धूमिल की कविताओं में व्यक्त स्त्री-विरोधी दृष्टिकोण — सारदा बनर्जी

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imagesधूमिल की कविताएं जनतंत्र को संबोधित करने वाली कविताएं हैं। ये कविताएं सीधे-सीधे देश के लोकतंत्र, संविधान, संसद और नेता की तीखी आलोचना में लिखी गई और उन्हें चुनौती देती कविताएं हैं। धूमिल देश की पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे, फलतः उन्होंने अपनी कविताओं में इस असंतुष्टि को बड़े आक्रोश के साथ व्यक्त किया है।उन्होंने जनतंत्र पर तीखी, कड़ी एवं पैनी प्रतिक्रिया से लैस कविताओं का सृजन किया है और पूँजीवादी समाज के प्रति अपने विरोध को स्पष्ट तौर पर जगजाहिर किया है। किंतु इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात यह है कि संविधान, संसद, लोकतंत्र और आज़ादी को निरर्थक और निस्सार सिद्ध करने के लिए उन्होंने जिन कविताओं की रचना की है, उनमें से अधिकतर कविताएं स्पष्टतः धूमिल की मानसिकता में व्याप्त घोर स्त्री-विरोधी चेतना को दर्शाता है। उनकी कविताएं स्त्री के प्रति उनके आक्रामक रुख को, उनमें व्याप्त पुंसवादी मानसिकता के लक्षण को साफ तौर पर ऊजागर करता है।

धूमिल ‘संसद से सड़क तक’ नामक अपने प्रसिद्ध कविता-संग्रह की पहली कविता ‘कविता’ में लिखते हैं, “एक संपूर्ण स्त्री होने के पहले ही/ गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुए/ उसने जाना कि प्यार/ घनी आबादी वाली बस्तियों में/ मकान की तलाश है/ लगातार बारिश में भीगते हुए/ उसने जाना कि हर लड़की/ तीसरे गर्भपात के बाद/ धर्मशाला हो जाती है और कविता/ हर तीसरे पाठ के बाद।”[1]

इस कविता में धूमिल पाठक वर्ग को इस बात का एहसास दिलाना चाहते हैं कि यह एक ऐसा नया युग है जहां लोकतंत्र, संसद किसी भी चीज़ का कोई मूल्य नहीं है।ज़ाहिर है इस युग में कविता भी बदल चुकी है और कवि भी परंपरागत लीक से कटे हुए नए कवि हैं जिनकी सोच नई है और जो हर एक चीज़ का अस्वीकार कर रहे हैं।इस बदली हुई कविता के तेवर को समझाने के लिए धूमिल ने कविता की नई परिभाषा ‘घेराव में किसी बौखलाए हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप’ कहकर दिया है।किंतु गौरतलब है कि कविता के इस बदले हुए पैटर्न की तुलना करने के लिए कवि को स्त्री के यौनांग ही क्यों याद आते हैं और खासकर ‘गर्भाधान’ तथा ‘गर्भपात’ जैसे शब्दों का प्रयोग कर धूमिल ने स्त्री की उपादेयता को केवल देह तक सीमित मान लिया है।साथ ही इस तरह के शब्दों का प्रयोग स्त्री के चरित्र-हनन से जुड़ा हुआ है।उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने स्त्री के अस्तित्व को केवल प्रजनन तक सीमित मानकर उसके अस्तित्व के मूल्य को बेहद संकुचित कर दिया है।यह वस्तुतः स्त्री को देखने का स्त्री-विरोधी या पितृसत्ताक पुंसवादी दृष्टिकोण है जो धूमिल की अनेक कविताओं में साफ तौर पर देखा जा सकता है।धूमिल की इस तरह की कविताएं कायदे से पितृसत्ताक व्यवस्था में स्त्रीविरोधी- पुंसवादी मानसिकता को पुख्ता करता है।

इसी संग्रह की एक और कविता ‘जनतंत्र के सूर्योदय में’ में धूमिल जनतंत्र को ‘सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए’ दिखाते हैं और उन्हें ऐसा लग रहा है कि जनतंत्र जल रहा है,जनतंत्र में बेइमानी भरी पड़ी है लेकिन कोई इसका प्रतिवाद नहीं कर रहा।फलस्वरुप उन्हें लगता है कि देश में सारी विपरीत परिस्थितियाँ यथावत बनी रहेंगी, उसमें कभी आवश्यक कोई सुधार नहीं होगा और वे लिखते हैं, “सड़क के पिछले हिस्से में/ छाया रहेगा/ पीला अन्धकार/ शहर की समूची/ पशुता के खिलाफ़/ गलियों में नंगी घूमती हुई/ पागल औरत के ‘गाभिन पेट’ की तरह/ सड़क के पिछले हिस्से में/ छाया रहेगा पीला अंधकार।”[2]  आगे कवि मातृभाषा का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा/ उस महरी की तरह है, जो/ महाजन के साथ रात-भर/ सोने के लिए/ एक साड़ी पर राज़ी है।”[3]

यहां उल्लेखनीय है कि जनतंत्र की असफलताओं और दुबर्लताओं का बयान करने के लिए धूमिल ने नंगी घूमती हुई पागल औरत के ‘गाभिन पेट’ और ‘महरी’ जैसे स्त्री-अपमानसूचक उपमानों को ढूंढ़ निकाला है जो स्त्री के समूचे व्यक्तित्व पर ज़बरदस्त प्रहार करता है और यह हर हाल में विरोध करने लायक है।यह अचम्भे की बात है कि धूमिल जैसे जनतांत्रिक कवि जनतंत्र की चर्चा करते हुए जनतंत्र की तुलना अचानक स्त्री की योनि और यौनांगों से करने लग जाते हैं और उन अंगों को अपशब्द कहते हुए उन्हें गाली-गलौज करते हुए उनकी निंदा करते रहते हैं।उन्हें यह पता होना चाहिए था कि लोकतंत्र का रास्ता स्त्री की योनी से होकर नहीं जाता। लोकतंत्र और स्त्री अलग-अलग मुद्दे हैं और लोकतंत्र की अक्षमताओं का ज़िक्र करने के लिए स्त्री की योनि के अतिरिक्त भी कई मुद्दे हैं जिन्हें कायदे से उठाया जा सकता है और यदि स्त्री पर बात करनी है तो उसकी समस्याओं को सामने लाने की ज़रुरत है।वस्तुतः समाज और साहित्य में स्त्री और लोकतंत्र दोनों ही सकारात्मक चीज़ें हैं जिन्हें नकारात्मक ढंग से नहीं देखा जाना चाहिए।स्त्री और लोकतंत्र के बिना न समाज हो सकता है और न साहित्य।यह भी जानना ज़रुरी है कि लोकतंत्र में स्त्री आज़ाद है, उसके पास कानूनी अधिकार है।लोकतंत्र में स्त्री सम्मानित हैं।उसे पुरुषों के समान दर्जा दिया गया है।वह केवल सोने के लिए और प्रजनन के लिए नहीं बनी है।उसके पास योनि के अतिरिक्त भी बुद्धि है, विवेक है, गुण है, उसकी निजता है जिसके आधार पर वह समाज में अपना स्वायत्त दर्जा और स्थान बना सकती है, जीवन में एक मर्यादापूर्ण ज़िंदगी जी सकती है। यह पितृसत्ताक व्यवस्था और उसकी पिछड़ी मानसिकता ही है जो उसे रुढ़िवादी सोच की बेड़ियों में जकड़कर उसकी आज़ादी में बराबर हस्तक्षेप करता रहा है, उसके हर एक कदम पर कड़ी पाबंदी लगाता रहा है और उसकी भूमिका को केवल प्रजनन तक सीमित मानकर उसके प्रति दीर्घकाल से अविचार करता रहा है।इस संदर्भ में प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं, “पितृसत्ताक नज़रिए के कारण स्त्री क्रमशः अधिकारहीन हुई, भोग की वस्तु बनी, इसी भोगवादी दृष्टि का साहित्य में भी जयघोष हुआ।साहित्य में स्त्री को भोग की वस्तु के रुप में देखा गया उसकी उन तमाम क्रियाओं को रुपायित किया गया जिनसे भोगवाद या सुखवाद को विस्तार मिले।”[4]

‘सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र’ नामक कविता-संग्रह की कविता ‘सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्रः (दो)’ में धूमिल प्रजातंत्र की असलियत का पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं, “न कोई प्रजा है/ न कोई तंत्र है/ यह आदमी के खिलाफ/ आदमी का खुलासा/ षड्यंत्र है।”[5] यह सही है कि धूमिल भारतीय प्रजातंत्र में सिद्धांत और व्यवहार के बीच के भीषण फर्क से त्रस्त हो चुके थे और कविताओं के माध्यम से जनतंत्र के प्रति अपने आक्रोश को संप्रेषित कर रहे थे।इसी वजह से जनतांत्रिक व्यवस्था पर अपने असंतोष को वे ‘षड्यंत्र’ कहकर संबोधित करते हैं लेकिन क्या व्यवस्था की बुराइयों का ज़िक्र करते समय औरत की जांघों का ज़िक्र ज़रुरी था और उन जांघों को किस आधार पर लालची कहा गया यह भी गंभीर विवेचन की मांग करता है।उपरोक्त पंक्तियों के बाद की पंक्तियां इस प्रकार है, “हर बार की तरह/ तुम सोचते हो कि इस बार भी यह/ औरत की लालची जाँघ से/ शुरु होगा और कविता तक/ फैल जाएगा।”[6]

‘राजकमल चौधरी के लिए’ कविता राजकमल चौधरी को उनके मृत्यु के बाद याद करते हुए लिखा गया है।इसमें धूमिल एक जगह लिखते हैं, “….औरतें/ योनि की सफलता के बाद/ गंगा का गीत गा रही है/ देह के अंधेरे में/ उड़द और अजवाइन के पौधों का सपना/ उग रहा है।”[7] इसी कविता की आगे की पंक्तियों में लिखते हैं, “आज़ादी- इस दरिद्र परिवार की बीससाला ‘बिटिया’/ मासिकधर्म में डूबे हुए क्वाँरेपन की आग से/ अन्धे अतीत और लँगड़े भविष्य की/ चिलम भर रही है।”[8]

लोकतंत्र की कमियों की चर्चा करते हुए स्त्री-गुप्तांगों और स्त्री-समस्याओं (मासिक धर्म) को उभारकर उसकी उपमाएं देना वस्तुतः स्त्री के प्रति अमर्यादित एवं अशोभन रुचि-बोध का प्रतीक है। यह बातें स्पष्ट कर देती हैं कि धूमिल के लिए स्त्री योनि से ज़्यादा कुछ नहीं है। आश्चर्य है कि धूमिल को स्त्री का स्त्रीत्व नहीं दिखाई नहीं देता, उसकी अनुभूति नहीं समझ आती, उसके कोमल एवं ममत्वपूर्ण हृदय का एहसास नहीं होता, उसका चेहरा नहीं दिखाई देता, उसकी समस्याएं नहीं दिखाई देती केवल योनि और जंघा ही दिखाई देती है और उसे भी वे उत्तेजनापूर्ण शब्दों, कटु भावों द्वारा अपमानजनक तरीके से कोसने में लगे रहते हैं।इससे भी अचंभे की बात है कि स्त्री के प्रति इस विपरीत मानसिकता को हिन्दी के किसी आलोचक ने आज तक गंभीरता से नहीं लिया। क्या कारण है कि धूमिल द्वारा स्त्री पर हुए इस काव्यिक आक्रमण पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया? उन्हें केवल धूमिल की कविताओं में जनतंत्र के प्रति आक्रोश, गुस्सा और बौखलाहट दिखाई देता है, जनतंत्र की ओट में किए गए स्त्री-सम्मान पर आघात नहीं। धूमिल द्वारा जनतंत्र का नकाब उतारते दिखाई देता है पर स्त्री को नंगा करते, उसकी मर्यादा को उतारते, उस पर चोट करते नहीं दिखाई देता। क्या कारण है कि स्त्री-गुप्तांगो को लेकर किए गए ये शाब्दिक छेड़छाड़ आलोचकों पर प्रभाव नहीं डालता ? अपितु वे इन्हीं पंक्तियों पर तारीफ़ों के पुल बांधते हैं। मसलन् ‘संसद से सड़क तक’ कविता संग्रह की एक कविता ‘उस औरत की बगल में लेटकर’ पर अशोक वाजपेयी लिखते हैं, “धूमिल की दायित्व-भावना का एक और पक्ष उनका स्त्री की भयावह लेकिन समकालीन रुढ़ि से मुक्त रहना है।मसलन्, स्त्री को लेकर लिखी गयी उनकी कविता उस औरत की बगल में लेटकर में किसी तरह का आत्मप्रदर्शन, जो इस ढंग की युवा कविताओं की लगभग एकमात्र चारित्रिक विशेषता है, नहीं है, बल्कि एक ठोस मानव-स्थिति की जटिल गहराइयों में खोज और टटोल है जिसमें दिखाऊ आत्महीनता के बजाय अपनी ऐसी पहचान है जिसे आत्म-साक्षात्कार कहा जा सकता है।”[9]

किंतु एक दायित्व-बोध संपन्न कवि के लिए यह भी ज़रुरी है कि आत्म-साक्षात्कार के साथ-साथ वह समाज का भी साक्षात्कार करें। उसमें सामाजिक जागरुकता हो तथा वह सामाजिक परिवर्तन का हिमायती हो।समाज के उपेक्षितों में स्त्री भी आती है, तो सवाल उठता है कि उस पर कविता के ज़रिए इस तरह का आक्रमण क्यों? पूरे अकवितावाद के दौरान कविता में स्त्री और स्त्री की योनि पर जितना आक्रमण हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ था।इस संदर्भ में धूमिल सहित पूरे अकवितावादियों पर टिप्पणी करते हुए प्रगतिशील कवि रघुवीर सहाय ने लिखा है, “स्त्री पर इस कविता ने जितना आक्रमण किया है वह दिखाता है कि असलियत क्या है?यद्दपि वे विद्रोह की,समाज को बदल देने की मुद्रा अपना रहे हैं तो भी आक्रमण कर रहे हैं स्त्री पर, जो कि उपेक्षितों का प्रतीक है।”[10] अनेक आलोचकों के अनुसार ये कवि सामाजिक परिवर्तन के अभिलाषी थे। इन आलोचकों पर कड़ा प्रहार करते हुए रघुवीर सहाय यह सवाल करते हैं कि यदि इस दौर की कविता सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा करने वालों की कविता थी तो स्त्री पर इतना आक्रमण क्यों हुआ।यह उल्लेखनीय है कि रघुवीर सहाय ने यह विरोध अपने प्रख्यात कविता-संकलन ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की कुछ कविताओं के माध्यम से भी व्यक्त किया है। ‘फ़िल्म के बाद चीख़’ कविता में वे स्त्रियों पर अपमानसूचक शब्दों में लिखे गए कविताओं का जवाब देते हुए लिखते हैं, “क्रोध, नक्कू क्रोध, कातर क्रोध/ तुमने किस औरत पर उतारा क्रोध/ वह जो दिखलाती है पेट पीठ और फिर/ भी किसी वस्तु का विज्ञापन नहीं है/ मूर्ख, धर्मयुग में अस्तुरा बेचती है वह/ कुछ नहीं देती है बिस्तर में बीस बरस के मेरे/ अपमान का जवाब।”[11]

वस्तुतः लोकतंत्र का जैसे-जैसे विस्तार होता जाएगा उसमें पारदर्शिता की मांग भी बढ़ती जाएगी।लोकतंत्र जितना परिपक्व होगा वे तमाम क्षेत्र जो बंद पड़े हैं वे स्वतः खुलते चले जाएंगे।स्वभाविक तौर पर समाज के विभिन्न रुपों का साहित्य में उद्घाटन होता जाएगा।किंतु धूमिल की कमज़ोरी है कि वे अपनी कविताओं में समाज के विभिन्न रुपों एवं स्तरों का उद्घाटन करने के बजाय स्त्री-शरीर को उद्घाटित करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दिए।उन्हें यह लगा कि स्त्री को नंगा करने का अर्थ लोकतंत्र को नंगा करना है।उन्होंने स्त्री के विध्वंश को लोकतंत्र का विध्वंश मान लिया और स्त्री-विरोधी प्रतीकों का प्रयोग लगातार कविताओं में करते रहे।वस्तुतः स्त्री पर स्वच्छंद तरीके से कविता लिखी जा सकती है, उसको कविता में खुले रुप में उभारा जा सकता है लेकिन इसके लिए यह ज़रुरी है कि स्त्री के प्रति सम्मान का भाव हो, उसके प्रति अमर्यादित रुचिबोध न हो या अशालीन भड़काऊ शब्दों का प्रयोग न हो। मसलन् चिलिअन कवि पैब्लो नेरुदा ने स्त्री-शरीर और अपने व्यक्तिगत प्रेम-अनुभव को केंद्र में रखकर उस दौरान अनेक कविताओं का सृजन किया है जो किसी भी दृष्टि से स्त्री के प्रति नकारात्मक या अपमानजनक भावबोध को व्यक्त नहीं करता।नेरुदा ने भी अपने देश में चल रहे विभिन्न तरह के शोषण और खास तौर पर स्त्री-उत्पीड़न को देखा-समझा था और लोकतंत्र के आने के बाद की असंगतियों को भली-भांति महसूस किया था।उन्होंने अपनी कविताओं के ज़रिए फासीवाद और उसके बर्बर दमन का बराबर विरोध किया था जिनके कारण उन्हें अनेक तरह की असुविधाओं का भी सामना करना पड़ा था।वे लातिन अमेरिका के सक्रिय राजनैतिक कार्यकर्ता थे और उन्होंने लोगों के उत्पीड़न को काफ़ी नज़दीक से देखा था जिसका ज़िक्र उनके ‘Canto General’ कविता-संग्रह में मिलेगा। ‘Heights of Macchu Picchu’, ‘Discoverers of Chile’, ‘Magellan’s Heart’, ‘The Beasts’  इसी तरह की कविताओं का संकलन है। ‘Heights of Macchu Picchu’  में मानव-यंत्रणा और मानव-संघर्ष का जीवंत चित्रण हुआ है।लेकिन उनकी कविताओं में कहीं भी स्त्री के प्रति गर्म और बौखलाहट भरे शब्दों का प्रयोग नहीं मिलेगा।अपनी कविता ‘Naked you are as simple as one of your hands’  में प्रेमिका को संबोधित करते हुए नेरुदा लिखते हैं, “Naked, you are simple as one of your hands, /Smooth, earthy, small, transparent, round: /You have moonlines, applepathways: /Naked, you are slender as a naked grain of wheat./Naked, you are blue as the night in Cuba; /You have vines and stars in your hair; /Naked, you are spacious and yellow /As summer in a golden church.”[12]

इन पंक्तियों में बहुत सुंदर शब्दों द्वारा, सुंदर उपमानों द्वारा स्त्री देह को तस्वीर की तरह कविता में उतारा गया है। ‘The light that rises from your feet to your hair’ कविता में नेरुदा अपनी प्रेमिका के विभिन्न अंगों की तुलना ब्रेड (रोटी) से करते हैं और अंततः प्रेमिका की पवित्रता, उसकी चारुता, उसकी सुगंध, उसकी भाषा की तारीफ़ में निम्न-पंक्तियां लिखते हैं, “Oh, bread your forehead, your legs, your mouth,/bread I devour, born with the morning light,/my love, beacon-flag of the bakeries:/fire taugh you a lesson of the blood;/you learned your holiness from flour,/from bread your language and aroma. ”[13]

इन पंक्तियों से यह बात स्पष्ट होता है कि स्त्री और स्त्री-देह पर बेहद सुसंगत तरीके से कविताएं लिखी जा सकती हैं।उसके लिए अश्लील शब्दों का प्रयोग कर स्त्री-गुप्तांगों को गाली देने की कोई ज़रुरत नहीं है।नेरुदा के यहां स्त्री के प्रति अश्लील शब्दों का बिल्कुल प्रयोग नहीं हुआ है।साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि स्त्री के सौंदर्य और शरीर को शब्दों में ढालने के लिए स्त्री के मन, सभ्यता, संस्कृति, संवेदना और ज़रुरतों का व्यवहारिक ज्ञान बेहद ज़रुरी है।

लोकतंत्र के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि किसी भी चीज़ को पुनर्परिभाषित किया जाए। किंतु हमारे आलोचकों ने भारत के लोकतंत्र को पुनर्परिभाषित ही नहीं किया।लोकतंत्र के लिए किसी भी संबंध को चाहे वह माता-पिता का हो, भाई-बहन का हो, शासक-जनता का हो, स्त्री-पुरुष का हो, उसे दोबारा परिभाषित करने की ज़रुरत है।इस पर विचार करना चाहिए था कि पहले से बनी-बनाई परिभाषा क्या लोकतंत्र के आने के बाद प्रासंगिक है या नहीं।यदि नहीं है तो यह ज़रुरी था कि लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में हर चीज़ को नए सिरे से पुनर्परिभाषित करते। सवाल यह है कि यदि लोकतंत्र के संदर्भ में स्त्री-पुरुष संबंधों को पुनर्परिभाषित करना हो तो कौन-सी चीज़ महत्वपूर्ण है, स्त्री की योनि या जीवन का वैषम्य? स्त्री-पुरुष संबंध में जीवन के वैषम्य पर बहस होनी चाहिए, उसे उद्घाटित करना चाहिए ना कि योनि को।कायदे से योनि पर कविता लिखना स्त्री पर हमला करना है, स्त्री को उपकरण की तरह इस्तेमाल करना है।योनि पर लिखने से स्त्री और स्त्री-वैषम्य उद्घाटित नहीं होती।स्त्री वैषम्य को उद्घाटित करने के लिए स्त्री पर बहस ज़रुरी है।स्त्रियों के जीवन की अनेकों समस्याएं हैं, स्त्री के अनेक सामाजिक रुप हैं, अनेक वर्गों की स्त्रियां हैं जैसे उच्च-वर्गीय स्त्री, मध्य-वर्गीय स्त्री, निम्न-वर्गीय स्त्री हैं, उनकी भिन्न-भिन्न किस्म की समस्याएं एवं लक्ष्य है,इन पर चर्चा होनी चाहिए थी। स्त्री को नये सिरे से परिभाषित करने की ज़रुरत थी। मसलन्, स्त्री क्या है, उसकी दुनिया कैसी है, उसकी समस्याएं क्या-क्या है।किंतु लोकतंत्र के आने के बाद स्त्री के प्रति नए सिरे से हमारे सरोकार तय नहीं हुए। खासकर हिन्दी साहित्य में स्त्री पर बहस नहीं हुआ, उसे परिभाषित करने की कोशिश नहीं की गई।इस संदर्भ में प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी सटीक लिखते हैं, “आज़ादी के बाद हमारे देश ने आधुनिकता और औद्दोगिकरण का जो रास्ता चुना उसमें कैसी औरत निर्मित होगी ? उसके क्या अधिकार होंगे ? नई बदली हुई परिस्थितियों में औरत कैसे अपने संसार को रचेगी ? इन सब सवालों पर नेहरु युग में स्त्री का कोई भी विमर्श नज़र नहीं आता।यहाँ तक कि मज़दूर संगठनों के एजेण्डे पर औरत सन् अस्सी के बाद ही आ पाई है।”[14] इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सन् अस्सी के पहले तक और खासकर अकविता के दौरान स्त्री को मुख्यतः एक नकारात्मक तत्व के रुप में देखा जाता रहा। सन् साठ के दौरान उसकी योनि पर केंद्रित कविताएं लिखी गईं जो प्रकारान्तर से पुंसवादी मानसिकता और पुंसमन में छिपे हुए दमित कुंठाओं को ही सामने लाता है।

यह बेहद आश्चर्यजनक है कि एक लोकतांत्रिक देश के लोकतांत्रिक कवि होते हुए भी धूमिल स्त्री के मामले में बेहद अलोकतांत्रिक है।ऐसा नहीं है कि धूमिल स्त्री-विरोधी है, लेकिन उनका व्यवहार घनघोर स्त्री-विरोधी लक्षण को सामने लाता है।कारण यह कि स्त्री को लोकतांत्रिक परिवेश में नए सिरे से परिभाषित न करने के कारण स्त्री के प्रति जो तथाकथित सामंती और पुंसवादी मानसिकता पहले से बना हुआ था उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ।फलतः धूमिल ने स्त्री को केवल भोगवादी नज़रिए से देखा और उन्होंने स्त्री-विरोधी धारा के पुराने लक्षण ही ग्रहण किए।हालांकि उसी दौरान प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने भी स्त्री पर अनेक कविताओं की रचना की जो बेहद मानवीय और संवेदनशील ढंग से लिखी गई।केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में स्त्री सम्मानित और प्रगतिशील रुप में सामने आई है।स्त्री के प्रति केदारनाथ अग्रवाल का रुख बेहद प्रगतिशील है।उनके ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ कविता-संग्रह की कविता ‘न कुछ, तुम एक चित्र हो’ में वे लिखते हैं, “न कुछ, तुम एक चित्र हो/ रंगों से उभर आये अंगों का/ जवान/ जादुई/ जागता/ मन पर मेरे अंकित/ मेरे जीवन की परिक्रमा का/ अशान्त/ अतृप्त/ अनिवार्य/ रंगीन विद्रोह।”[15] उसी संग्रह की 1958 में लिखी कविता ‘हे मेरी तुम! बिना तुम्हारे’ में केदारनाथ अग्रवाल लिखते हैं, “हे मेरी तुम !/ बिना तुम्हारे/ जलता तो है/ दीपक मेरा/ लेकिन ऐसे/ जैसे आँसू/ की यमुना पर/ छोटा-सा/ खद्दोत/ टिमकता,/ क्षण में जलता/ क्षण में बुझता।”[16] स्त्री के प्रति कितना सहृदय और प्रगतिशील भावबोध है इन कविताओं में। वहीं स्त्री के प्रति धूमिल का रवैया एक सिरे से स्त्री-विरोधी है। ‘स्त्री’ नामक कविता में वे लिख रहे हैं, “मुझे पता है/ स्त्री/ देह के अँधेरे में/ बिस्तर की / अराजकता है/ स्त्री पूँजी है/ बीड़ी से लेकर/ बिस्तर तक/ विज्ञापन में फैली हुई।”[17]

इन पंक्तियों में पूँजीवादी समाज में स्त्री के माल में तब्दील होने के ज्वलंत सत्य को उद्घोषित किया गया है किंतु इन कविताओं में कहीं भी धूमिल का स्त्री के प्रति सम्मानजनक रवैया स्पष्ट नहीं होता।यह नहीं प्रकट होता कि स्त्री किन परिस्थितियों में, किन असुविधाओं में, किन लाचारियों की बदौलत पूँजीवादी समाज में माल बनती जा रही है।उसकी समस्याओं का कहीं ज़िक्र नहीं है, ना ही स्त्री-मन के दुख-दर्द की कोई छवि ही मिलती है यहां। इसके विपरीत धूमिल दोषारोप करते हुए स्त्री को ‘देह के अँधेरे में बिस्तर की अराजकता’ जैसे अपशब्दों से असम्मानित करते हैं। वस्तुतः स्त्री के यौनांगों को लेकर लिखे गए और उसे हीन करार देने वाले साहित्य का दुनिया भर के तमाम स्त्रीवादियों ने विरोध किया है। प्रसिद्ध स्त्रीवादी केट मिलेट अपनी रचना ‘sexual politics’ में लिखती हैं, “It is ironic how misogynist literature has for centuries concentrated on just these traits, directing its fiercest enmity at feminine guile and corruption , and particularly that element of it which is sexual, or, as such souces would have it, “wanton”.”[18]

ध्यान देने वाली बात है कि धूमिल के लिए लोकतंत्र एक नकारात्मक तत्व है जिसकी भूमिका भी नकारात्मक है।उनके अनुसार लोकतंत्र में कोई चीज़ काम का नहीं।तभी संसद, संविधान, राजनीति, नेता, स्त्री के प्रति भी उनका नकारात्मक रुख है। लोकतंत्र के आने के बाद नए बाज़ार आए, नए किस्म के खान-पान, नए वर्ग आए।किंतु धूमिल लोकतंत्र के अनुरुप शिष्टाचार, व्यवहार, संस्कार नहीं बना पाए यानि वे लोकतंत्र के साथ समन्वय नहीं स्थापित कर पाए।फलतः वे अस्वीकार का भाव ग्रहण कर लिए।यह वस्तुतः प्रतिगामिता का भाव है। धूमिल लोकतंत्र को नहीं मानते पर उनके पास लोकतंत्र का कोई विकल्प नहीं है।उनके अंदर पूँजीवाद के प्रति तीव्र घृणा है लेकिन समाजवाद का कोई सपना नहीं है।किंतु उसी दौर में कविता लिख रहे दूसरे प्रगतिशील कवि नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल के पास समाजवाद का सपना था।धूमिल लोकतंत्र को ,पूँजीवाद को, समाजवाद को लगातार खारिज करते जाते हैं लेकिन दिलचस्प है कि उनके पास कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं है। वैचारिक तौर पर यह बहुत खतरनाक है क्योंकि इससे अराजनैतिक दृष्टिकोण बढ़ता है। जायज़ है कि जब आपके पास कोई लक्ष्य नहीं तो फिर आप पूर्व-पूँजीवादी समाज की ओर लौटेंगे और उसकी जितनी भी बीमारियां हैं उन्हें ग्रहण करते जाएंगे।इन्हीं में से एक है, स्त्री-यौनांगों पर कविता लिखना।लेकिन स्त्री अस्मिता का अर्थ केवल यौनांग नहीं है।स्त्री अस्मिता को स्थापित करने के लिए स्त्री के वास्तव सवालों और वास्तव बिम्बों को सामने लाना होगा।प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के शब्दों में, “स्त्री अस्मिता का वास्तव विमर्श उसके जीवन की छोटी चीज़ों से लेकर महान् लक्ष्यों तक फैला हुआ है।स्त्री अस्मिता के दायरे में सिर्फ उसका शरीर ही नहीं आता, सिर्फ उसकी इच्छाएँ या कामुकता ही नहीं आती बल्कि समूचा समाज स्त्री अस्मिता का रणक्षेत्र है।प्रमुख सवाल यह है कि औरत अपने को किस रुप में बनाती है और समाज को किस रुप में बनाती है।”[19]

इसे समझने की सख्त़ ज़रुरत है कि स्त्री केवल मादा नहीं होती, उसकी एक सामाजिक भूमिका होती है।स्त्री की पहचान योनि से नहीं होती, चेहरे से होती है।  ‘The Second Sex’ में सीमोन द बोउवार इसी विषय पर रोशनी देते हुए लिखती हैं, “Woman’s awareness of herself is not defined exclusively by her sexuality: it reflects a situation that depends upon the economic organization of society, which in turn indicates what stage of technical evolution mankind has attained”[20]

धूमिल की कविता का भाषिक संरचना स्वभावतः स्त्री-विरोधी है।वे स्त्री के लिए जिन उत्तेजनापूर्ण शब्दों का प्रयोग कविता में करते हैं उससे स्त्रियों को सख्त़ घृणा है।स्त्री ज़ोर से कहना या सुनना पसंद नहीं करतीं, इससे परेशान होती हैं। स्त्री उत्तेजनापूर्ण भाषा न कहती है, न लिखती है और न बोलती है।उसे उग्र भाषा कतई पसंद नहीं।धूमिल अपनी कविताओं में लगातार उग्र और उत्तेजनपूर्ण शब्दों का प्रयोग करते हैं जो उनका भयंकर स्त्री-विरोधी लक्षण है।

द्रष्टव्य है कि धूमिल अपनी कविताओं में सामाजिक संबंधों, वर्गीय-संबंधों, मानव-संबंधों और राजनीतिक प्रतिकूलताओं को नहीं खोलते।यह उनकी समझ के बाहर था कि राजनीति में केवल पूँजीवादी असंगतियां ही नहीं आती।धूमिल उस ज़माने के वर्तमान समस्याओं को संबोधित ही नहीं करते।उस दौरान सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ और 1965 में भारत-पाक युद्ध हुआ जिसका उनकी कविता में कहीं कोई ज़िक्र नहीं।सन्’ 60 से ’70 के बीच जो वास्तविक आर्थिक संकट था उसे धूमिल की कविता नहीं छूती। 27 मई,1964 में नेहरु की मौत ने पूरे देश को शोकग्रस्त कर दिया।सारा देश भयानक डिप्रेशन में चला गया।लोगों में असंतोष भर गया।धूमिल की कविता में इस असंतोष का कहीं ज़िक्र नहीं है।वे लगातार लोकतंत्र और लोकसभा को आक्रमण कर सतही कविताएं लिखते रहे जो मूल समस्या नहीं थी।समस्या थी महंगाई, शोषण, सामाजिक असमानता, गरीबी, भष्टाचार आदि। उन्होंने विकेंद्रीकरण के विचार को भी संबोधित नहीं किया।चूंकि धूमिल के लिए लोकतंत्र बेमानी है अतः उनके लिए लोकतंत्र की त्रि-स्तरीय प्रणाली, नगरपालिका, विधानसभा, पंचायतें आदि सब बेमानी है। वे एक सिरे से सबका विरोध करते रहते हैं। धूमिल की इस गलत समझ पर रघुवीर सहाय ने धूमिल सहित अकविता के तमाम कवियों पर बहुत सटीक टिप्पणी की है, “धूमिल और अन्य कवियों की कविताओं में कहीं-कहीं लगता है कि इन्होंने बहुत ग़लत तरीक़े से समाज को समझा है और अपनी उस समझ को एक आवरण में अनजाने छिपा लिया है।छिपाने की ज़रुरत उनको नहीं महसूस हुई, क्योंकि वे समझते हैं कि हमने सही तरह से समझा है।उन्होंने एक ऐसी बात कह दी है कि जो सुनने और देखने में कोई बड़ी बदल देनेवाली बात लगती है या गुस्सा दिलानेवाली बात है।”[21]

लेकिन यह सोचने की बात है कि जिस लोकतंत्र का धूमिल लगातार खारिज कर रहें हैं, उस लोकतंत्र के बगैर कविता का भविष्य कैसा होगा।क्या वह केशव और घनानंद जैसा नहीं होगा जहां कोई सामाजिक सचेतनता नहीं था ? आधुनिक काल में आकर सामाजिक सचेतनता में वृद्धि होती है।भारतेंदुकालीन, द्विवेदीयुगीन एवं छायावादी कवियों पर यूरोप के रेनेसां का व्यापक प्रभाव था,इसीलिए उनकी कविताओं में समाज के प्रति जागरुकता का भाव है।प्रगतिशील कवि मार्क्सवाद से प्रभावित होने के कारण समाजवाद के लक्ष्य को लेकर चल रहे थे।इसलिए इनमें स्वभावतः समाज-चेतना एवं यथार्थवाद की भावना थी।लेकिन धूमिल सहित अकविता के तमाम कवि दिशाहीन थे, इनके पास जीवन का कोई लक्ष्य नहीं था। वस्तुतः लोकतंत्र के आने के बाद लोकतंत्र के प्रति सामाजिक सचेतनता बेहद ज़रुरी है ना कि उपेक्षा। धूमिल बराबर लोकतंत्र विरोधी-आलोचना लिखते रहे हैं, ना कि लोकतंत्र के प्रति प्रशंसात्मक-आलोचना।इससे स्पष्ट होता है कि धूमिल एक लोकतांत्रिक कवि होते हुए भी एक लोकतांत्रिक आलोचना विकसित नहीं कर पाए।

धूमिल की मुश्किल यह थी कि वे पहले से मानकर चल रहे थे कि देश का लोकतंत्र बुर्जुआ लोकतंत्र है, वह जन-विरोधी है, वह खराब है। अतः उसके विरोध में ही लिखना है।स्पष्ट है कि कविता का विषय, उसकी संरचना, कवि का दृष्टिकोण सब तय था कि लोकतंत्र के प्रति अस्वीकार के भाव में ही लिखना है।सो कविता भी तयशुदा ही थी।किंतु वास्तविकता यह है कि कविता कभी तयशुदा नहीं होती, उसका स्वायत्त एवं स्वतःस्फूर्त विकास ज़रुरी होता है।कविता के स्वायत्त विकास के लिए विषय का खोज ज़रुरी है।साथ ही लोकतंत्र के बारे में हमारे सरोकार तभी तय होंगे जब हम लोकतंत्र में शिरकत करेंगे।किंतु अकविता के तमाम कवि लोकतंत्र में शिरकत ही नहीं करते।देखा जाए तो रीतिकालीन कवि भी बुनियादी तौर पर तयशुदा विषयों पर ही लिख रहे थे।उनका लक्ष्य भी निर्धारित था, केवल दरबारियों के लिए लिखना लेकिन दरबार के बाहर जो विशाल जनता है उसकी वे अनदेखी कर दिए।उसी तरह अकविता के कवि और खासकर धूमिल यह ऐहसास दिला रहे थे कि वे उन तमाम क्रांतिकारियों के लिए लिख रहे थे और ये बाग़ी कवि थे किंतु क्रांतिकारियों के अलावा भी बहुत बड़ी जनता थी जिसकी इस दौरान अनदेखी हुई।इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि इनकी कविता अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुई।सोचने की बात है कि आगे चलकर धूमिल के पैटर्न पर कविता क्यों नहीं लिखी गई। क्या कारण है कि धूमिल का दृष्टिकोण, उनकी भाषा, उनकी विषयवस्तु ने लोगों को अपील नहीं किया।उनकी कविता का पूरा ढांचा उन्हीं तक सीमित रह गया। आगे उसने आधुनिक पीढ़ी को प्रभावित नहीं किया, उसका विकास नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि धूमिल के पास कोई विज़न नहीं था। वस्तुतः कवि का दृष्टिकोण ही कवि को अमर बनाता है।लोकतंत्र को देखने के लिए खासकर बड़े विज़न की ज़रुरत है।साथ ही अपने स्टीरियोटाइप सोच से बाहर निकलकर लोकतंत्र की खोज ज़रुरी है।लोकतंत्र पर आक्रमण करने से लोकतंत्र की समस्याओं का समाधान नहीं होता।लोकतंत्र के आने के बाद लोकतांत्रिक मूल्यों को अर्जित करने की बेचैनी का होना बहुत ज़रुरी है ना कि लोकतंत्र का खारिज।हमें लोकतांत्रिक नज़रिए और लोकतांत्रिक परिवेश के निर्माण की ओर बढ़ना है। लोकतंत्र में स्त्री के प्रति सम्मानजनक नज़रिए को विकसित करना है जिसके लिए स्त्री को पुनर्परिभाषित करने की बेहद ज़रुरत है।



[1] . धूमिल, संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1972 (पहला संस्करण), 1998(छठी आवृत्ति), पृ – 7

[2] . उपरोक्त, पृ – 12

[3]  . उपरोक्त, पृ – 13

[4] . चतुर्वेदी, जगदीश्वर, स्त्रीवादी साहित्य विमर्श, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, 2011(द्वितीय संस्करण), पृ – 207-208

[5] . धूमिल, सुदामा पाण्डे का प्रजातन्त्र, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1984, पृ – 18

[6]  . उपरोक्त

[7] . धूमिल, संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1972 (पहला संस्करण), 1998(छठी आवृत्ति), पृ – 29

[8] . उपरोक्त, पृ – 31

[9] . धूमिल, संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1972 (पहला संस्करण), 1998, फ्लैप (कवर पेज)

[10] . शर्मा, सुरेश, रघुवीर सहाय रचनावली(3), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ – 435

[11] . सहाय, रघुवीर, आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1967(प्रथम संस्करण), 2009(तीसरा संस्करण), पृ – 85

[14] . चतुर्वेदी, जगदीश्वर, सिंह, सुधा, कामुकता पोर्नोग्राफ़ी और स्त्रीवाद, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, 2007, पृ – 48

[16] . उपरोक्त

[17] . धूमिल, सुदामा पाण्डे का प्रजातन्त्र, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1984, पृ – 91

[19] . चतुर्वेदी, जगदीश्वर, सिंह, सुधा, कामुकता पोर्नोग्राफ़ी और स्त्रीवाद, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, 2007, पृ – 301

[21] . शर्मा, सुरेश, रघुवीर सहाय रचनावली(3), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ – 407

6 COMMENTS

  1. सिर्फ़ एक बात कहूंगा। जिन पाब्लो नेरुदा का ज़िक्र आप कर रही हैं ना वो एक बलात्कारी हैं। थोड़ी इस विषय पर रिसर्च और कर ली होता तो अच्छा रहता।

  2. पंडित नेहरु के मौत पे और भारत पाक युद्ध पे भी धूमिल ने बहोत कुछ लिखा है…..धूमिल कि कविताओं में आजादी का मोह भंग था एक युवा का दर्द था जो बहोत उम्मीद में था कि आजादी के बाद एक नई दिशा मिलेगी लेकिन उनके सपनो के लिए अभी तक कुछ नहीं किया गया…..उन्हें भी बहोत दुःख और निराशा होती है जब वे पूछते है कि –

    “क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
    जिन्हें एक पहिया ढोता है
    या इसका कोई खास मतलब होता है?”
    और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
    चुपचाप।

    “धूमिल अपने कविता के माध्यमसे एक क्रांति लाना चाहते थे और इसके लिए वो हमेशा संघर्ष करते रहे। जिस प्रकारकविता की रक्षा के लिए कबीर करघे पर कपड़ा बुनते थे, उसे बेचकर अपना खर्च चलते थे, संत रविदास कविता की रक्षा के लिए जूता बनाकर, उसे बेचकर अपना खर्च चलते थे, उसी प्रकार धूमिल ने सिर पर लोहा ढोकर अपना खर्च चलते थे। अपनीकविता की रक्षा कर रहे धूमिल का कर्म कबीर और रविदास से ज्यादा कठिनाइयों से भरा है “पेट से उपर विचारों के रूप में संघर्ष करता धूमिल समझ चुका है की इस व्यवस्था से संघर्ष में सबसे बड़ी बाधा अगर कुछ है तो वह है पेट अतः हमें पेट की चिंता छोड़ विचारो के साथ रहना होगा ।

  3. आप कि साहित्यिक सोच और समझ शायद इससे आगे कि नहीं है “घर में वापसी और आतिश कि अनार सी वह लड़की” जरुर पड़े आपकी सोच बदल जायेगी…..कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ उमीद करता हूँ पुनः सोच विचार जरुर करेगे ….

    बेटी की आँखें… मंदिर में दीवट पर
    जलते घी के दो दिये हैं।
    पत्नी की आँखें, आँखें नहीं
    हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं।
    ……कहते कि ये पिता हैं
    यह प्यारी माँ है,
    यह मेरी बेटी है
    पत्नी को थोड़ा अलग
    करते…तू मेरी
    हमबिस्तर नहीं…मेरी
    हमसफ़र है…..
    ……………………………………….

    ओ प्यारी भाभियों
    ओ नटखट बहिनों
    सिंगार दान को छुट्टी दे दो
    आइने से कहो कुछ देर अपना अकेलापन घूरता रहे
    कंघी के झडे हुए बालों की याद में गुनगुनाने दो
    रिबन को फ़ेंक दो बाडिज अलगनी पर
    यह चोटी करने का वक्त नहीं और न बाजार का
    बालों को ऐंठकर जूड़ा बांध लो
    और सब के सब मेरे पास आओ
    देखो, मै एक नयी और तजा खबर के साथ
    घर कि दहलीज पर खड़ा हूँ
    ओह ! जैसा मैनें पहले कहा है –
    बीस सेवों कि मिठास से भरा हुआ योवन
    जब भी फटता है तो न सिर्फ टैंक टूटता है
    बल्कि खून के छींटे जहाँ जहाँ पड़ते है
    बंजर और परती पर आजादी के कल्ले फूटते है
    और ओ प्यारी लड़की !
    कल तू जहाँ आतिश के अनार कि तरह फूट कर
    बिखर गयी है ठीक वहीँ से हम
    आजादी की वर्ष गांठ का जश्न शुरू करते है।

    धूमिल कभी भी महिला विरोधी नहीं रहे हाँ ये जरुर है कि अपने अल्प ज्ञान के कारणवश हम बार बार ऐसे कुतर्क देते रहते है…..

    • स्वतंत्रता के स्वप्न का टूटना,व्यवस्था से मोह भंग,अराजकता का बोलबाला,देश की बाद-से-बदतर होती स्थिति ,पंचवर्षीय योजनाओं की असफलता ,देश में रोटी और कपड़े का अभाव ,अकाल,चीन के साथ दोस्ती के नाम पर छल ,पंचशील के सिद्धांत का टूटना,शासक की असफलता,आदि में हम लोकतंत्र की अकाल मृत्यु और इमरजेंसी की धमक सुन सकते है ।धूमिल इसी आराजकता के खिलाफ जंग लड़ रहे थे अपने समय को “संसद से सडक तक “में उतार देने वाले कवि का मूल्यांकन इक्कीसवीं सदी में करने पर कमोवेश वही परिस्थितियाँ दिखाई पडती है,जिसे धूमिल ने सातवें दशक में लिख दिया था ।

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