटों को उखाड फैंकने की अपनी तत्परता में दिखाया था.

1 COMMENT

  1. चाणक्य का अंतिम वाक्य और उसका ‘भ्रष्टाचारियों और देश द्रोहियों’ के लिए प्रयुक्त शब्द भी “कंटक” ही है|
    समयानुकूल सुन्दर लेख| कुछ जल्दी देख लिया है, पर समय लेकर फिरसे पढूंगा| धन्यवाद|

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